साहित्य की जिस एक चीज़ ने मुझे मेरे लड़कपन में सबसे ज्यादा आकर्षित किया था, जिस एक चीज़ से सबसे ज्यादा राहत मिलती थी वो यह नहीं थी इसके ज़रिये दुनिया को या खुद को बदला जा सकता था। जिन दिनों मैंने लिखना शुरू किया मैं अपने आपसे इतनी बुरी तरह प्रेम करता था कि अपने को बदलने का खयाल तक नहीं आता था और दुनिया के मेरे अनुभव थोड़े ख़राब तो थे पर उतने नहीं कि मैं उसे बदलने के षड्यंत्रों में शामिल हो जाता. दुनिया में मेरे लिए सबसे ख़राब चीज़ थी मेरिटोक्रेसी – यह शब्द मैं तब नहीं जानता था और मुझे लगता था साहित्य में सबके लिये जगह होती है, सिर्फ मेरिट वालों के लिये नहीं. यह मेरे लिये साहित्य की ‘पहचान’ थी। मैं एक ‘टैलेन्टेड’ टाईप विद्यार्थी ही था और जूनियर हायर सेकिंडरी में बायोलोजी लेने के बाद सीधे डॉक्टर बनने की ओर बढ़ रहा था – बावजूद डिसेक्शन बॉक्स सबसे अच्छा होने के (यह हमारी आर्थिक स्थिति का नहीं मेरी जिद और पापा के स्नेह का सबूत था; कभी बंगाल में राशन की दुकानों पर लम्बी लाईनों में खड़े रहने की बजाय दादागिरी से लाईन तोड़ने वाले और अपने लिये किसी लोकल दादा से बेहतर भविष्य की उम्मीद न कर सकने वाले पापा नौकरी के पहले 11 साल बीकानेर में बैंक क्लर्क रहे सिर्फ इसलिये कि उन पर चार लोगों के ‘अपने’ परिवार के अलावा तीन भाईयों की जिम्मेवारी भी थी और वे उन्हें छोडकर अफसर बनकर किसी और शहर नहीं जाना चाहते थे – अफसर बनने पर ट्रांसफर अनिवार्य था) और किसी तरह एक कॉक्रोच की हत्या सफलतापूर्वक कर लेने के यह पता उसी साल चलने लग गया था कि मेरा मन कहीं और है – उन्हीं दिनों मैं पाखाने में रोटी खाने की इंतहा तक गया था (यह उत्तर-मंडल कमीशन युग था और हाईजीन तो तब एक ‘एलीट’ चीज़ थी ही मेरे लिये)। मेरे रिश्तेदारों में जिस एक मात्र व्यक्ति ने मेरे साथ कामरेड श्योपत को बीकानेर से सांसद बनाने की ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल करने के लिए अपना तन मन दांव (धन की अनुपस्थिति पर गौर करें) पर लगाया था वही भैया यह सिद्ध करना चाह रहा था कि वर्णाश्रम/अस्पृश्यता जन्म-आधारित नहीं, कर्म-आधारित होते हैं जब पाखाने से आते हो तब क्या खुद तुम्हें ही कोई हाथ लगाता है? बात इतनी बढ़ी कि मैंने एक कौर वहीं जाके तोड़ा. अब आप अंदाजा लगा सकते हैं मैं क्या कर रहा था। उधर ब्राह्मणों का गुरुकुल/गढ़ माने जाने वाले एक सरकारी हिन्दी मीडियम स्कूल में वर्षांत का भाषण (अंग्रेजी में) देते हुए मैं दो घटनाओं को सार्वकालिक महत्व की पहले ही बता चुका था – बर्लिन दीवार का ढहना और भारत जैसे हतभागे देश का वी.पी.सिंह जैसे संत प्रधानमंत्री को खो देना. मेरिटोक्रेसी से आस्तित्विक चिढ़ के कारण ही मैं आरक्षण का बहुत वोकल समर्थक हुआ और दो तीन बार पिटते पिटते बचा।
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इस नयी दुनिया में मेरिट का आतंक कई सालों तक मुझे नहीं दिखा – वो यकसापन (होमोजिनिटी) जो बहुत ख़राब लगता था यहाँ कहीं नहीं था। मेरे ऐसे इम्प्रेशन शायद इसलिए भी थे कि मेरे सबसे छोटे, थियेटर करने वाले चाचा की लाइब्रेरी बहुत अगड़म बगड़म थी। मेरी शुरुआती रीडिंग ज्यादातर नाटकों की थी – मोहन राकेश, बादल सरकार, तेंदुलकर, कर्नाड की अनिवार्य खुराक, अंकल और दोस्तों ने बीकानेर में एंड गेम, वेटिंग फॉर गोडो, एवम् इन्द्रजीत आदि करके जो “सांस्कृतिक अत्याचार” किया था उसका कुछ गवाह मुझे भी होना था. यह कैसा ‘डिवाईन’ प्रतिशोध है कि यह अत्याचार करने वाले अंकल आजकल रामानंद सागर के बेटों के साथ सागर आर्टस में हैं। लेकिन मेरिट का आतंक और होमोजिनिटी यहां नहीं है, यह दिल को खुश रखने वाला अच्छा खयाल ही साबित हुआ। हिन्दी की साहित्यिक दुनिया में श्रेष्ठता का संवेग बहुत गहरे तक है, बाजदफ़ा श्रेष्ठता ग्रंथि भी। मेरिटिक्रेसी यहाँ भी है और यह अहसास जब तक नहीं हुआ मैं इस खेल में शामिल भी रहा – चाहे जितनी दूर दूर से और हार्मलेस तरीके से ही सही। होमोजिनिटी भी बहुत है बल्कि ऐसा तंत्र है जो सबसे एक जैसी अपेक्षाएँ करता है, सबके लिये एक जैसे कार्यभार और परियोजनायें तय करता है और इसकी बहुत परवाह नहीं करता कि यह होमोजिनिटी बहुत कृत्रिम हो जायेगी (अतीत के लेखकों के एप्रोप्रियेशन के संदर्भ में हालांकि नामवर सिंह इस संभावित कृत्रिमता की पहचान अस्सी के शुरू में ही कर चुके थे), बल्कि हो गयी है और जब यह शिकायत की जाती है कि बहुत ज़्यादा कवि हैं या एक जैसी कविता लिख रहे हैं तो अजीब लगता है क्योंकि यह तो हमने खुद ही आमंत्रित किया था, होना ही था!
मैं जहाँ से आया वह हिन्दी का रोज़मर्रा नहीं था ना मैं दिल्ली-पटना-लखनऊ-इलाहाबाद-बनारस-भोपाल जैसे भूगोल से आया था, ना हिन्दी अध्ययन-अध्यापन-प्रकाशन-पत्रकारिता जैसे ‘वातावरण’ से और बद्रीनारायण की तरह कहा जा सकता है कि ना नामवरजी से रिश्तेदारी थी ना वाजपेयीजी से परिचय। लेखक होने का कोई अभ्यास नहीं था – खुद को नैतिक रूप से सदैव सही मानने और देश-दुनिया में हो रही सब गड़बड़ी के कारण और समाधान जानने का आत्मविश्वास भी नहीं था हालांकि वैसा होना बहुत कारगर रहता (बावजूद देवी प्रसाद मिश्र जैसे ब्लसफेमस लोगों के जो कहते हैं कि इस कारगरता ने हिन्दी लेखन को बहुत पाखंडपूर्ण बनाया है)।
यह सब वो बैकड्रॉप है जिसमें मैं धीरे धीरे हिन्दी लेखक हुआ; हुआ कि नहीं इस पर संदेह उतना ही बना हुआ है वैसे। समूची सृष्टि से एकात्म हो सकना तो जाने कैसे होता होगा, किसी दूसरे के दुख-सुख आदि को महसूस कर सकने, उसे अपना बना सकने की बुनियादी संवेदना/क्षमता भी है कि नहीं कुछ ठीक से दावा नहीं कर सकता। ये मोज़जा भी कविता/साहित्य ही कभी दिखाये शायद मुझे (कि संग तुझ पे गिरे और जख़्म आये मुझे)।
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हिन्दी समाज की तरह हिन्दी साहित्य में भी व्यक्ति का, व्यक्तिमत्ता का वास्तविक सम्मान बहुत कम है कुछ इस हद तक कि कभी कभी लगता है यहाँ व्यक्ति है नहीं जबकि बिना व्यक्ति के (उसी पारिभाषिक अर्थ में जिसमें समाज विज्ञानों में यह पद काम मे लाया जाता है) ना तो ‘लोकतंत्र’ (ये शै भी हिन्दी में वैसे किसे चाहिये?) संभव है ना ‘सभ्यता-समीक्षा’ जैसा कोई उपक्रम। यह तब बहुत विडंबनात्मक भी लगता है जब हम किसी लेखक की प्रशंसा ‘अपना मुहावरा पा लेने’, ‘अपना वैशिष्ट्य अर्जित कर लेने’ आदि के आधार पर करते हैं। यूँ भी किसी लेखक के महत्व प्रतिपादन के लिये जो विशेषण हिन्दी में लगातार, लगभग आदतन काम में लिये जाते हैं – “महत्वपूर्ण” कवि, “सबसे महत्वपूर्ण” कहानी संग्रह, “बड़ा” कवि, हिन्दी के “शीर्ष-स्थानीय” लेखक, “शीर्षस्थ” उपन्यासकार आदि – वे श्रेष्ठता के साथ साथ ‘विशिष्टता’ और “सत्ता” के संवेग से भी नियमित हैं। एक तरफ होमोजिनिटी उत्पन्न करने वाला तंत्र और दूसरी तरफ विशिष्टता, श्रेष्ठता की प्रत्याशा। व्यक्तिमत्ता के नकार और उसके रहैट्रिकल स्वीकार के बीच उसका सहज अर्थ कि वह ‘विशिष्ट’ नहीं ‘भिन्न’ है, कि अगर 700 करोड़ मनुष्य हैं तो 700 करोड़ व्यक्तिमत्ताएँ हैं कहीं ओझल हो गया है।
हिन्दी साहित्य मेरी कल्पना में कोसल है जो कुछ ‘मेरिटोरियस’ लेखकों का, अमरता के उद्यमियों का उपनिवेश नहीं, हजारों-लाखों का गणराज्य है।
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नाईन्टीज के मध्य में पहली बार लिखने और उसके औपचारिक समापन के दिनों में पहली बार प्रकाशित होने वाले अपने पुराने चेहरों से मेरा परिचय अब कुछ धुंधला पड़ गया है, शायद मैं बदल गया हूँ और इस खुशफहम खयाल को हो सके तो कुछ दिन थाम के रखना चाहता हूँ कि बदल कर अगर बेहतर नहीं बदतर हुआ हूँ तो भी इस ‘परिवर्तन’ में सबसे बड़ा, निर्णायक रोल साहित्य का रहा है, गो कि पूरी तरह हिन्दी साहित्य का नहीं।
रोचक आत्म-संस्मरण ! साहित्य की कूटनीतियों पर तीखा व्यंग्य भी है – मुझे बहुत अच्छा लगा. देख रही हूँ कि दूसरी कोई टिप्पणी नहीं है. वैसे आपका मोडरेशन भी आन है, शायद आप कुछ टिप्पणियों को न छापते हों. आप ने हर बार गूगल साइन न करने से राहत दी है तो एक बाधा भी रखी है. इसे ज़रूर छापियेगा!
पंकज जी अब ब्लागर बन गए हैं शायद इसीलिए उन्होंने वो लम्बी और शानदार टिप्पणियां करना छोड़ दिया है-:)
ये आत्मकथ्य इसलिए ज़रूरी लगा क्योंकि ये बहुत हद तक मेरी उस चिर जिज्ञासा से मुखातिब होता है कि अधिकाँश हिंदी लेखकों के भूगोल से बाहर का हिंदी रचनाकार आखिर कैसे लिखता है और उसकी चिंताएं सरोकार भाषा वगैरह किस तरह बाकियों से अलग या एक जैसी होती हैं.
योग्य और श्रेष्ठ लोगों का तंत्र और दुनिया को एक समरूपी विलयन में घोल देने की चिंताओं पर लेखक से सहमत.हर व्यक्ति दुसरे से भिन्न है न कि विशिष्ट.
शुक्रिया शिरीष जी.धन्यवाद गिरिराज जी.
"इन प्लेन यातना और प्लेन अकेलेपन के दिनों में जो लोग हमारे जैसे टीनएजर थे 89 में, बहुत भौंचक थे- 1992 तक आते-आते वे अजनबी हो गए थे, घर में बाहर सब जगह।"
यही बियाबान तो साहित्य का जादूगोड़ा (पूर्वी सिंहभूम)है। और हां भीतर किसी दीवार पर लिखा एक नारा सर्र से गुजर गया जो कभी ट्रेन की खिड़की से देखा था- जब लाल-हरा लहराएगा, श्योपत दिल्ली जाएगा।
ये हरा था या दोनों बार लाल था।
तब तो यह लाल-हरा ही था , बाद में न लाल रहा न हरा. पर इस नारे ने कैसे इतने साल इतनी सूदूर एक याद में जगह बनाये रखी? १३ जनता दल ११ भाजपा और एक सीपीएम तब यह बंटवारा था – इस नारे को खूब झूम के गाती थीं तीन-एजर टोलियाँ – मुस्कुराते थे 'अनुभवी'. कामरेड के नाम श्योपत को ही हम ऐसे गरज के बोलते थे कि सबसे बड़ा नारा तो वही लगता था. शुक्रिया रागिनी, संजय और अनिल.
मार्मिक .
अपना पहला डिसेक्शन याद आ गया. पर वो एक मेंढक था. कितने इंसानों को मैं बचा पाऊंगा…. कितने मेंढक मुझे मारने होंगे…. मैं डर गया था. मैं कायर था. मैं कुछ नही कर सकता था सिवाए कविता लिखने के.
मेरिटोक्रेसी : क्या शब्द है !
( गोया के ये तो मेरे भी मन में था.)
दिल के बड़े करीब .वे दिन याद आ गए