दिल्ली
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
का दर दिल्ली कब करइ अन्नोर
सब कहइ, चोर चोर
तब कहां घुसुरबे बताव भाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
दिल्ली हमइ बरबाद केहेसि
दिल्ली हमइ का खाक देहेसि
दिल्ली हमइ का चुसेसि नांहि
दिल्ली हमइ का राज देहेसि
दिल्ली हमइ देहेसि पगलाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
दिल्ली बहुत चमर-चतुर
दिल्ली बहुत चिक्कन
बहुर खुर-दुर,
दिल्ली हमइ कहइ तू…..तू…..आ
दिल्ली हमइ कहइ दुर……दुर
दिल्ली हमइ लपेटेसि भाइ
खर कहइ, संगति नसाइ
अब केउ दिल्ली न जाइ
दिल्ली जहां बनत नंहि देर
दिल्ली कहइ बहुत हेर-फेर
दिल्ली गेंहू मटर कइ देइ
दिल्ली धुआं देइ, दिल लेइ
दिल्ली चलइ हमेसा धाइ
दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली
बहुत नमकीन बहुत रसीली
दिल्ली दिन में लूटई
राति में खाई।
दिल्ली बाप ददा के खायेसि
दिल्ली थोड़ हँसायेसि
ढेर रोआयेसि
दिल्ली ग जे लौटा नांहि।
खर कहई संगति नसाई
अब केउ दिल्ली न जाई।
***
रचनावर्ष – १९८७ तथा प्रथम प्रकाशन – १९८८/ आलोचना
बहुत अच्छी बात है ऐसी खरी खोटी और खांटी कविता होनी चाहिए… कम से कम अनुनाद पर तो जरूर
दिल्ली बहुत चिक्कन…
अब केऊ दिल्ली ना जाई..
Waah!
दिलचस्प …हमने तो भगवत साहब की एक लम्बी सी कविता पढ़ी थी दिल्ली पे …..पर ये ज्यादा जंची !
भाई शिरीष
कविता का आखिरी हिस्सा एकदम से गलत और अधूरा है, ठीक कर दें। अंत शायद कुछ ऐसे है-
दिल्ली दिल्ली दिल्ली दिल्ली
बहुत नमकीन बहुत रसीली
दिल्ली दिन में लूटई
राति में खाई।
दिल्ली बाप ददा के खायेसि
दिल्ली थोड़ हँसायेसि
ढेर रोआयेसि
दिल्ली ग जे लौटा नाहिं।
खर कहई संगति नसाई
अब केउ दिल्ली न जाई।
भाई एक बार मिलान करके ठीक कर दें।
आपका
बोधिसत्व
बोधि भाई कविता का छूटा हिस्सा जोड़ दिया है। ध्यान दिलाने का शुक्रिया। भूल- गलती के लिए खेद है।
भाषा का प्रयोग सुन्दर है ………कटाक्ष भी .
बहुत बढ़िया-रोचक रहा पढ़ना.
बोधिजी की कविता बांचकर आनन्दित हुये।
wah!Bodhi bhai ab hamnara kaam kar dijiye varna main ise 'personal' le loonga. Wonderful!
बोधिसत्व जी की बेमिसाल कविता पढ़वाने के लिये आभार..यह दर्द चाहे दिल्ली का डसा बिहारी हो, अयोध्या के पागलदास, या भदोही का बांग्लादेशी सबका एक है..और यह इस मेट्रोयुगीन विकासवाद की अंधी रोडरोलर दौड़ मे एक छोटे/आम आदमी का दफ़्न होते जाना…पिसते जाना..कच्चे माल की तरह..कहीं पर विष्णु खरे जी ने भी इसी आदमी की बात की है साबरमती एक्स्प्रेस मे शायद.
आभार
बहुत ही तीखी समकालीन व्यंग्य रचना !
दिल्ली इतनी बेदिल क्यों हो गई है ! ये
सवाल अक्सर साहित्यकारों को मथता है !
its a great poem!!!!!!
yehi sacchai hai dilli ki…..go to dilli and lose your soul either to decievers or u also becum 1 of them!!
बोधिसत्त्व की कविता में आम आदमी के मन में दिल्ली के प्रति पैठे भय का बहुत संवेदनपूर्ण चित्रण है.. दिल्ली के चमक में जो धोखा है उसके अनुभव से गुजरने की अनुभूत पीडा सहज ही व्यक्त है . दिल्ली गेहूं मटर कई देई ..बहुत संवेदनशील कवि ही ऐसी रचना दे सकता है . बधाई
दिल्ली क हम चक्करै न पाले भैया इहींंखातिर !मुला कविता उम्दा बा !
हम तो दिल्ली को बोधि भाई की आँख से ही देखते हैं ।
bodhi bhai ne `dilli ki khilli` jis deshaj andaj mai udaai hai, bemishal hai. iska hindi anuvaad bhi unse karne ko kahen.anuvaad mai bhi is kavita ki rangat anoothi hogi. shirish apko badhai aur bodhi ko bhi bhi.
hari mridul.
इसे उस हिन्दी में कहें, जो मैं ने किताबों से सीखी है. ये वाली समझ मे नही आती.
SHIRIISH ji SHUKRIYA IS KAVITA KO PADHAVAANE KE LIYE.
BODHI BHAI AB MADHYANTAR ME BOMBAY (ya MUMBAI) par Kuch ho jaaye!!!
आज इसे हिंदी में कर देता हूँ। दीपावाली में उलझा हूँ