अनुनाद

काव्य-कथा : बोरहेस और हिमालयाः टुनाईट आयम नॉट ए मंक / गिरिराज किराड़ू

(पिछले दिनों मैंने देखा ऑल जस्टीफाईड छपी हुई, ‘गद्य’ ‘दिखती’ हुई कवितायें वेब पर प्रकाशित होने पर कुछ लोगों को लगा यह कोई ‘नयी’ तरह की कविता या उसकी फैशन है। विश्व कविता में तो यह बहुत पुरानी चीज़ है ही, हिन्दी में भी दशकों पुरानी है। खुद मेरा फॉर्म एकदम शुरू से, मुख्यतः, यही रहा है लेकिन अपने लिखे हुए कुछ पाठ ऐसे हैं जिन्हें कविता की जगह ‘काव्य-कथा’ (वर्स नैरेटिव) कहना मुझे अधिक ठीक लगता है। यह नवीनतम काव्य-कथा है, दस दिन पुरानी – कवि।)

काव्य-कथा


रोसा बोराखा जो कभी बुरा नहीं मानती जब अंग्रेजी स्पेलिंग के अनुसार रोसा बोराजा कह कर बुलाता हूँ, वह तब भी बहुत कम बुरा मानती है जब लोग उसे साईकिल पर भटकने वाली अंगरेजण कहते हैं जबकि वो स्पेनिश, माफ़ करें स्पहानी, है और भारत को कुछ यूँ जानने लगी है कि शिवसेना सुनकर कहती है ओह वो जो बीजेपी से भी खराब है, जो हायजीन की ऐसी-तैसी करते हुए हर उस ढाबे पर चाय पीती है जिसके नीचे से मलमूत्र वाली नाली बहती है या उस गंगा में डुबकी लगा लेती है जो खुद बड़ा-सा नाला हो गई है उसके प्यारे बनारस में वही रोसा बोराजा जिसने पाँच बरस अंग्रेजी और दो बरस स्पहानी की पढ़ाई की है और इतने बरस से भारत में स्पहानी पढ़ाकर बोर हो गई है – जो इस बात से नाराज जरूर होती है कि हिन्दी अखबारों में छपने वाले फोन सेक्स के विज्ञापनों में भारतीय अपनी तस्वीरें क्यों नहीं छापते? उसे हिन्दी फिल्मों की कैबरे क्वीन हेलेन की कहानी उतना ही उदास करती है जितनी जनरल फ्रांको की रेज़ीम. उसी, उसी रोसा बोराजा के साथ एक सौ पचास किलोमीटर का सफर टैक्सी में करते हुए, मन ही मन यह प्रार्थना करते हुए उसे भनक न पड़े जिस ड्राईवर को वह बईया कह कर बुला रही है उसके बारे क्या में बक-सोच रहा है ना उसे उन लगभग सौ भारतीयों के सामूहिक आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, शारीरिक कष्टों का कोई अनुमान हो जो उसे हमारे साथ कार से उतरते हुए देखेंगे एक हाईवे ढाबे पर जहाँ चाई पीने की उसकी तलब की अवज्ञा करना हमारे लिये लगभग एक गुनाह हो जायेगा, एक क्रिस्तानी ढंग का गुनाह गोकि रोसा को क्रिस्तानी कहना क्या कम गुनाह है….

(दिलचस्प है कि यह उन दिनों का किस्सा है जब हिन्दी के शुद्धतावादी पंडित विदेशी नामों के शुद्ध उच्चारण को लेकर किसी पर मुकदमा तक ठोक सकते थे इज्जत उतारना तो आम बात थी गोकि शुद्धतावाद, और पंडितों से भी, उनकी नाराजगी बहुत मशहूर थी इस जनपद में)
पर असल कथा अब शुरू होती है बोरहेस या बोर्खेस या बोर्खे़ज और मारकेस या मारकेज़ या मार्क्वेज़ के बारे में बात करते करते वह प्रोफेसर दे की बात करती है जिनका हाथ काफी देर पकड़े रहे थे बोरहेस या बोर्खेस या बोर्खे़ज, तब तक वे बूढ़े और अंधे हो चले थे, और अचानक बोले प्रोफेसर दे से
(जो रोसा के मुताबिक जेएनयू में कुछ बिग शॉट रहे, स्पहानी के बहुत अच्छे स्कॉलर रहे, शायद जेएनयू के वीसी भी लेकिन जो रोसा के दोस्त हैं क्योंकि बहुत विनम्र हैं जो अपने वह सब कुछ बन जाने का जो रोसा समझती है कि वे हैं कारण सिर्फ इतना मानते हैं कि कभी कभी आदमी लकी होता है क्योंकि एक बार लाईट चली जाकर फिर से अचानक न आ गई होती तो उन्होंने उन्नीस सौ पचास के दशक की उस गर्म दोपहर कभी न पाया होता अचानक पंखे की हवा में फड़फड़ाते काग़ज़ों के बीच स्पहानी स्कालरशिप का वो काग़ज़, अगर उनके अंग्रेजी के गुरू ने उन्हें ना कहा होता कि डॉन क्विग्जोट, जिसे हिन्दी में डॉन कुओते, डॉन किखोते, डॉन क्विग्जोह वगैरह लिखा देखा है पर रोसा जिसे डॉन केशोटे कहती है, उसे पढ़े बिना तुम अंग्रेजी मे पीएचडी क्या खा के लिखोगे…. वैसे रोसा अगर यह कहती कि प्रोफेसर दे कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी या नालंदा ‘विश्वविद्यालय’के संस्थापक रहे हैं और उनकी उम्र सत्तर पार नहीं कुछ सैकड़ों वर्ष है तो भी बहुत प्यारा ही लगा होता – जादुई यथार्थवाद के सब आशिकों को इतनी छूट तो मिलनी ही चाहिये)
कि “या तो मैंने यह पढ़ा है या कल्पना कर ली है कि हिमालया शीवा के लाफ्टर से निकला है”, प्रोफेसर दे तब से बहुत ढूँढ चुके पर पुष्टि नहीं हुई कि जो बोरहेस या बोर्खेस या बोर्खेज़ ने कहा वह वाकई कहीं लिखा हुआ है कि नहीं और अब ये मानने लगे हैं भले लिखा न गया, यही तो नहीं हुआ था?
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जब भी कोई मुझसे कहता है भारत या बनारस के बारें में लिखो मैं उससे कहना चाहती हूँ भारत के बारे में लिखा नहीं जा सकता – मैं स्पेन के बारे में लिख सकती हूँ या प्रोफेसर दे बारे में, कितने भले आदमी हैं हर बार गुड़गाँव से चलकर कनाट प्लेस आते हैं मिलने के लिये इफ यू वांट मी टू, वी कैन मीट हिम बट आई विल हैव टू टैल हिम इन अडवांस यह लिखकर दिखा पाना कितना मुश्किल है कि कोई स्पहानी अंग्रेजी या हिन्दी कैसे बोलती है मेरे दिमाग में यह सब चल रहा है कि वह अपनी कम्बोडिया ट्रिप के बारे में बताने लगती है, हम गंतव्य के पास हैं, यू नो मेरा एक दोस्त है कम्बोडिया में अ बुद्दिस्ट मंक वहाँ मंक कैन से एनी टाईम नाऊ आयम नॉट ए मंक हाँ ट्रस्ट मी दे से टुनाईट आयम नॉट ए मंक…
वह उतरती है टैक्सी के भाड़े का एक तिहाई मुझे देती है – सामने उसका गेस्ट हाऊस है, “माय वीकएंड फैमिली”
हम हाथ हिलाते हैं दीवाली की छुट्टियाँ हैं हम अपनी फोरएवर फैमिलीज़ की तरफ बढ़ते हैं –
हम दोनों के फोन पर रात को एसएमएस आयेगा – Trust Borges, Himalaya came out of Shiva’s laughter*
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* वैसे तथ्य यह है कि यह बात (=हिमालय शिव की हँसी से निकला है) कालिदास ने मेघदूतम में लिखी है। (59वाँ पद)

0 thoughts on “काव्य-कथा : बोरहेस और हिमालयाः टुनाईट आयम नॉट ए मंक / गिरिराज किराड़ू”

  1. kavi ne 'kavita' nahiiiii 'kavyakatha' ke shuroo mein apni baat kah kar bahut samajhdari ka kaam kiya. poori rachna mein kuchh hai jo der tak baandhta hai. kavita kai chhor ek sath sambhale rahti hai aur sahitya se lekar indology tak kai bayaan ek sath deti hai. bade canvase ki rachna. 'kavi' nahiiii 'kavyakathakar' ko badhaaiyan.

  2. सही है रोसा बोराखा की इस्‍पाहानी.. झोले से कुछ और ऐसे पुराने, किस्‍सों के बहाने, निकलें..

  3. काव्य कथा ने कविता का पूरा आस्वादन कराया …. भला लगा .. शुक्रिया .. लेकिन पूरी कविता तो यहाँ है रात में एक समस आता है . trust borges , himalaya came out of shiva s laughter . .

  4. शिरीष जी की सुंदर कविताएं पढ़ने के बाद मन प्रसन्न हुआ। किराडू जी की काव्य-कथा भी अपने तरह का आस्वाद रखती है। किराडू जी को बनारस शब्द के सुंदर प्रयोग के लिए बधाई। "कुछ लोगों" की चर्चा हुई है। इस संदर्भ में भी कुछ कहुंगा। विश्व-कविता का तो मुझे रंच मात्र ही ज्ञान है लेकिन हिन्दी का थोड़ा है। रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में ऐसे गद्य-काव्य की चर्चा की है। रघुवीर सहाय के राजकमल प्रकाशन. से प्रकाशित प्रतिनिधी संग्रह में भी ऐसी एक रचना को शामिल किया गया है। कुछ अन्य लोगों ने भी यदाकदा ऐसी रचनाएं की हैं जो गद्य-पद्य के बीच की चीज ठहरती है। विश्वसाहित्य की क्या स्थिति है इसे तो विज्ञ लोग ही स्पष्ट करेंगे। यह भी कहना चाहुंगा कि संदर्भ/प्रसंग से काट कर कटाक्ष करना कभी सास भी बहु सीरियल में ही ठीक लगता है। बौद्धिक प्रतीत होने वालों में ऐसी आदतें ओछी लगती हैं।समयाभाव है इसलिए इस मामले को यहीं विराम देता हूं।

    एक शंका कालिदास के मेघदूत के 59वें पद को लेकर भी है। पूर्वमेघ के 62वें श्लोक में संभवतः कवि ने कहा है कि,

    "कैलाश पर्वत की सफेद हिममाला को देख कर ऐसा मालूम पड़ता है मानो शिव जी के प्रतिदिन का अट्टहास ही राशिभूत हो गया है।"

    यह श्लोक उत्प्रेक्षा अलंकार का सुंदर उदाहरण माना जाता है। कौन कहाँ से निकला है ये मामला इतना सीधा नहीं है।

    अतिव्यस्तता के बीच यह कमेंट किया है इसलिए प्रूफ की गलतियों के लिए सभी प्रूफरीडरों से करबद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ।

  5. मैं एक हफ्ते तक यहां न आ सकुंगा इसलिए यह अभी स्पष्ट कर दूं कि मैं रचनाकार की स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक हूं। कोई रचनाकार किसी आलोचक का मोहताज नहीं होता। न उसे होना चाहिए। आलोचक हमेशा गलत साबित होते रहें हैं। रचनाकार अपनी रचनाओं में दीर्घजीवी रहें हैं। गर वे दिन एक उपन्यास है और तो पीली छतरी वाली लड़की कहानी क्यों ऐसी बहसे फालतू हैं। मेरी नजर में तात्कालिक समय में अलोचक सिर्फ और सिर्फ रचना(शिल्प और कथ्य दोनों) का समेकित अर्थ समझने-समझाने की कोशिश करता है। किसी रचना का साहित्यिक मूल्य तो इतिहास के लम्बे दौर के बाद तय होता है। गुणवत्ता प्रमाणपत्र बांटने वाले दरोगा आलोचकों से मेरी सर्वथा असहमति रहेगी। साहित्य में दलगत राजनीतिक हस्तक्षेप कितना गैर-जरूरी और मूर्खतापूर्ण है यह भी प्रमाणित होता रहा है। इसलिए मैं उसकी भी सख्त मुखालफत करता हूं। ऐसे लोग हमेशा रहे हैं जो साहित्यकारों की बीच राजनीति की बात करते हैं और राजनीतिज्ञों के बीच साहित्य की बात करने लगते हैं। ऐसे लोगों को दूर से प्रणाम।

  6. मेरे पास उपलब्ध संस्करण में यह 59वें पद में है। कालिदास के कई लिपियों में कई संस्करण हैं, इसलिये ऐसा हो सकता है। पर मूल बात यह है कि एक लिखित प्रमाण तो है ही इस बात को कहे जाने के – बोरहेस जो पुस्कालय में रहते, काम करते थे उनके लेखन में आये हजारों किताबों और लेखकों के (जिनमें से कई काल्पनिक हैं) संदर्भों को देखते हुए यह निश्चयपूर्वक कह पाना मेरे लिये संभव नहीं कि बोरहेस को जो इस तरह याद था उसका स्रोत मेघदूतम ही था। अगर कोई और स्रोत है तो मेरी जानकारी में नहीं।

    कटाक्ष कहाँ हो गया? हुआ हो तो क्षमा।

  7. मुझे बाद में ख्याल आया और मैंने इस पोस्ट को कमेंट को जीमेल पर मंगाए मोड पर डाल दिया। जिसका सुफल आपकी टिप्पणी के रूप में सुबह-सुबह ही मिला। और परिणामस्वरूप मेरा यह कमेंट संभव हो सका। कटाक्ष वाली बात को यहीं छोड़िए। यदि ऐसा कुछ नहीं था तो इसे मेरा मन का दोष मान कर मुझे क्षमा कर दीजिए।

    आपने कालिदास के अलग-अलग संस्करणों की जो बात कही है वो सर्वथा सही है। इसीलिए मैंने पद संख्या पर विशेष जोर नहीं दिया है। पद संख्या उद्धृत करने का मेरा उद्देश्य भी कुछ आप जैसा ही था। संभवतः आपने ध्यान नहीं दिया कि मेरा जोर उस श्लोक के अर्थ भाष्य पर था। मैं पूरी विन्रमता से कहता हूं कि आपके लिखे से ऐसी ध्वनी निकलती है कि कालिदास ने लिखा है कि हिमालय शिव के हंसी से उत्पन्न हुआ है। आपने हूबहू ऐसे ही वाक्य का प्रयोग भी किया है। जबकि मेरे पढ़े के हिसाब से उस श्लोक का अर्थ है कि, कैलाश (हिमालय नहीं) पर्वत की सफेद चोटियां देख कर ऐसा लगता है कि मानो शिव की हंसी सी राशिभूत हो गई हो। इस श्लोक मंे उत्प्रेक्षा है अभिधा नहीं। उम्मीद है आप इन दोनों अर्थों के भेद को महत्व देंगे।

    किराडू जी मैं एक निजी प्रसंग इस उम्मीद से आप सब से बांटना चाहुंगा कि शायद यह कुछ काम को हो।

    वर्तमान में कनाडा और इसके पहले दशकों तक आस्टेªलिया,अमरीका में रहे हिन्दी बोलने के शौकिन प्रोफेसर ने मुझसे मटिरिअलाइज शब्द की हिन्दी पूछी। मैंने उन्हें जितने शब्द बताए वो उसका सटीक अग्रेजी शब्द बताकर मुझे निरूत्तर कर देते थे और प्रश्न अपनी जगह सर उठाए खड़ा रहा। कामिल बुल्के भी मेरी मदद न कर सके। उसके बाद रात गई बात गई। कल जब आपने इस श्लोंक की चर्चा की तो मेरा ध्यान कालिदास द्वारा प्रयुक्त शब्द राशिभूत पर गया।ं मुझे लगता है कि मटिरिअलाइज शब्द का इतना सटीक समानार्थक शब्द हिन्दी में दूसरा न होगा। आप सब की क्या राय है ??

  8. इस महत्वपूर्ण चर्चा के लिए रंग जी और किराडू जी का आभार.
    यहाँ इस बहस का हासिल रौशनी ही है व्यर्थ का ताप नहीं.बाकी काव्य-कथा एक अलग ही रस की सृष्टि करती है,कवि को बधाई.आपका शुक्रिया.

  9. प्रिय रंगनाथ, वाकई मैंने इस पर अब गौर किया। मैं इस सत्य-काव्य-कथा के 'अपने सत्य' से ही मोहित था। व्योमेश के ध्यान दिलाने पर मैंने मेघदूतम में त्रयम्बका हास वाला श्लोक ढूंढा। यह एक तथ्य था जो फुटनोट में देना ठीक लगा। क्यूंकि कथा में यह हिमालय है और मेघदूत में कैलाश तो इससे स्मूति का वह खेल और भी मजेदार हो जाता है जो बोरहेस इस कविता में शुरु करते हैं। मेरी पीएचडी कालिदास पर है, अंग्रेजी में इसलिये भी व्योमेश और आपकी स्मूति व जानकारी मुझे शर्मिंदा कर रही है।

    मेटिरियलाईज के लिये राशिभूत एक अर्थ/प्रसंग विशेष में सर्वाधिक ठीक होगा, मुझे भी लगता है लेकिन ऐसे प्रयोगों में कि 'क्या यह चीज़ मेटिरियलाईज हो पायेगी? हमें दूसरे स्थानापन्न ही चाहिये होंगे।

    सब का शुक्रिया।

  10. मैने गिरिराज जी की इस काव्यकथा के अलावा रंगनाथ जी के साथ उनके सम्वाद का आनन्द भी लिया । गिरिराज जी यह " काव्य कथा " शब्द उचित है क्या या इसके लिये भी कोई सही शब्द ढूँढा जा सकता है ?

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