आर के नारायन मर गए
आज की रात, उदास मन अपनी बेंत की कुर्सी पर बैठ
‘एक दुर्लभ आत्मा’ की बात कर रहे हैं
अचानक मुझमें जगती है इच्छा
अपने ही ‘दुर्लभ आत्मा’ की करूं चीड़ फाड़
शुरू से अंत तक
पहले मैं बता दूं कि मेरी माँ, नारायन की माँ से कहीं ज्यादा
‘खांटी’ और ‘मुंहफट’ है
मेरी माँ रिटायर्ड, थोथी, मधुमेह से पीड़ित, सरदर्द और
मोतियाबिंद से ग्रस्तहै यानि कि संक्षेप में कहें तो
वो चिड़चिड़ी बुढिया है
मुझे वह समय भी याद है कि जब वह चिड़चिड़ी
युवती थी दुपहरिए की नींद के समय तो
पूरी बाघिन ‘साले चूतिए’, वो
गुर्राती, ‘आराम भी नहीं करने दोगे
साले शैतान के बेटों, इधर आओ साले जानवर के बेटे पकड़ में
आए तो टांगें तोड़ दूंगी। मुंह नोच लूंगी …चीलड़
की औलाद साले जनम देने वाली के ही देह का मांस खाते हो
अब अगर हल्ला किया तो ऐसे पीटूंगी कि
कुत्ते कि तरह चिल्लाओगे साले वाहियात बेवकूफ
अगर बढ़िया सपना नहीं देखूंगी, तो
दांव के लिए नम्बर कैसे पाऊंगी? कैसे खिलाउंगी तुम्हे साले सस्ती नस्ल के बेटों?
और ये अग्नि बान उड़ते आएंगे
मेज, चिमटे और कांसे के
धुकनी के साथ, और हम जान बचा कर भागते और वह
बेंत और जलावन उठाए हमारा पीछा करती,
बाल लहराते, आँखें अगियाते
और जीभ अगिया बेताल।
और हम क्योंकि केवल बच्चे थे, हमने
कुछ नहीं सीखा केवल उसके गैरपरम्परागत हथियारों
से बचने में पारंगत हो गए
मुझे याद है, क्योंकि बेटी नहीं थी उसकी, वो मुझसे ही
धुलबाती थी अपने खून सने चीथड़े मना
करने का तो सवाल ही नहीं। इसीलिए मैं चीथड़ों को
लकड़ी से उठा कर, एक पुराने लोहे की बाल्टी में तब तक
गूंथता जब तक कि पानी साफ ना हो जाए लेकिन समझ लीजिए यह सब
उसकी आंखों से दूर क्योंकि अगर उसने यह देख लिया होता
कि मैं अपने हाथ इस्तेमाल नहीं कर रहा तो ये प्राणघातक मसला था
उन दिनों चेरा में हमें संडास के बारे में कुछ पता
नहीं था हमारे घर में ना तो सेप्टिक टैंक था ना ही
लैट्रिन हम अपना काम अपने पावन वन में
कर आते थे लेकिन कभी कभी मेरी माँ कूड़े के टिन में ही
फारिग हो लेती थी। तब यह मेरी जिम्मेदारी थी कि पावन वन तक माल
मैं ले जाऊँ मना तो मैं कर नहीं सकता था इसीलिए हरदम मैं उस पर
छिड़कता राख, उस के ऊपर सुपारी के छिलके और मेरी कोशिश रहती
कि बच जाऊँ दोस्तों और जिज्ञासू पड़ोसियों से जिन्होंने
पुष्पक फिल्म में कमल हसन को देखा है वे मेरी रणनीति समझ सकतें हैं
मैं हजारों चीजें गिना सकता हूँ यह दिखाने के लिए कि मेरी माँ कितनी चिड़चिड़ी और दुर्लभ है मैं उसके बारे में कुछ भी अच्छा बताने से इंकार करता हूँ यह बताने से कि उसने कितना कष्ट झेला जब मेरे देहाती पिता जिन्दा थे; या उसका कष्ट जब वो मरे; या अपने दो बेटो और अपनी बहन के दूध पीते बच्चे को किन कष्टों से उसने बड़ा किया मैं केवल एक बात मानने के लिए तैयार हूँ:
अगर उसने दुबारा व्याहा होता और वह इतनी चिड़चिड़ी ना होती जो कि वो है, मैं शायद आज सामने खड़ा यह कविता पढ़ता नजर नहीं आता
***
पीड़ा की चरम अभिव्यक्ति ……..अद्भुत .
अगर मेरी यादाश्त सही है तो यह कविता तीन साल पहले कृत्या पर पढ़ी थी.
मां के लिए इस से पवित्र कविता लिख पाना कठिन है. क्यों कि यह वाली मां इंसान लग रही है, त्याग, बलिदान, करुणा, वगैरा -वगैरा की कथित मूर्ति ( देवी ) नहीं. कवि, अनुवादक, चयनकर्त्ता, प्रस्तोता …. सब को बधाई.
shayd yah kavita bharat prasad ki patrika me aayii thii.
ऐसी कविता आज तक नहीं पढ़ी… यह घृणित प्यार जैसा लगा.. इसके साथ जीना और किसी कोने में भावः रखना दोनों होता है…
यह वह कविता है जो हमारे समय को लिख रही है . या शायद हर समय को. यानि समय जिसे हर समय खोजता है. कविता के अनुवाद के उन दुर्लभ उदाहरणों में है यह जिन्हें १०० में १०० नंबर मिलने चाहिए. तरुण भारतीय के और अनुवाद पढ़ना चाहेंगे.
बधाई. बहुत ही सुंदर और मर्मस्पर्शी कविता है यह. -प्रदीप जिलवाने, खरगोन म.प्र.
दिनों बाद ऐसी कविता पढ़ी है. ठीक ऐसी तो शायद बिलकुल नहीं पढ़ी.
अजेय जी की ही बात करूँगा,इसमें मां इंसान जैसी लग रही है.देवत्व के हर आरोप से मुक्त.
माँ के लिये अपवित्र पंक्तियाँ कविता के अंत मे जिस तरह पवित्र पंक्तियो मे परिवर्तित होती है यह दुर्लभ है ।
sachmuch sunder!
kavitaa utkrisht hone ke saath is baat kee tasdeeq karti hai ki sachchi kavita maanveey peedaa se janamti hai aur agar peedaa na ho, to kavi swayam kahta hai ki use kavitaa kee duniyaa mein aane kee zaroorat hi kya thee ?
—–pankaj chaturvedi
kanpur
दोस्तो कविता को पढ्ने के बाद अगर मै यह कहूँ कि खासी समाज एक मातृमूलक समाज है तो क्या कविता का स्वाद बद्ल जाएगा क्या?