(`ज़हरीली हवा` से)
ग़ैब से चलने लगी जब
एक ज़हरीली हवा।
दिल के फफोलों से भरी
किस-किसके नालों से भरी
ख़ामोश चीखों से भरी
यह कहाँ से उठ रही है ऐसी दर्दीली हवा
ग़ैब से चलने लगी जब
एक ज़हरीली हवा
एक मौजे लहू आ रही है
मौत की जैसे बू आ रही है
कू ब कू, सू ब सू आ रही है
अपनी बेरंगी में भी है एक ज़रा नीली हवा
ग़ैब से चलने लगी जब
एक ज़हरीली हवा
एक ज़हरीली हवा
कैसा भभका, कैसी गंध
हो रही है सांस बंद
रोशनी आंखों की बंद
जिस्मों-जां में बस रही है कैसी मटमैली हवा
ग़ैब से चलने लगी जब
एक ज़हरीली हवा
कुछ ज़रा-सी गर्म भी है, कुछ ज़रा गीली हवा
ग़ैब से चलने लगी जब एक ज़हरीली हवा
एक ज़हरीली हवा।
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(`दुश्मन` से)
आसमान तक उठ रहा है ज़ुल्म का पहाड़ रे
जी नहीं सकेंगे अब तो लेके इसकी आड़
इस तरफ है ख़ार ज़ार गुलिस्तां उधर
दुख इधर है और सुख की वादियां उधर
घर भी उजाड़ अपना दिल भी है उजाड़
आसमान तक उठ रहा है ज़ुल्म का पहाड़।
दूसरी तरफ तो बह रही है जूए शीर
इस तरफ़ हवा भी चल रही है जैसे तीर
इस तरफ़ नज़र में कोई फूल है न झाड़
आसमान तक उठ रहा है ज़ुल्म का पहाड़।
इंकलाब ज़िंदाबाद का लगा के शोर
पंजाए सितम को आज़मा लगा के ज़ोर
हो सके तो बढ़के इस पहाड़ को उखाड़
आसमान तक उठ रहा है ज़ुल्म का पहाड़।
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नेक दिल
नेक दिल अपने कमज़ोर दिल को तो देख
क्या ग़रीब आदमी में भलाई नहीं
क्या ख़तरनाक मौकों पे इंसान ने
बार-बार अपनी हिम्मत दिखाई नहीं
तंग नज़री की हद नामुरादी की हद
तंग नज़री की हद नामुरादी की हद
तंग नज़री की हद नामुराद
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इन कविताओं के लिए शुक्रिया धीरेश जी ! हबीब साहब तो अभी बहुत बहुत दूर तलक याद आएँगें. "जिस लाहोर…" में उन्होनें माई का क़िरदार निभाया था, उसे हमारे युगमंच के ज़हूर दा भी ग़ज़ब का करते हैं – इस बार तय हुआ था कि ज़हूर दा माई बनेंगे और हबीब साहब दर्शकों में बैठ कर उन्हें देखेंगे. हम सभी दुखी हैं….. खैर नाटक तो जारी रहेगा ………….
इन गीतों को पढ़वाने के लिए शुक्रिया दोस्त।
awaaz bhi chipkayiye n……