अनुनाद

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विनोद दास की कविताओं का सिलसिला/ तीसरी कविता

युवा

घंटी बजाकर
आपके दरवाज़े के सामने
जो उदग्र युवा
कान से मोबाइल सटाए हुए मुस्करा रहा है
वह मूलत: इंजीनियर है

ऐश्वर्य के जगमगाते रास्तों में
उसकी इंजीनियरिंग की अस्थियां दबी हुई हैं
और अंधविश्वास की पौधशाला में पला
विज्ञान का यह प्रखर छात्र
फि़लहाल गले की अपनी ताबीज़ को पवित्र भाव से छू रहा है
बार-बार

अपने शहर से दर-ब-दर
यह अश्वमेधी अश्व
दौड़ता ही रहता है हर समय

सफ़र और मौत
दोनो ही करते रहते हैं इसका पीछा
सरीसृपों की तरह

घर का पता
अब इसके मोबाइल का सिर्फ़ एक नंबर है
मुलायम बंदिशों के इस क़ैदखाने में
वह जाना नहीं चाहता
मां रसोई से पुकारती रहती है
लेकिन खो जाती है उसकी आवाज़
पीजा-बर्गर के नए-नए स्वाद में

रिश्तों को व्यापार में
बदलने की कला में पारंगत यह नौजवान अकेला नहीं है
मोबाइल, लैपटाप की बटनों में छिपे हैं
इसके बेशुमार दोस्त

उसके लिए यह सब पचड़ा है
कि विदर्भ में कपास
खून से लिथड़ रही है

ग़रीबों के वोटों से बनी अमीरों की सरकार
किसानों की हड़प रही है ज़मीन
और उनकी पीठों पर चमक रहे हैं
अंग्रेज़ों की नहीं
हमारी पुलिस की लाठियों के निशान

उसे यह तक दिखाई नहीं देता
कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक
इन दिनों मज़दूर ऐसे चलता है
जैसे चल रहा हो
अंत्येष्टि यात्रा
धीरे-धीरे

लेकिन यह अपने देशकाल से
इतना भी निरपेक्ष नहीं

उसकी चिंता में
फि़ल्मी सितारों की रसीली कथाएं हैं
या सचिन का नब्बे के आसपास लटका शतक

सावधान!
अभी यह अपनी मीठी आवाज़ में
अपनी कंपनी की बीमा पालिसी बेचने के लिए
आपसे मनुहार करेगा

फिर सीटी बजाते हुए
कई लड़कियों को एक साथ करेगा
एस एम एस
कोई फूहड़ चुटकुला
अथवा घटिया शेर

****

0 thoughts on “विनोद दास की कविताओं का सिलसिला/ तीसरी कविता”

  1. विनोद दास की कविता बहुत दिनो बाद पढी. कुछ अतिशयोक्ति है लेकिन यह एक पक्ष है हो सकता है छोटी कविता में यह सम्भव न हो.. बहरहाल, शिरीष, चयन अच्छा है .. लगे रहो..

  2. पारभासी शीशों के वातानुकूलित चैम्बर में, बॉस के सामने अर्जित टारगेट्स को बदहवासी से बताता ये युवा इस कविता के ज़रिये अपने सीमित संसार की भयावह लम्बाईयों को नापता है…फिर भी उसके लिए सारा कुछ जैसे अछूता है

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