(अनुवाद : अशोक पाण्डे)
फ़कीर
जब कवियों ने प्रस्थान किया एक-एक कर
उनके पास इतनी रसद भर थी कि किसी ग़रीब आदमी के लिए पर्याप्त होती
और वापसी का टिकट
मैं उन्हें बताता हूँ : “इतने तेज़ क़दम मत बढ़ाओ
भाइयो, एक घंटा और कर लो प्रतीक्षा
रात बीतने ही वाली है´´
लेकिन वे चले जाते हैं
आसमान बिल्कुल काला नहीं है, बस गहराते बादल हैं…
वे काले नज़र आते हैं और सलेटी
भोर बेवफ़ा है मगर है तो भोर ही
आसमान के एक कोने पर लगातार ठहरे सफ़ेद बादल से
मैं कहता हूँ
मैं तुम्हारा हूँ, हँसिये जैसी मेरी चमक तुम्हारी है
मैंने रात भर तुम्हारा… तुम्हारा इंतज़ार किया
जबकि तुम यहीं थे – मेरे तकिए के नीचे
मेरे बालों को सहलाते-दुलारते
तुम रहोगे मेरे साथ यहीं
मैं जहाँ होऊँगा तुम भी वहीं
मैं आसमान से कहूँगा कि खुल जाए वह
मैं घोषणा करूँगा कि तुम हो दिन का उजाला
शुभ दिन, प्यारे लड़के !
***
दो
कवि चल देते हैं एक के बाद एक
कविता का अंत आते-आते …
कैसे पहुंचे तुम यहाँ इस ज़ीरो प्वाइंट पर ?
कैसे पहुंचे यहाँ आख़िरकार
तुम कहाँ छोड़ आए हमारी लालटेनें, हमारे पर्वतशिखर ?
क्या तुमने कभी नहीं देखी बिल्ली की आँखें ?
क्या हमने एक पंक्ति का पीछा किया उसके अंत तक ?
तब भी तुम चल देते हो यहाँ से
इस पहाड़ पर कभी नहीं पड़ेंगी सिलवटें
हम जानते हैं इस पहाड़ को
इसके कोटरों से हम लेकर आएंगे शहद
और मेरी ढाल के लिए बाज के पंख
नाम ही नहीं हैं फूलों के पास
और चिंदी-चिंदी बसन्त, और गाँवों की गंध टोहते भेड़िए
वहाँ दर्रे हैं,
और बकरियों और तस्करों के वास्ते पगडंडियाँ
यहाँ मेहमान नहीं होते सिपाही
संतों की क़ब्रों पर हरे रिबन चढ़ाए गए हैं
हम नहीं जानते उन मकानों को – औरतें वहाँ से
डबलरोटियाँ और मोमबत्तियाँ लेकर आती हैं
शुभ दिन, प्यारे पर्वतो !
***
तीन
कवि चल देते हैं एक के बाद एक
टहनी का अंत आते-आते
नहीं :
तुम लोग कैसे छोड़ सकते हो मुझे ?
हम कैसे कह सकते हैं : पानी की लहरें हमारी हैं ?
हम कैसे कह सकते हैं : टहनियाँ हमारी हैं, और हमारा यह सुनहरा शहद
कैसे कि : यह शुरूआत है टहनी की
तब भी तुम चल देते हो यहाँ से
पेड़ो, तुम हो पवित्र ! तुम फलो-फूलो,
तुम पवित्र हो – अपने मोरपंखों और पुरातन पक्षियों की कलगियों समेत !
तुम हो पवित्र जहाँ अंडे देती हैं चींटियाँ, सितारे का पीछा करता सेही तुम्हारे गिर्द चक्कर काटता है
और टिड्डियों की आवाज़ें तुम्हारी टहनियों से आती है
चाँदी जैसी सफ़ेद रात में
स्वर्ग से आने वाली हवा तुम्हें पंखा झलती है और सुनहरी धूप में तुमसे टपकती है चाँदी
मैं कहूँगा : तुम मेरे पहले पेड़ हो
तुम हो मेरा झोपड़ा
मेरी समाधि और मेरा मुकुट
शुभ दिन, कविता !
***
चार
मैं तुम्हें कोई इल्ज़ाम नहीं दूँगा
शराब की बंजर धरती से मैं नहीं कहूँगा अलविदा तुम्हें !
जब तूफ़ान टूटेगा, मैं सुनूंगा नहीं
मैं दोहराता जाऊँगा तुम्हारे नाम …
और तुम्हारे आसमानों को
मैं एक वफ़ादार पहरुवे की तरह
तुम्हारी छोड़ी चीज़ों का ख़्याल रखूँगा
मैं नहीं बन जाऊँगा धूल का राजकुमार
***
पाँच
रात को
रात ख़त्म होने पर
चिड़ियाँ आएंगी मेरे पास
और आएंगे चौड़े चरागाहों की ओस से भीगे भेड़िए
और हिरणियाँ आएंगी
रात के बीतने पर
सात कवि आएंगे
मेरी गुफ़ा में शरण लेने को …
***
बढ़िया अनुवाद ! अशोक में कुछ बात थी, अब भी होगी ! उसका काम अलग दिखता है. ओस से भीगे भेड़ियों के बारे सोचना और ऐसे विरोधाभासी बिंब को जन्म देना, सादी की और उसके परिवेश की ताक़त है.