अनुनाद

आओ,पर्चे बांटें – लाल्टू की एक कविता

आओ, पर्चे बांटें
आओ, पर्चे बांटें
उन कविताओं के
जिन्हें जाने कब से हमने नहीं लिखा
उन सभी ख़तरनाक कविताओं के
पर्चे बांटें
जिनमें हैं सभी प्रतिबंधित शब्द
हैं जिनमें कोलाहल
है प्यार
(
संकलनडायरी में तेईस अक्तूबरसे)

0 thoughts on “आओ,पर्चे बांटें – लाल्टू की एक कविता”

  1. बहुत दिनो बाद पढ़ी लाल्टू जी की कविता । ये भी उन कवियों मे से है जिनका अभी सही मूल्यांकन होना शेष है । आभार ।

  2. ''जिन्हें न जाने कब से हमने नही लिखा'' ………..जो अब तक पढ़ा नही गया उसे ही तो पढना है ……रुका है बहुत कुछ ,इसी इंतजार में .छोटी सी कविता बहुत बडे कैनवास के साथ आई है …….आभार .

  3. भारत भाई बहुत अच्छी कविता लगायी आपने. शरद कोकास जी ने सही कहा है कि लाल्टू का मूल्यांकन होना अभी शेष है – मेरा प्रस्ताव है कि वे या कोई और मित्र इस दिशा में पहल करें और अपना लेख अनुनाद को अवश्य भेजें. मैं ख़ुद भी कुछ लिख रहा हूँ.

  4. sundar!
    इस कविता से प्रेरित हो कर मैं ने " कविताओं के बारे कविताएं " लिखी थी.
    और ऐसे पर्चे बाक़ायदा बँटते थे.
    4/3 , एम सी एम हॉल, पी यू 14 सेक्टर ….
    सहगल जी के पास ऐसा ही एक पर्चा देखा था नाम याद नही, लेकिन उस मे लाल्टू, रुस्तम और सहगल की सुन्दर कविताएं थीं.
    वह पर्चा मेरे लिए पवित्र था. आज भी है, स्मृतियों में …. ओ चण्डीगढ़ !

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