अनुनाद

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मुसलमान – देवीप्रसाद मिश्र

कल एक युवतर कवि से देवीप्रसाद मिश्र का ज़िक्र चला तो मुझे ये पोस्ट याद आई। रमज़ान के पवित्र महीने में ये भारतीय आत्मावलोकन एक बार फिर आपके लिए………….

वे मुसलमान थे – मेरे मन में इस कविता की गहरी स्मृति है। 89 के आखिर में जब ये छपी, तब मैं ग्यारहवीं में पढ़ने वाला छोकरा ही था। मैंने इसे छपने के दो बरस बाद अठारह की उम्र में पढ़ा, जब बाबरी मस्जिद विवाद पूरे भारत को झकझोर रहा था। हालांकि मुझे अठारह की उम्र छोकरा ही रहना था पर मैं कविताएं पढ़ने लगा था और रामनगर में हमारे घर गर्मियों के कुछ दिन गुज़ारने आए बाबा नागार्जुन की संगत करता था – आप समझ सकते हैं यह संगत कितनी संक्रामक हो सकती थी। मैं अचानक विचारवान हो चला था या कहें कि विचार की एक आभासी दुनिया में रहने लगा था। समाज का सही-ग़लत मैं जानता था और आइसा की छात्र राजनीति मेरे जीवन में प्रवेश कर चुकी थी। कविता लिखना भी शुरू हो गया था। उन उमस भरे उर्वर दिनों में मुझे वाचस्पति जी (तब काशीपुरनिवासी) के घर में आलोचना के पुराने अंक खंगालते ये कविता मिली।
ग़ौरतलब है कि इस कविता ने मेरे उस काव्य संस्कार पर हमला किया, जो केदारनाथ सिंह की कविता के बेहद प्रभावी किशोर सम्मोहन के चलते मेरे भीतर घर बनाने लगा था। इस कविता में बेहद ठोस प्रतीक थे, केदार जी की तरह के झीने-झीने बिम्ब नहीं। विचार के स्तर मुझे पहली बार लगा कि पांवों के नीचे ज़मीन और सर के ऊपर आसमान होना क्या होता है! बाद के वर्षों में पढ़ाई और रोज़गार की खोज सम्बन्धी व्यस्तताएं बढ़ीं और जीवन की दूसरी कई उलझन भरी राहें खुलने लगीं। मेरे रहने के स्थानों में लगातार परिवर्तन हुए इस दौरान दूसरी कई चीज़ों के साथ-साथ ये कविता मुझसे खो गई। पिछले कुछ समय में छपी देवी भाई की लम्बी कविताओं ने दुबारा मुझे इस कविता की याद दिलाई और बहुत खोजने पर एक बार फिर वाचस्पति जी (अब स्थायी रूप से काशीनिवासी) का निजी पुस्तकालय ही मेरे काम आया। उन्होंने मेरे अनुरोध पर अत्यन्त प्रीतिपूर्वक आलोचना के उन्नीस बरस पुराने उस अंक को खोजा और यह कविता मुझ तक पहुंचाई। मेरा उन पर अधिकार है, इसलिए उनके लिए आभारनुमा कुछ नहीं लिखूंगा।

मैं कविता पर भी सीधे कोई टिप्पणी नहीं करूंगा और थोड़ा विषयान्तर करते हुए बताना चाहूंगा कि मैंने डी0फिल0 के लिए कथाकार शानी पर शोधकार्य 1997 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्रो0 सत्यप्रकाश मिश्र के निर्देशन में शुरू किया और अपनी काहिली के चलते 2006 में उसे नैनीताल में निबटाया। सम्बन्धित बात यह है कि इस शोध के दौरान देवी भाई अचानक एक बार फिर मेरी ज़िन्दगी में चले आए। सभी काग़ज़ात अब मेरे पास सुरक्षित नहीं है पर जहां तक मुझे याद है शानी ने समकालीन भारतीय साहित्य के एक अंक में नामवर सिंह, काशीनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और खुद के बीच हुई एक परिचर्चा लगातार दो अंकों में छापी, जिसमें हमारे समाज और साहित्य से सम्बंधित कई तल्ख सवाल हावी थे। मुझे हैरानी हुई जब मैंने देखा कि नामवर सिंह से बहस करते हुए वे अचानक देवीप्रसाद मिश्र की उसी समय आयी इस कविता की घोर निन्दा करने लगे। बाद की बातचीत में तो लगा कि वे इस कविता की धज्जियां उड़ा देने पर उतारू हैं। मेरे लिए हैरानी यह थी कि शानी ने खुद उसी विचार और भावभूमि पर अपनी युद्ध सरीखी कहानियां लिखी हैं। उनकी इस कविता से असहमति मेरी समझ में कतई नहीं आयी, हो सकता है इसके पीछे उनके यानी सम्पादक समकालीन भारतीय साहित्य और नामवर सिंह यानी सम्पादक आलोचना के बीच की कोई कटुता रही हो, जिसका शिकार इस कविता और कवि को बनना पड़ा, लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हुई – शानी ने इस कविता के खिलाफ़ नवभारत टाइम्स के अपने स्तम्भ में भी लिखा, जो नेशनल पब्लिशिंग हाउस से आयी उनकी एक किताब में संकलित भी है। उन्होंने इस कविता को भारतीय मुसलमानों की गरिमा और अस्तित्व पर हमला बताया और जैसा कि मैंने पहले भी कहा – मुझे तो इस असहमति का कोई तर्कसंगत कारण कभी नहीं मिला।
फिलहाल इस साहित्यिक उठापटक से बाहर आते हुए मैं आप सबसे कहूंगा कि कई रूपों में सामने आ रहे हमारे आज के भयावह साम्प्रदायिक अंधरे में यही समय है – आप कृपया इस कविता को ध्यान से पढ़िए और अपनी राय भी जाहिर कीजिए !


***


कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए
कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले
वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे

वे मुसलमान थे

उन्होंने अपने घोड़े सिंधु में उतारे
और पुकारते रहे हिंदू ! हिंदू!! हिंदू!!!

बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया
नदी का नाम दिया

वे हर गहरी और अविरल नदी को
पार करना चाहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन वे भी
यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो
हिंदुओं की तरह पैदा होते थे

उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियां थीं
चलने की
ठहरने की
पिटने की
और मृत्यु की

प्रतिपक्षी के खून में घुटनों तक
और अपने खून में कंधों तक
वे डूबे होते थे
उनकी मुटि्ठयों में घोड़ों की लगामें
और म्यानों में सभ्यता के
नक्शे होते थे

न! मृत्यु के लिए नहीं
वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे

वे मुसलमान थे

वे फ़ारस से आए
तूरान से आए
समरकंद, फ़रग़ना, सीस्तान से आए
तुर्किस्तान से आए

वे बहुत दूर से आए
फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए
वे आए क्योंकि वे आ सकते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे कि या खुदा उनकी शक्लें
आदमियों से मिलती थीं हूबहू
हूबहू

वे महत्वपूर्ण अप्रवासी थे
क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियां थीं

वे घोड़ों के साथ सोते थे
और चट्टानों पर वीर्य बिखेर देते थे
निर्माण के लिए वे बेचैन थे

वे मुसलमान थे

यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है
तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए

कि वे प्राय: इस तरह होते थे
कि प्राय: पता ही नहीं लगता था
कि वे मुसलमान थे या नहीं थे

वे मुसलमान थे

वे न होते तो लखनऊ न होता
आधा इलाहाबाद न होता
मेहराबें न होतीं, गुम्बद न होता
आदाब न होता

मीर मक़दूम मोमिन न होते
शबाना न होती

वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुननेवाला खुसरो न होता
वे न होते तो पूरे देश के ग़ुस्से से बेचैन होनेवाला कबीर न होता
वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहनेवाला ग़ालिब न होता

मुसलमान न होते तो अठारह सौ सत्तावन न होता

वे थे तो चचा हसन थे
वे थे तो पंतगों से रंगीन होते आसमान थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे और हिन्दुस्तान में थे
और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे

वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते
वे सोचते थे और सोचकर डरते थे

इमरान खान को देखकर वे खुश होते थे
वे खुश होते थे और खुश होकर डरते थे

वे जितना पीएसी के सिपाही से डरते थे
उतना ही राम से
वे मुरादाबाद से डरते थे
वे मेरठ से डरते थे
वे भागलपुर से डरते थे
वे अकड़ते थे लेकिन डरते थे

वे पवित्र रंगों से डरते थे
वे अपने मुसलमान होने से डरते थे

वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे लेकिन वे अपने घर को लेकर घर में
देश को लेकर देश में
खुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे

वे उखड़ा-उखड़ा राग देश थे
वे मुसलमान थे

वे कपड़े बुनते थे
वे कपड़े सिलते थे
वे ताले बनाते थे
वे बक्से बनाते थे
उनके श्रम की आवाज़ें
पूरे शहर में गूंजती रहती थीं

वे शहर के बाहर रहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था
वे मुसलमान थे अरब का पेट्रोल उनका नहीं था
वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे

वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे
वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे
देश के ज्यादातर अखबार यह कहते थे
कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं
कर्फ़्यूलगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की
खबरें आती थीं

उनकी औरतें
बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं
बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे
वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे इसलिए
जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे

वे अगर पांच बार नमाज़ पढ़ते थे
तो उससे कई गुना ज्यादा बार
सिर पटकते थे
वे मुसलमान थे

वे पूछना चाहते थे कि इस लालकिले का हम क्या करें
वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूं के मक़बरे का हम क्या करें
हम क्या करें इस मिस्जद का जिसका नाम
कुव्वत-उल-इस्लाम है
इस्लाम की ताक़त है

अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे
वे मुसलमान थे

वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएं
लेकिन नहीं जा सकते थे
वे सोचते थे यहीं रह जाएं
तो नहीं रह सकते थे
वे आधा जिबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे

वे मुसलमान थे इसलिए
तूफान में फंसे जहाज के मुसािफ़रों की तरह
एक दूसरे को भींचे रहते थे

कुछ लोग यह बहस चलाए थे कि
उन्हें फेंका जाए तो
किस समुद्र में फेंका जाए
बहस यह थी
कि उन्हें धकेला जाए
तो किस पहाड़ से धकेला जाए

वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियां नहीं थे
वे मुसलमान थे वे चूज़े नहीं थे

सावधान!
सिंधु के दक्षिण में
सैकड़ों सालों की नागरिकता के बाद
मिट्टी के ढेले नहीं थे

वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे
वे सिंधु और हिंदुकुश की तरह सच थे
सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो
उस तरह वे सच थे
वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे
वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे

वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
वे मुसलमान थे
***

0 thoughts on “मुसलमान – देवीप्रसाद मिश्र”

  1. प्रिय शिरीष जी ,
    आलोचना तो मैं बराबर पढ़ता रहा हूँ, आश्चर्य है कि आपके ब्लॉग पर आने से पूर्व यह कविता मैं ने क्यों नहीं पढ़ी. शायद इसलिए कि जब यह छपी मेरी व्यस्तताएं बहुत बढ़ चुकी थीं. शायद इसलिए भी कि नामवर सिंह और मेरे बीच उस समय तक कुछ गहरी रेखाएं खिंच चुकी थीं. मेरी दृष्टि में इतने नाज़ुक विषय पर इससे अच्छी लविता नहीं लिखी जा सकती. मैं नहीं जानता कि शानी ने इस कविता को किस कोण से देखा. भारतीय मुसलामानों की गरिमा और अस्तित्व पर हमले जैसी कोई बात मुझे इसमें नहीं दिखायी दी. संभवतः इसके अंडर करेंट को वे पकड़ नहीं पाये. उन्होंने उन शब्दों के उस फैलाव को नहीं देखा जो समय और युग के साथ आहिस्ता-आहिस्ता खुलते जाते हैं और अतीत को वर्त्तमान से जोड़कर कुछ और विस्तार की मांग करते हैं. जहाँ इक्कीसवीं शती का यह पहला दशक भी उनके भीतर कहीं झाँक रहा है. और अपने रचनाकाल से कहीं अधिक कविता को आज प्रासंगिक बना रहा है.
    स्नेह सहित
    शैलेश ज़ैदी

  2. ये विवाद को जाने दें। क्या जाने क्या राजनीति थी और किसी शानी के कुछ कहने के क्या मानी?
    अद्भुत कविता है भाई। मैं देवीप्रसाद जी का मुरीद हुआ। पहले भी उनकी कुछ कविताएँ अनुनाद पर पढ़ी थीं। भाई उनकी कविताओं का सिलसिला कुछ दिन और बनाए रखिये। (मोगेम्बो खुश होगा)

  3. वाकई इस मुद्दे पर ऐसी कविता मैने पढ़ी नहीं…देवी जी की हम्तो बहुत पहले से कायल हैं पर अभी बहुत दिनों से उनकी ताज़ी कविताएं दिख नहीं रही…..बहुत बहुत शुक्रिया

  4. Taqatwar awaaz hai. jabhi me sochoon k devi ji phone par itna maddham kyon bolte hain ? apni asli oorja shayad ve aisee hi kavitaon me jhaunk dene k liye bacha kar rakhte hain.
    Badi baat to ye hai k asad ji ko kavita pasand aayi.unka sangrah Saaaman ki talaash hafte bhar me mere paas pahunch rahi hai. Vivad k karan nahi balk is liye padhna chahta hoon k guruvar SPSehgal k aadesh hain.baharhaal, thanks fo this valuable post shireesh.

  5. sashakt kavita!abhibhoot hua
    devi ji ko “pahal” wali lambi kavita k baad jaanta hoon.Un se phone par kabhi -2 bat ho jaati hai.un ki awaz mano kisi biyavaan se tairti aati hai….lekin is kavita ki oorja, sach kehta hoon ,seh n paya….shak hota hai kya ye vahi devi prasaad hain?
    akhir koi loud kavita kyon nahi achhi ho sakti…Namvar Ji? badi bat to ye k asad ji ko is tone se asehmati nahi hai….”saamaan ki talash” hafte bhar me mere pas pahuch jaayegi,padhna chahhonga, is liye nahi k vivaad me tha balk is liye ki guruvar SP Sehgal ke aadesh hain….bahar haal, thanks a lot for this valuable post,shireesh. ham to Devi ji ki ek lambi kavita PAHAL 90 me padhne ki aas lagaye baithe hain….

  6. ‘कमाल’ की कविता है! ऐसी कविताओं का खूब प्रसार किया जाना चाहिये नही तो इस्लाम (मुसलमान) हमेशा अपने को सभ्यता का दुश्मन ही पायेगा।

    इसमें यह भी जोड़ा जाना चाहिये कि मुसलमान न होते तो जिहाद न होता; फतवा न होता; तलाक न होता; काफिर न होता; आतंकवाद न होता; पाकिस्तान न होता; इरान में शान्तिप्रिय पारसी होते; भारत के सभी मन्दिर न टूटे होते; विश्व की सभ्यता बहुत आगे चली गयी होती; पोंगापन्थ न होता; संकीर्णता न होती; सब दुनिया स्वभावतः सेक्युलर है – वह सेक्युलर ही रहती; “इस्लामी स्टेट” न होते; शरियत का दखल न होता; सारे तरफ शान्ति होती….

  7. मैं अनुनाद सिंह के कहे से कतई असहमत हूं और उनके लहजे पर अपना विरोध दर्ज करता हूं।
    मैं चाहता तो माडरेशन के दौरान इस कमेंट को रिजेक्ट कर देता पर ऐसा करना इस कविता में निहित मानवीय ताक़त के खिलाफ़ जाना होता, इसलिए यह कमेंट यथावत प्रकाशित किया जा रहा है।

  8. आज शाम को बहुत देर तक ‘अकबर’ इलाहाबादी की प्रतिनिधि शायरी पढ़ता रहा . केवल एक शे’र पेश है –

    दिल छोड़कर ज़बान के पहलू पे आ पड़े.
    हम लोग शायरी से बहुत दूर जा पड़े.

  9. sheerish bhai, main mahendra kee tarh yeh nahi kah pa raha hoon ki kisi shani ke kahne ke kay maani. main ise baar-baar padhkar janna chahta hoon ki wo kya hi jo Shani talkh ho gaye.

  10. धीरेश, मुझे लगता है कविता पर राजनीति ग़लत बात है और अच्छी कविता पर तो और भी बुरी बात। इसी संदर्भ में वह बात थी और शानी की प्रतिक्रिया के पीछे जो कारण हैं वो जानना-खोजना मुझे बेमानी लगता है।
    वैसे शानी साहब की एक किताब कल ही श्रीराम सेंटर, दिल्ली से उठाई है।

    शिरीष भाई, देवीप्रसाद जी की कोई किताब मुझे एक दिन के दिल्ली-प्रवास के दौरान नहीं मिल पाई। आप ही कुछ मदद करो भाई।

  11. आपके डपट देने अंदाज़ पर फिदा होकर ये तल्ख़ ज़ुबान वापस आई है और इस कविता के लिए देवी भाई और पोस्ट के लिए अनुनाद के गुस्सैल स्वामी शिरीष जी को बधाई देती है.

  12. सबसे पहले तो इस बेहतरीन कविता के लिए आभार। जहाँ तक मेरी जानकारी है इकबाल के शिकवा-जवाबे शिकवा और एक हद तक फैज के फिलिस्तिन वाली कविता के बाद यह मुसलमानों को केन्द्र में रख कर लिखी गई सर्वश्रेष्ठ कविता है। मुझे फक्र है कि कवि ने रूढ़ छवियों के दौर में इस कविता के माध्यम से मनुष्यता में हमारा विश्वास बढ़ाया है।

    जहाँ तक रही शानी की बात तो यही कहँुगा की आपने उनकी दुखती पकड़ ली है। हिन्दी में व्यक्तिगत रंजिश के आधार पर सैद्धांतिकी गढ़ने का चलन नया नहीं है। वैसे उनके तर्क देखने के बाद ही ठोस राय दी जा सकती है।

    कुछ लोग ऐसे हैं जो महान हैं। उनसे यही कहना चाहुँगा कि दुनिया में दो ही तरह के लोग रह गए हैं। एक सहिष्णु और दूसरे कट्टरपंथी। और इनके बीच कोई धार्मिक या जातीय विभाजन नहीं रह गया है।
    तहलका में भारतीय तालिबान शीर्षक से एक कवर स्टोरी आई है उसे पढ़ लें।
    कुछ लोग को आज भी भ्रम है कि, वैदिक हिंसा हिंसा न भवति !!

    दूसरो ंकी बुराई और अपनी अच्छाई को आंखांे में बसाए दुनिया को निहारते संकीर्ण लोगों के लिए प्रो. मुजीब रिजवी ने एक किताब लिखी है, वर्ल्ड सिविलेजशन आवर कामने हेरिटेज !!
    मन करे तो पढ़ें।

  13. इस कविता का तो मैं मुरीद हूँ. शानी जी के ख़याल में यह कविता क्यों भारतीय मुसलमानों के लिए अपमानजनक थी, अब यह बताने के लिए वह दुनिया में नहीं हैं. शानी के समूचे लेखन (ख़ास तौर पर काला जल) से तो यही जाहिर होता है कि भारतीय मुस्लिम समाज पर उनकी अद्भुत पकड़ थी.

  14. कल ही इस कविता पर एक मित्र से चर्चा हुई और आज बोधि भाई ने बताया कि यह यहां लगी है

    रंगनाथ जी नेपर्याप्त कह दिया है इसपर उनसे सहमति और आपका आभार

  15. शिरीष जी देवी जी की मुसलमान कविता पढ़ी .. .. मुसलमान के इंसान होने का पूरा मनोविज्ञान बताती हुई ये अद्भुत कविता है देवीजी की इस पूर्वाग्रहों से मुक्त कविता को यहाँ देने के लिए आपको न्य्वाद

  16. शिरीष भाई, विरोधी कमेंट्स को भी आने देना आपका लोकतांत्रिक कदम है. मैं इसकी ताईद करता हूं.

  17. शिरीष कुमार मौर्य जी, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय जी की यह कविता बहुत से मुद्दों पर सोच विचार करने को बाध्य करती है.
    आपने इस कविता पर शानी जी की आपत्तियों के बारे में बताया है. यदि शानी जी का मत भी पाठकों तक पहुँच पाता तो बहुत अच्छा होता.
    मुझे भी इस कविता में दिक्कतें लगी हालांकि मैंने भी शानी जी की राय को नहीं पढ़ा है
    यह कविता कही न कही सभ्यता के संघर्ष की थीसिस को पुष्ट करती है. पहले तो यह सिन्धु को पार करने वाले फारस तुर्की समरकंद आदि से आने वाले युद्ध सरदारों को केवल मुसलमान के तौर पर देखती है. और उसके बाद आज के मुसलमानों को उन मुस्लिम आगंतुकों और शाशकों से जोड़ देती है. ऐसा करते हुए कविता से एक विकृत इतिहासबोध पैदा होता है. भारत और पाकिस्तान के मुसलमान लोगों की जड़ें यहाँ केवल २-४ सौ साल पीछे नहीं है. मध्यकाल में आने वाले मुसलमान शासकों से यहाँ के मुसलमान लोगों को मिलाया नहीं जा सकता है. यहाँ के मुसलमान अधिकतर यहाँ मौजूद कामगार वर्गों से मुस्लिम हुए. वे उन शाशकों के कारण मुसलमान नहीं हुए. बल्कि सामाजिक स्तर पर इस्लामी दर्शन के ज्यादा समतावादी होने के कारण इस्लाम के प्रति आकृष्ट हुए. कविता में चार पॉँच सौ साल पहले के शासकों और आज के मुसलमान लोगों को एक ही अस्मिता में विलयित कर दिया गया है. इससे यह बोध उत्पन्न हो रहा है जैसे कोई मुसलमान आदमी सबसे पहले मुसलमान होता है चाहे वह आज का हो या १००० साल पहले का चाहे वह राजा हो या रंक. इस कविता में मुसलमान वैसे नहीं आते जैसे वे प्रेमचंद की कहानियों में आते हैं जिनमें केवल नाम से पता चलता है की पात्र मुसलमान है. यहाँ वे आम जनता से अलग एक किलेबंद समुदाय की तरह हैं जिनके अपनी अलग सभ्यता है अपना अलग इतिहास है अपने अलग साँस्कृतिक पुरुष हैं अपनी अलग इमारते हैं. और इस तरह तार्किक परिणिति के तौर पर देखें तो अलग देश भी होना चाहिए जो उनके पास नहीं है (भारतीय मुसलामानों के पास) कविता ऐसा बताती हुई प्रतीत होती है की इस देश का न होना ही उनकी सबसे बड़ी त्रासदी है. कविता में यह सच विडम्बना की तरह आता है की वे मुसलमान होते हुए भी दजला का नहीं यमुना का पानी पीते है. जैसे ऐसा होना एक अस्वभाविक बात हो
    कुल मिलाकर अस्तित्ववादी शब्दावली का सहारा लें तो पूरी कविता में वे 'अन्य' हैं.
    यह विश्लेषण के स्तर पर आर एस एस के दर्शन से मिलता जुलता है (मैं ऐसा निष्कर्षों के मामले में नहीं कह रहा हूँ) लेकिन इस विश्लेषण का उपयोग मुसलामानों और हिन्दुओं को दो शिविरों में बाँट देने के लिए संघ गिरोह द्वारा विशेषतः राम मंदिर उपद्रव के दौर में सफलतापूर्वक क्या गया है.
    यह कविता संभवतः 1990 में प्रकाशित हुई है ऐसे समय में कविता का यह कहना–

    सावधान
    सिन्धु के दक्सिन में
    सैकडों साल की नागरिकता के बाद
    मिटटी के ढेले नहीं थे

    भ्रामक विश्लेषण से बनाए गए काल्पनिक शिविरबंदी के दुष्प्रचार से बहुसंख्यक लोगों में पैदा हुए डर को और अधिक बढाता है(ख़ास तौर पर १९९० के माहौल में). संघी साम्प्रदायिकता की सबसे बड़ी खूबी यह है की वह खुद आक्रामक होते हुए भी यह प्रोजेक्ट करने में सफल रहता है की देश के बहुसंख्यक आम लोगों को मुसलामानों से भय है. इस झूठे भय का दोहन कर ही साम्प्रदायिक राजनीति चलती है.
    संभवतः कवी का मंतव्य यह सब न रहा हो और उन्होंने बहुत सहानुभूति से यह कविता लिखी हो. लेकिन कविता पढने के बाद मुझे लगा की यह 'हम' और 'वे' के खेमे बनाती है. और शायद इस निष्कर्षों पर पहुँचाना चाहती है की 'हम'को 'उन'के साथ सहानभूति होनी चाहिए क्योंकि उनके ऊपर एक इतिहास का बोझ है. लेकिन मेरी असहमति इन खेमों के निर्माण से है..

  18. आदरणीय,
    मैं आपके ब्लाग से रंगनाथ जी के ब्लाग के जरिये परिचित हुआ हूँ।
    मैं कविता के राजनीतिक पाठ करने और राजनीति के लिये कविता करने खिलाफ हूँ। रचना के एकांगी होने, क्षणिक आवेग होने पर भी उसकी संवेदना महत्वहीन नहीं होती है। लेकिन आजकल लगने लगा है अब कविता के पाठ या कविता से संवेदना का नहीं राजनीति का ही संबध रह गया है। इसीलिये मैं कह सकता हूँ (क्यूँकि मैंने यहाँ टिप्पणियां भी पढ़ी हैं) ऐसी ही मानवीय संवेदना वाली अन्य कविताओं से यहाँ के टिप्पणीकारों को अपच हो सकती है जैसा इस कविता के कारण अनुनाद सिहं को, थोड़ा बहुत मुझको भी, हो रहा है। मेरी इस कविता से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि कवि को यह सुविधा होती है (चाहे उसका मन्तव्य कुछ भी रहा हो) कि कविता या तो अच्छी होती है, या साधारण, या अस्पष्ट, या स्तरहीन। वह बुरी कभी नहीं होती है। मैं जो लिख रहा हूँ इस पर आयी टिप्पणियों को पढ़कर, जिनसे मुझे लगता है कि मुसलमान की मानवता का कोई मोल नहीं है उसका धर्म ही श्रेष्ठ है, और उसका ही एक मात्र अस्तित्व है। कविता से ऐसा भी लगता है जैसे सभ्याता का अनिवार्य नियम केवल मुसमान ही हैं, हिन्दु, बोद्ध, ईसाई, यहूदी, सिख, जैन,… आदि सभ्य नहीं हैं। फिर अनुनाद सिंह के कहे पर आपको क्या ऐतराज है ? आपने उस टिप्पणी को माडरेट नहीं किया लेकिन वह काम आपकी टिप्पणी ने कर दिया है। आप अनुनाद सिंह की टिप्पणी को माडरेट कर क्या इस भ्रम में जीना चाहते हैं आपके ब्लॉग के जरिये ही दुनिया चल रही है। वह भी तो अपनी कविता अपने ब्लाग पर लगा सकते हैं और दुनिया वहाँ से चलने लगे। शानी और अभिषेक मिश्रा ने जो कहा है कि यह कविता मुसलमानों (खास तौर से भारतीय) के खिलाफ जाती है, और उनका नुकसान करती है, वह सही है। यदि धैर्य से सोचें तो।
    बहरहाल मै खुश हूँ यह देख कर कि घोर नास्तिक भी धर्म के पक्ष में बोल रहे हैं। और मेरा मानना है कि धर्म रहेगा तो मानवता रहेगी।

    आप चाहें तो इस टिप्पणी को हटा कर दुनिया पर अपना नियन्त्रण बरकरार रख सकते हैं।

  19. शीरिष भाई, यह कविता फिर पढी. लेकिन आपकी शुरू की टिप्पणी दिमाग पर इतनी छा जाती है कि कुछ समझ नहीं बनता. इस कविता पर या तो आपको अपनी पूरी टिप्पणी हटा लेनी चाहिए या फिर यह बताना चाहिए कि शानी का वाजिब या गैरवाजिब एतराज क्या था. आपने शानी पर शोध का हवाला भे दिया है और उन पत्रिका और अखबारों का भी जिनमें शानी ने इस कविता पर बहस खड़ी की. आपने शानी के इस बारे में गलत होने की बात भी कही है. आप यह कहकर कि आपके पास सारे कागजात सुरक्षित नहीं हैं, कहकर अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते हैं. पूरी बहस न सही, आपको यह बताना ही चाहिए कि शानी का एतराज क्या था, वर्ना यह पोस्ट शानी को ईर्ष्यालु और खलनायक ही पेश करती रहेगी. आपकी नीयत पर भी शक पैदा होता रहेगा.

  20. शिरीष जी

    धीरेश भाई से शब्दशः सहमती है। इस कविता को लेकर विपरीत विचारों वाली टिप्पणियों के आाने के बाद यह बहस कहीं न कहीं शानी के सही गलत होने की ओर घूमती दिख रही है। आपने नवभारत में शानी के लिखे स्तम्भ का जिक्र किया है। अगर वो लेख आ जाए तो इस बहस का ठोस आधार बन सकेगा। आपका आमुख कविता को बहस में तो ले आता है लेकिन इसके पीछे के संपूर्ण आधार को प्रस्तुत किए बिना।

    मेरी स्पष्ट मान्यता है कि किसी ऐतिहासिक या तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों के प्रभाव में लिखी गई कविता या कहानी का मूल्यांकन एक लंबे समय बाद ही करना चाहिए। हांलाकि इस कविता के लिखे हुए करीब बीस साल हो गए फिर भी यह अपने गूदे से छूटी नहीं है। क्योंकि हम अभी भी घोर सांप्रदायिक समाज में जी रहे हैं। सांप्रदायिकता या सांप्रदायिकताविरोधवाद दोनों स्थितियों में कोई बुद्धिजीवी प्रतिक्रियावादी ढंग से राय रखता है। ऐसी रायशुमारी से किसी रचना का समुचित मूल्यांकन करना मुश्किल हो जाता है। सुखद बात यह है कि अनुनाद पर ऐसे पाठक मौजूद हैं जो लगभग हर रचना का पक्ष-प्रतिपक्ष रख देते हैं। कौन गलत है कौन सही है इसका फैसला तो इतिहास करता है। लेकिन तात्कालिक बहस में प्रतिकूल विचारों को जगह मिलना लोकतंत्र के लिए संजीवनी है।

    कुछ लोगो ने प्रतिकूल टिप्पणियों को जगह देने के लिए आपको……..लेकिन मैं समझता हूं कि यह तो सामान्य सी बात है। लोकतंत्र में प्रतिकूल विचारों को जगह देना कोई महानता का काम नहंी हो सकता। हां फासीवादी तंत्र में यह सराहनीय काम है। लोकतंत्र की तो बुनियाद ही यहीं से शुरू होती है।

    साथ ही आपने शानी के संदर्भ में जो कहा है वो हम सभी के लिए ध्यान देने योग्य है। निजी संबंधो के आधार पर रचना का मूल्यांकन करने से बचना चाहिए।

  21. प्रिय धीरेश और रंग !

    काग़ज़ात भले मेरे पास अब नहीं हैं पर वे थे और मेरे शोध में उनके सन्दर्भ दर्ज़ हैं. उम्मीद करता हूँ अगले साल वह किताब रूप में आ जाएगा और तब आप मित्रों की उत्सुकता का हल पेश कर सकूँगा, फिलहाल मेरी बात पर यक़ीन करें. शानी एक समर्पित किंतु जटिल व्यक्ति थे. और यही नहीं हिंदू मानसिकता को गुदगुदाने वाली राही की धर्मनिरपेक्षता के बरअक्स शानी की महानता को मैने अपने शोध में सिद्ध किया है.

    तुम्हारा शिरीष

  22. शशिभूषण

    बहुत गहरे तक प्रभावित करने वाली कविता है.बी.बी.सी. की एक रिपोर्ट याद आ गई.जिन दिनों अमेरिकी फ़ौज अफ़गानिस्तान में हमले कर रही थी.अफ़गानिस्तान से एक बस रवाना हुई.बस बहुत पुरानी और जर्जर थी.बस में क्षमता से ज़्यादा बच्चे,जवान,बूढे मुसलमान थे.संवाददाता का नाम अगर भूल नहीं रहा तो राजेश प्रियदर्शी थे.उन्होने पूछा-आप लोग कहाँ जा रहे हैं?जवाब था अपने लोगों को बचाने.वहाँ अत्याधुनिक हथियारों से अमेरिका हमले कर रहा है आप लोगों के पास वैसे हथियार,सुविधाएँ नहीं कैसे टिक पाएँगे?इस सवाल का जवाब मुझे नही भूलता-हम कमज़ोर हैं पर लड़ तो सकते हैं.हम अपने लोगों को बचाने जा रहे हैं.और वह खटारा बस रवाना हुई.धीरे धीरे डोलती हुई.ठीक उसी समय कोई अमेरिकी लड़ाकू विमान उड़ान भर रहा होगा…मेरे मन में सवाल कौंधता है कहीं मुसलमान कमज़ोर होने की वजह से तो नहीं अपने लोगों के लिए लड़ते हुए मारे जा रहे…

  23. कपिलदेव

    शिरीष जी,
    कई तरह की व्यस्तताओं के कारण इधर मेल नहीं देख पाया था। आज देखा। अच्छा लगा कि आप ने ‘मुसलमान’ कविता पर मेरी राय मागीं है। ब्लाग पर यह प्रसंग अब पुराना पड़ गया है और अब तो आप की जो एक अच्छी सी कविता लगी है उस पर चर्चा का समय है। ‘मुसलमान’ को पहले ही आलोचना में पढ़ चुका हूं। आप ने चूंकि मेरी प्रतिक्रिया चाही है ओैर आप से अपने वैचारिक आदान-प्रदान के अबतक के अनुभवों के आधार पर विश्वास कर सकता हूं कि अब आप हमें कुछ कुछ समझने और हमारे स्वभाव की सीमाओं को स्वीकार करने लगे होंगे। इस कविता पर फिर कभी, मगर इसके साथ प्रकाषित आप की टिप्पणी के कुछ “ाब्दों की ओर आप का घ्यान खीचना चाहूंगा। टिप्पणी के आरम्भिक वाक्यों में आये कुछ “ाब्द इस प्रकार हैं-रमजान के पवित्र महीने में …….। …..पढ़ कर ऐसा लगा कि इस कविता को आप रमजान के पवित्र महीनें में मुसलमान भाइयों की खिदमत में पेष कर रहे हैं-ईद के मुबारक मौके पर ! यदि मेरा सोचना सही है,;मेरी कामना है कि मेरा खयाल गलत हो !द्ध तो समझ पाना मुश्किल है कि आप ऐसा क्यों कर रहे हेंैं घ् इस कविता का रमजान के पवित्र महीने अथवा मुसलमानों से क्या ताल्लुक हैघ् इसमें ऐसा क्या है,जिसकी तरफ आप मुसलमानों का खास तवज्जह चाहते हैंघ् उनके मुसलमान होने के नाते उन्हें यह कविता क्यों पढ़नी चाहिए और यदि कविता में आये कुछ मुसलिम संदर्भो के कारण ही इसे पढ़ना चाहिए तो क्या आप को पता है कि इस तरह से आप अपनी असावधानी के चलते साहित्य की सबसे अंतर्निष्ठ ओैर गम्भीर कला-रचना, यानी कविता के पाठ और अर्थग्रहण की प्रक्रिया में संकीर्ण धार्मिकता अथवा नस्लवादी दृध्टिकोण को एक तत्व की तरह “ाामिल करने का खतरनाक खेल खेलने जा रहे हैंघ् किसी कविता को किसी खास अवसर से जोड़ देने वाला नजरिया किसी भी तरह साहित्यिक दायरे में कैसे स्वीकार्य हो सकता है? हमारी धर्मनिरपेक्षता अगर इतनी सस्ती सतही और वुद्धि-विरोधी हो जाएगी तो वह दिन दूर नहीं कि हम धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करने वाले नेताओं के साथ किसी मुसलमान भाई के यहां अफतार की दावत में सर पर रूमाल बांध कर खाना खाते अथवा नवरात्र में किसी हिन्दू भाई के यहां माथ्ेा पर लाल रोली का चंदन लगा कर ब्रत का फलाहार करते नजर आएंगे और मान लेंगे कि ऐसे अनुष्ठानिक समारोहों में “ाामिल होना ही धर्मनिरपेक्ष होना है। आप के इस ‘ाब्द-व्यवहार से मैं सोचने के लिए विवष हूं कि क्या सचमुच साहित्य में धर्मनिरपेक्षता के अर्थ और अभिप्राय का इतना सरलीकरण हो गया हैं?
    सम्भव है कि मेरी बात के जवाब मे आप कुछ तर्क करना चाहेगंे। जरूर करें। लेकिन मेरा अनुरोध है कि अपनी इस भूल को जितनी जल्दी स्वीकार कर लें उतना ही अच्छा। आप धर्मनिरपेक्षता के जिस धोखे में फंसे हुए हैं, कम से कम हमारे हिन्दी साहित्य का विवेक ऐसी सतही धर्मनिरपेक्षताओं से बहुत आगे और अधिक गहराई में उतर कर सेाच सकने में समर्थ हो चुका है।
    सानन्द होंगे।
    कपिलदेव

  24. देवी प्रसाद मिश्र जी बडे रचनाकार हैं ………..यह कविता हमारी संकीर्ण मानसिकता को उजागर करती है ….बधाई .साथ ही……..
    ''तद्भव ''–२० में देवी जी 'निजामुद्दीन ' कविता के लिय भी हार्दिक बधाई .

  25. शिरीष जी
    आपने अथक मेहनत से इस कविता की पुरानी हलचल को हमारे सामने रखा। अब छोडिए उन बहनों को और इस कविता के सत्य को जानने समझने की कोशिश की जाए।

    रविरंजन

  26. लगभग तीन दशक पूर्व लिखी कविता "मुसलमान" इस धर्म विशेष के लोगों के जानने समझने की चर्चित रचना है. यह कविता आज के इस भयावह दौर में बेहद प्रासंगिक भी है.

  27. मनुस्मृति का शासन कौन लाना चाहता है

    मुसलमान ना होते तो विज्ञान इस शिखर में ना होता

  28. Musalman nhi the

    Arya the, jo unse bhi pehle aye the, thode se ate hai intruders, baaki yehi k log adopt kar lete hai religion…..

    This is a story of every sect which has migrated in those times and who were warriors" khastriya"

    Jat, rajpoot, marata, yadav and even Brahmins who took up swords…..

  29. Like many other #Seculars, by linking the medieval invader with home grown Muslim, Devi Prasad Mishra has done a great disservice to present day Indian Muslim. So long as present day Indian Muslim sees himself/herself as a descendant of the Mughals, Turks and Persians, they will remain the bitter foe, the Other for the Hindu. Onus of achieving balance lies equally on both the Muslim and the Hindu

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