खुद को उलीच कर निचोड़ देने की मर्मांतक प्रक्रिया भी नहीं
आत्मा के वस्त्रों को धोने का दीया बाती जैसा कोई अनुष्ठान कहना भी
रोने के साथ न्याय करना नहीं होगा
बादलों का घुमड़ना और बरस पड़ना जैसा
सदियों पुराना जुमला भी रोने के मर्म को छू नहीं पाता
पर्वत का रोना इस तरह कि
बरसात में जैसे नसें उसके गले की फूल जाएं
कहना भी रोने को ठीक से बता नहीं पाता
रोना तो रोना
रोने के बाद का हाल तो और भी अजब है
कोई ईश्वर जैसे जन्म ले रहा हो
बारिश के बाद भी धुंधले सलेटी से बचे रह गए
आकाश से झांकने को आतुर कोई चिलकार
अरबी के धुले हुए से चौड़े पत्ते पर ठिठकी रह गई
ओस की अंतिम बूंद में चमकती किसी अरुणोदयी किरण सी
हवा के बेमालूम टहोके से डोलती पारे सी
बरसात के बाद की महकती
खामोशी में टिटिहरी के बोल फूटने से पहले की सी
किसी कर्णप्रिय आवाज के आमंत्रण की सी
जैसे अल्ली मिट्टी में बीज का अंखुआ फूट रहा हो
या बीज के फूट रहे अंखुए से मिट्टी नम हो रही हो
फिर भी रह रह कर यही लगता है
कि रोना और रोने के बाद का होना कुछ और ही है
बहुत हल्का बहुत खाली
बहुत भारी बहुत भरा हुआ
पास भी अपने बहुत और दूर भी खुद से पता नहीं कितने.
***
वाकई ऐसा ही है कुछ रोना… महज़ एक क्रिया भर नहीं है…
तीसरा पैरे में उपमाएं और उदहारण चमत्कृत करती हैं…
दोनों ही कवितायेँ एक साथ बेचैनी और राहत का सबब हैं….अमृता प्रीतम की बात भी याद आती है यहाँ–" सदियों जब लोग रो दिए तो पत्थर के हो गए "
सुन्दर बहुत सुन्दर.
"रोने के बाद का हाल" अंश में ही अच्छी कविता है। रोने के विषय में पहले दो पैरे अनर्गल हैं।
आपके यहाँ आकर समझ में आता है कि कविता को बार बार क्यों पढ़ा जा सकता है या पढना पड़ता है.मेरे लिए ये शायद इसलिए सच है और ज़रूरी है कि जब तक वो 'होकर नहीं गुज़र जाय' तब तक यांत्रिकता के भार से मुक्त नहीं हो पाती.
ये कविता एक ही बार में भीतर संभव होती है.
प्रीतिश की टिप्पणी ने एक बार और इसे देखने को मजबूर कर दिया पर मुझे लगता है इसके दो पैरे रोने की पूर्व-स्थापनाओं को अपर्याप्त बताने के लिए ज़रूरी थे.
नेति-नेति की तरह.
बहुत खूबसूरत बिम्बों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है अनूप भाई आपने इस अनिवार्य प्रक्रिया को । किसी ने कहा भी है Tears constitute the international language ..| बस" जैसे कोई इश्वर जन्म ले रहा हो" इस भाव पर कुछ और चाहता था मै।
रोने का खुला आकाश और रोने कि सुगंध है आपकी यह कविता!!
सुन्दर कविता!!!
@sanjay vyas
आपने बार-बार पढ़ने का महत्त्व स्थापित किया है। सर आप एक बार और पढें इस कविता को। पहले दो पैरे रोने की पूर्व स्थापनाओं को केवल अपर्याप्त बताते और उसमें कुछ जोड़ते तो मुझे टिप्पणी की आवश्कता नहीं होती। लेकिन इन पैरों में अपर्याप्त बताने के साथ ही उन स्थापनाओं को गलत भी बताया गया है, और कोई नहीं स्थापना भी नहीं की गई है। न ही किसी गंभीर तरीके से उसे अनिर्वचनीय बताया गया है। रोने की क्रिया और कारण हमेशा समान नहीं हो सकते, कुछ इस प्रकार का रोना भी रोया जाता रहेगा जिसे पूर्व स्थापनायें पर्याप्त रूप से अभिव्यक्त करती हैं।