अनुनाद

मेरे समय में रोना

एक बच्चा सड़क पर रोता-रोता जाता था
पीछे मुड़कर न देखता हुआ

उसकी माँ पहनावे से ग़रीब
उसके थोड़ा पीछे-पीछे आती थी
न बच्चे को रोकती थी
न ख़ुद रुकती थी

वो क्यों रोता था कोई नहीं जानता
वह क्यों उसे बिना चुप कराए
बिना ढाढ़स बँधाए उसके पीछे जाती थी
कोई नहीं जानता

मेरे लिए हर कहीं उठता था रूदन विकल
मानव-समूह में
हर तरफ़ से आती थी ऐसी ही आवाज़

मैं भी कहीं रोता हुआ जाता था
पर मेरे पीछे कोई नहीं आता था !

***

0 thoughts on “मेरे समय में रोना”

  1. गहरे अर्थों की भावपूर्ण कविता है
    पहले सोच में डुबाती है और फिर उदास कर देती है…

  2. बहुत सुन्दर, सारगर्भित और भावमय रचना.
    रूदन तभी सार्थक है
    जब दिलासा की आहट मिले

  3. ये बीच मझदार में छोड़ने वाली कविता है… चरम पर जा कर ख़तम हो रही है…

  4. हमारे समय में रोने के भी वर्गीय आयाम हैं. जटिल. गहरे.एक दुनिया है जिस में केवल बच्चों का ही रोना सुन पड़ता है. बड़ों का नहीं.वे रोते नहीं ?या उनका रोना ईथर की तरह इतना सूक्ष्म और ब्रह्माण्ड व्यापी है ki सुनाई दिखाई नहीं देता?लेकिन वे जरूर अपने रोते हुए बच्चों के पीछे पीछे होते हैं.और एक वह दुनिया है जिसे हम ज्यादा जानते हैं . यहाँ भी सब का अपना अपना रोना है , लेकिन उसे सुन ने वाला आगे पीछे कोई नहीं.कितने vikat हैं रोने के मायने हमारे समय में!
    इस कविता को पढ़ते हुए असद जैदी की 'रो ना' की याद तो आती ही है , कबीर भी याद आते हैं-
    ऐसा कोई ना मिले जा संग मिलिए लाग
    सब जग जलता देखिया अपनी अपनी आग '{ठीक से याद भी है या नहीं?}
    लेकिन इस कविता का अपना एक अलग लोक है. ठीक हमारे समय की विडंबनाओं से बना हुआ.
    एक और अद्भुत कविता के लिए हमारी मुबारकबाद कबूल करें.

  5. bahut achchhi, maarmik kavitaa. is
    baabat ashutosh kumar ji kee tippani se behtar kuchh kahne kee koshish karnaa himaaqat hogi.
    —pankaj chaturvedi
    kanpur

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