अनुनाद

कुफ़्र-मार्टिन एस्पादा की एक कविता

बक ही दिया जाए कुफ़्र: कविता हमें बचा सकती है,
उस तरह नहीं जैसे कोई मछुआरा डूबते हुए तैराक को खींच लेता है
अपनी कश्ती में, उस तरह नहीं जैसे ईसा ने, चीखों-चिल्लाहटों के बीच,
पहाड़ी पर अपनी बगल में सलीब पर लटकाए गए चोर से
अमरत्व का वायदा किया था, फिर भी मुक्ति तो है ही.

जेल की लाइब्रेरी से ली गई कविता की पुस्तक पढ़ते हुए
कोई कैदी सुबकता है कहीं, और मैं जानता हूँ क्यों उसके हाथ
एहतियात बरतते हैं कि पुस्तक के जर्जर पन्ने टूट न जाएँ.
*****
(मार्टिन एस्पादा का परिचय और एक कविता अनुनाद की इस पुरानी पोस्ट पर मौजूद है)

0 thoughts on “कुफ़्र-मार्टिन एस्पादा की एक कविता”

  1. बढ़िया विचारवान कविता भारत भाई। कवि को बधाई। हिंदी में उनकी पिछली कविता का भी स्वागत हुआ था और मेरा यक़ीन है कि इसका भी होगा।
    ***
    देखिये आपकी पोस्ट के स्वागत के लिए मैं इतनी सुबह भी मौजूद हूं!

  2. behad saarthak, shreshth kavitaa. mujhe shamsher kee yah mahaan kaavya-pankti yaad aayi—"kufr se
    liyaa eemaan !" bhaarat ji evam
    shirish ji donon kaa bahut-bahut
    shukriyaa .
    —pankaj chaturvedi
    kanpur

  3. यह है कविता।
    संक्षिप्‍त और विशाल। जर्जर और ताकत से भरी हुई। ऐसी कविताएं पढ़कर जो खुशी मिलती है वह अनंतकाल तक साथ बनी रहती है। हमारे युवतर साथी इन कविताओं तक जा रहे हैं, उन्‍हें प्रसारित कर रहे हैं, यह गहरी आश्‍वस्ति की भी बात है।
    बधाई और धन्‍यवाद।

  4. अंतिम तीन लाइन पढ़कर कर तो मेरे हाथ खुद-ब-खुद तालियाँ बजाने को उठ गए… कैसा असर है इनमें जरा फिर से पढ़ कर देखूं तो ?

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