अनुनाद

एक स्यापा करती हुई जगह – जॉन बर्जर

आज महमूद दरवेश की पहली बरसी पर उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत है प्रसिद्ध ब्रिटिश कला समीक्षक-लेखक जॉन बर्जर का यह आलेख. मूल अंग्रेज़ी आलेख अमेरिकी साहित्यिक पत्रिका ‘दि थ्रीपेनी रिव्यू‘ के ग्रीष्म अंक में प्रकाशित हुआ था.











एक स्यापा करती हुई जगह

जिसे अभी-अभी तक भावी फिलिस्तीनी राज्य समझा जाता था वहाँ अब दुनिया की सबसे बड़ी जेल (गाज़ा) है और दुनिया का सबसे बड़ा मुसाफ़िरखाना (पश्चिमी तट) है. वहाँ से लौटने के कुछ दिनों बाद मैंने एक ख़्वाब देखा.
पथरीले रेगिस्तान में कमर तक उघाड़े बदन, मैं अकेला खड़ा था. आखिर किन्हीं दूसरे हाथों ने धूल-मिट्टी उठाकर मेरे सीने पर उछाल दी. यह आक्रामक नहीं बल्कि मुरव्वत भरा काम था. मुझे छूने से पहले ही मिट्टी या कंकड़ उन चीथड़ों में बदल गए जो शायद सूती थे. और वे चीथड़े मेरे बदन के इर्द-गिर्द लिपट गए. उसके बाद ये चीथड़े एक बार फिर बदले और शब्द, वाक्य बन गए. ऐसे शब्द और वाक्य जो मेरे द्वारा नहीं बल्कि जगह द्वारा लिखे गए थे.
उस ख़्वाब को याद करते हुए ईजाद किया हुआ शब्द ‘थलबुहारा’ मेरे ज़हन में आया. बार बार. थलबुहारा उस जगह या उन जगहों को कहा जाता है जहाँ सब कुछ, भौतिक और अभौतिक दोनों, झाड़ दिया गया हो, हड़प लिया गया हो, मिटा दिया गया हो, निचोड़ लिया गया हो, उड़ा दिया गया हो. स्पृश्य धरती के सिवाय सब कुछ.
रामल्ला के पश्चिम की ओर के बाहरी इलाके में अल रब्वे नाम की एक छोटी सी पहाड़ी है; यह पहाड़ी टोकियो स्ट्रीट के मुहाने पर स्थित है. पहाड़ी के ऊपरी हिस्से में कवि महमूद दरवेश दफ़न हैं. यह कोई कब्रस्तान नहीं है.
सड़क शहर के कल्चरल सेण्टर की ओर जाती है जो पहाड़ी की तलहटी में बना है. सड़क का नाम टोकियो पर रखा गया है क्योंकि यह सेण्टर जापान की वित्तीय मदद से बना है.
इसी सेण्टर में दरवेश ने आखिरी बार अपनी कवितायें पढ़ी थीं. यद्यपि उस समय किसी ने कल्पना नहीं की थी कि यह आखिरी मौका होगा. वीरानी के लम्हों में ‘आखिरी’ लफ्ज़ के क्या मानी होते हैं?
हम लोग कब्र पर गए. वहाँ एक शिलालेख लगा है. खोदी गयी ज़मीन अभी तक उघाड़ी है, स्यापा करने वालों ने कब्र पर कच्चे गेहूं की कुछ छोटी बालियाँ छोड़ी हुई हैं- जैसा उन्होंने अपनी किसी कविता में कहा था. वहां कुछ लाल फूल, कागज़ के टुकड़े और तस्वीरें भी हैं.
वे गलीली में दफनाया जाना चाहते थे, जहाँ वे पैदा हुए थे और उनकी माँ अब भी वहीं रहती हैं. लेकिन इस्राइलियों ने रोक लगा दी.
जनाज़े में अल रब्वे पर लाखों लोग जमा हुए थे. छियानबे वर्षीय उनकी माँ ने उन लोगों को संबोधित किया. “वह आप सभी का बेटा था”, वे बोलीं.
अभी-अभी मरे या मारे गए प्रियजनों के बारे में बोलते वक़्त हम वाकई किस रंगमहल में बोल रहे होते हैं? हमारे शब्द हमें ऐसे मौजूदा लम्हे में गूंजते हुए से लगते हैं जो उस लम्हे से भी नया है जिसमें हम आम तौर पर जीते हैं. प्रणय के, आसन्न संकट के, बदले न जा सकने वाले फैसले के, टैंगो नृत्य के लम्हों की मानिंद. ऐसा नहीं है कि विलाप के हमारे शब्द अनश्वरता के रंगमहल में गूंजते हैं, मगर संभव है कि वे उस रंगमहल की छोटी सी दीर्घा में हों.
अब परित्यक्त उस पहाड़ी पर मैंने दरवेश की आवाज़ को याद करने की कोशिश की. वे मधुपालक सी पुरसुकून आवाज़ के मालिक थे.

पत्थर का बक्सा जिसमें
लोटपोट होते हैं सूखी मिट्टी में जीवित और मृत
छत्ते में क़ैद मधुमक्खियों की तरह
और हर बार जब कसता है घेरा
मधुमक्खियाँ चली जाती हैं फूलों के अनशन पर
और समंदर से आपात द्वार की दिशा बताने को कहती हैं

उनकी आवाज़ को याद करते हुए मुझे उस स्पृश्य भूमि पर, उस हरी घास पर बैठने की ज़रूरत महसूस हुई. मैं बैठ गया.
अरबी में अल रब्वे का मतलब होता है ‘हरी घास वाली पहाड़ी’. उनकी आवाज़ वहीं लौट आई है जहाँ से निकली थी. और कुछ भी नहीं. चालीस लाख लोगों का साझा ‘कुछ नहीं’.
दूसरी पहाड़ी, जो पांच सौ मीटर दूर होगी, एक घूरा है. ऊपर कौए चक्कर काट रहे हैं. कुछ बच्चे कूड़ा बीन रहे हैं.
उनकी ताजा खुदी कब्र के किनारे जब मैं घास पर बैठा तो कुछ अप्रत्याशित सा हुआ. उसका वर्णन करने के लिए मुझे दूसरा वाकया बयान करना पड़ेगा.
यह कुछ दिनों पहले की बात है. हम फ्रेंच आल्प्स के स्थानीय कस्बे क्लूज़ेस की राह पर थे, मेरा बेटा ईव गाड़ी चला रहा था. कुछ समय से बर्फ़ पड़ रही थी. पहाडियां, खेत और पेड़ सफ़ेद हो चुके थे. पहली बर्फ़बारी की सफेदी से अक्सर पंछियों का दिशा और दूरी का बोध गड़बड़ हो जाता है और वे भ्रमित होने लगते हैं.
एकाएक एक पंछी विंडस्क्रीन से टकराया. ईव ने गाड़ी के शीशे में उस पंछी को सड़क पर गिरते हुए देखा. उसने ब्रेक लगाकर गाड़ी पीछे ली. वह एक छोटा रॉबिन पंछी था. वह सुन्न था मगर जीवित; आँखें झपक रहा था. मैंने उसे बर्फ से उठाया. मेरे हाथों में वह गर्म था, बहुत गर्म- पंछियों के रक्त का तापमान हम मनुष्यों से ज्यादा होता है- हम आगे बढ़े.
मैं बीच बीच में उसे जांच लेता. आधे घंटे के अन्दर वह निष्प्राण हो गया. गाड़ी की पीछे की सीट पर रखने के लिए मैंने उसे उठाया. जिस बात से मुझे अचम्भा हुआ वह था उसका भार. जब मैंने उसे बर्फ से उठाया था तब के मुकाबले अब उसका भार कम था. मानो जीवित रहने पर उसकी ऊर्जा, जिजीविषा उसके वज़न में शामिल थी. अब वह लगभग भारहीन था.
अल रब्वे पहाड़ी की घास पर बैठने के बाद कुछ ऐसा ही हुआ. महमूद की मौत ने अपना वज़न खो दिया था. अब जो बचा था वह उनके शब्द थे.
महीने बीत गए हैं; हर एक महीना अनिष्ट आशंकाओं और खामोशी से भरा हुआ बीता. और अब इस डेल्टा में आपदाएं एक साथ आ रही हैं. इस डेल्टा का कोई नाम नहीं है, नाम तो भूगोलवेत्ताओं द्वारा ही दिया जाएगा जो बाद में आयेंगे, बहुत बाद में. आज करने के लिए कुछ नहीं है सिवाय इसके कि इस अनाम डेल्टा के कड़वे पानियों पर चलने की कोशिश की जाए.
दुनिया की सबसे बड़ी जेल गाज़ा को बूचड़खाने में बदला जा रहा है. ‘पट्टी’ शब्द (गाज़ा पट्टी से) को खून से भिगोया जा रहा है, उसी तरह जैसे पैंसठ सालों पहले जैसा ‘घेटो’ शब्द के साथ किया गया था.
पंद्रह लाख की नागरी आबादी के खिलाफ इस्राइली सुरक्षा बलों द्वारा रात दिन बम, हथगोले, जीबीयू39 रेडियोधर्मी हथियार, और मशीनगनों से गोलियां बरसाई जा रही हैं. इस्राइल ने अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों को पट्टी में प्रवेश करने से रोक रखा है. उन पत्रकारों की हर रिपोर्ट में मृतकों और घायलों की अनुमानित संख्या बढ़ती जाती है. फिर भी सबसे महत्त्वपूर्ण आँकड़ा यह है कि हर एक इस्राइली मौत के मुकाबले सौ फिलिस्तीनी मौतें हैं. एक इस्राइली ज़िन्दगी सौ फिलिस्तीनी जिंदगियों के बराबर है. इस धारणा के आशय इस्राइली प्रवक्ताओं द्वारा बार बार दुहराए जाते हैं जिस से कि वे आशय स्वीकृत और आम हो जाएँ. इस नरसंहार के तुंरत बाद महामारी आएगी, रहने के ज़्यादातर ठिकानों में न बिजली है न पानी. अस्पतालों में डाक्टरों, दवाइयों, जनरेटरों का अभाव है. नरसंहार के बाद नाकेबंदियाँ और घेरेबंदियाँ होती हैं.
दुनिया भर में विरोध की आवाजें बढ़ती जाती हैं. मगर अमीरों की सरकारें अपने वैश्विक मीडिया और आण्विक हथियारों के जखीरे की मगरूरियत के साथ, इस्राइल को भरोसा दिलाती हैं कि उसके सुरक्षा बलों की करतूतों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा.
“एक स्यापा करती हुई जगह हमारी नींद में दाखिल होती है,” कुर्द कवि बेजन मतुर ने लिखा था, ” एक स्यापा करती हुई जगह हमारी नींद में दाखिल होती है और कभी रुखसत नहीं होती.”
थलबुहारी ज़मीन के अलावा कुछ नहीं.
कुछ महीनों पहले की बात है. रामल्ला में एक परित्यक्त अंडरग्राउंड पार्किंग की जगह में मैं वापिस आया हूँ. इस जगह पर अब फिलिस्तीनी कलाकारों के छोटे से ग्रुप ने कब्ज़ा जमाकर इसे अपना कार्य-स्थल बना लिया है. उसी ग्रुप में एक नक्काश युवती है जिसका नाम है रान्दा मदा. उसी के द्वारा कल्पित और तैयार किये गए एक इंस्टालेशन को मैं देख रहा हूँ जिसका शीर्षक है पपेट थिएटर.
इस इंस्टालेशन में दीवार की तरह सीधे खड़ा तीन मीटर गुना दो मीटर आकार का एक बा-रिलीफ़# है. उसके सामने फर्श पर पूर्णतः तराशी गई तीन आकृतियाँ हैं.
कन्धों, चेहरों और हाथों का बा-रिलीफ़ तारों, पॉलीएस्टर , फाइबर-ग्लास और मिटटी के आर्मेचर पर बनाया गया है. उसका बाहरी हिस्सा रंग दिया गया है: गहरे हरे, कत्थई, लाल रंगों से. इस रिलीफ़ की गहराई लगभग उतनी ही है जितनी नवजागरण दौर के इतालवी कलाकार लोरेंजो गिबेर्ती द्वारा फ्लोरेंस, इटली के गिरजे के लिए बनाये गए कांस्य द्वारों की. अन्य विजुअल इफेक्ट्स जैसे आकृतियों को उनकी वास्तविक ऊँचाई से कम दर्शाना और दृश्य की ऐंठन लगभग वैसी ही दक्षता के साथ प्रयोग में लाये गए हैं (मैं कभी अंदाज़ा नहीं लगा पाता कि कलाकार इतनी कम उम्र का है. उस लड़की की उम्र सिर्फ उन्तीस साल है). मंच से देखे जाने पर थिएटर के दर्शक जिस बाड़ की तरह प्रतीत होते हैं, बा-रिलीफ़ की दीवार उसी बाड़ की तरह है.
मंच की फर्श पर सामने की ओर आदमकद आकृतियाँ हैं, दो स्त्रियों की और एक पुरुष की. ये आकृतियाँ भी उसी मटेरिअल से बनाई गयीं हैं, सिर्फ थोड़े धुंधले रंगों में.
एक आकृति इतने अंतर पर है कि दर्शक उसे छू सकें, दूसरी दो मीटर दूर और तीसरी इस से लगभग दुगुने अंतर पर. उन्होंने रोज़मर्रा के कपड़े पहन रखे हैं, जैसे आज सुबह जो उन्होंने पहनने के लिए उठा लिए हों.
तीन डंडियाँ छत से आड़े लटक रही हैं, इन डंडियों से लटकती डोरियों से उन आकृतियों के शरीर जुड़े हैं. वे कठपुतलियाँ हैं; वे डंडियाँ अनुपस्थित और अदृश्य कलाकारों द्वारा उन्हें नियंत्रित किये जाने के लिए हैं.
बा-रिलीफ़ की अनेकों आकृतियाँ वह देख रही हैं जो उनकी आँखों के सामने है और अपने हाथ मरोड़ रही हैं. उनके हाथ मुर्गियों के झुंड की तरह हैं. वे बेबस हैं. वे अपने हाथ मरोड़ रही हैं क्योंकि वे दखल नहीं दे सकतीं. वे बा-रिलीफ़ हैं, त्रिआयामी नहीं, इसलिए ठोस वास्तविक दुनिया में प्रवेश नहीं कर सकतीं, दखल नहीं दे सकतीं. वे मौन का प्रतिनिधित्व करती हैं.
अदृश्य कलाकारों की डोरियों से जुड़ीं तीन ठोस, धड़कती आकृतियाँ ज़मीन पर गिराई जा रही हैं. पहले सर गिरते हैं, अब पैर हवा में हैं. वे गिराई जा रही हैं बार बार- जब तक उनके सर फट न जाएँ. उनके हाथ, धड़, चेहरे वेदना से ऐंठे हुए हैं. ऐसी वेदना जो कभी ख़त्म नहीं होती. उस वेदना की ऐंठन आप उनके पैरों में देखते हैं. बार बार.
बा-रिलीफ़ के दुर्बल दर्शकों और ज़मीन पर पसरे हुए आहतों के बीच मैं चल सकता हूँ. पर मैं ऐसा नहीं करता. इस कलाकृति में वह सामर्थ्य है जो मैंने किसी और में नहीं देखा. इस कलाकृति ने उस ज़मीन को जीत लिया है जिस पर वह खड़ी है. भौंचक दर्शकों और तड़पते आहतों के बीच के ख़ूनी मैदान को उसने पाक बना दिया है. उसने इस पार्किंग के फर्श को कुछ कुछ थलबुहारे जैसा बना दिया है.
इस कलाकृति ने जैसे गाज़ा का भविष्य बता दिया था.
फिलिस्तीनी प्राधिकरण के फैसलों के बाद अल रब्वे पहाड़ी पर स्थित महमूद दरवेश की कब्र के चारों ओर अब बाड़ लगा दी गयी है और उसके ऊपर कांच का पिरामिड बना दिया गया है. उनकी बगल में पालथी मारकर बैठना अब मुमकिन नहीं. हालाँकि उनके शब्द अब भी हमारे कानों में सुनाई देते हैं और हम उन्हें दुहरा सकते हैं और दुहराते रह सकते हैं.

मुझे ज्वालामुखियों के भूगोल पर काम करना है
वीरानी से बर्बादी तलक
लोट के वक़्त से हिरोशिमा के वक़्त तलक
जैसे मैं जिया ही नहीं अब तलक
जिया नहीं उस हवस के साथ जिसे अब तक न जाना
शायद वर्तमान बहुत दूर चला गया है
और बीता हुआ कल आ गया है करीब
तो इतिहास की परिधि पर चलने के लिए
और बार बार लौट कर आने वाले वक़्त से बचने के लिए
मैं वर्तमान का हाथ पकड़ता हूँ
मेरा आने वाला कल कैसे बचाया जायेगा
उसकी जंगली बकरियों के गड़बड़झाले में?
समय के तीव्रतम वेग से
या सहरा के कारवां जैसी मेरी सुस्ती से?
मुझे अपने आखिरी वक़्त तक काम करना है
जैसे मैं आने वाला कल देखूँगा ही नहीं
और मुझे काम करना है आज के लिए जो अभी यहाँ है ही नहीं
इसलिए मैं सुनता हूँ
हौले हौले
अपने दिल की चींटों जैसी चाल को

# नक्काशी की एक पद्धति जिसमें आकृतियाँ और अन्य डिजाइनें समतल पृष्ठभूमि पर ज़रा सी उभरी हुई होती हैं.

0 thoughts on “एक स्यापा करती हुई जगह – जॉन बर्जर”

  1. भारत भाई नार्थ कैरोलाइना का स्वागत है अनुनाद पर. मैनहटन से वहाँ तक की यात्रा अच्छी रही होगी और इसका कुछ रचनात्मक सुफल भी आपको ज़रूर मिलेगा. अनुनाद को आपकी ऐसी ही पोस्ट्स की दरक़ार है.

  2. bahut marmsparsi gadya h…

    aapne jo bhi post lagayi hai wo adbhut aur sarokar wali rhi h…

    is post comment ke sath hi hum mahmud darwesh ke pratirodh aur pida me apna svar milate h…

  3. शमशेर जी वाली पोस्ट पर आ रही अवान्तर टिप्पणियों के कारण पहले दहलीज़-6 की अनदेखी हुई और अब इसी कारण भारत भाई की इस अद्भुत पोस्ट पर लोगों का ध्यान नहीं है. जो हुआ उसे भूल जाइए दोस्तो और अब नई पोस्ट पर आइए, ये इस ब्लॉग मॉडरेटर की विनम्र प्रार्थना है.

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