अनुनाद

निज़ार क़ब्बानी की कविता – चयन, अनुवाद तथा प्रस्तुति : सिद्धेश्वर सिंह

इस अनुवाद और प्रस्तुति के लिए अनुनाद सिद्धेश्वर सिंह यानी जवाहिर चा का आभारी है।
निज़ार क़ब्बानी (1923-1998) की गणना न केवल सीरिया और अरब जगत के उन महत्वपूर्ण कवियों में होती है जिन्होंने न केवल कविता के परम्परागत ढाँचे को तोड़ा है और उसे एक नया मुहावरा और नई जमीन बख्शी है बल्कि ऐसे समय और समाज में जहाँ कविता में प्रेम को वायवी और रूमानी नजरिए देखने की एक लगभग आम सहमति और सुविधा हो वहाँ वह इसे हाड़ – मांस के स्त्री – पुरुष की निगाह से इसी पृथ्वी पर देखे जाने के हामी रहे हैं। इस क्रम में एक दैनन्दिन साधारणता है और देह से विलग होकर देह की बात किए जाने की चतुराई भी नहीं है। अपने विद्यार्थी जीवन में जब उन्होंने कवितायें लिखना शुरु किया तो नई पीढ़ी के बीच अपार यश प्राप्त किया किन्तु उन पर दैहिकता और इरोटिसिज्म को बढ़ावा देने का आरोप भी लगाया गया. खैर वे लगाता लिखते रहे – मुख्यत: कविता और गद्य भी.उनकी कविता और संगीत की जुगलबन्दी की एक ऐसी सफल – सराहनीय कथा है जो रीझने को मजबूर तो करती ही है , रश्क भी कम पैदा नहीं करती।

निज़ार क़ब्बानी को को केवल प्रेम , दैहिकता और इहलौकिकता का कवि भर मान लिया जाना उनके साथ अन्याय होगा. वे अपनी कविताओं में धीरे – धीरे बदलते , अपने आसपास के परिवेश व विषम परिस्थितियों से प्रभावित होते, उन पर सटीक व चुभती हुई टिप्पणी करते, प्रतिरोध के स्वर में अपना स्वर मिलाते भी देखे जाते हैं । इस प्रकार की कविताओं में ‘पत्थर थामे बच्चे’, ‘दमिश्क , तुमने क्या किया मेरे वास्ते’, ‘जेरुशलम’ , ‘ बलक़ीस’ आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

निज़ार क़ब्बानी ने एक राजनयिक के रूप में दुनिया के कई इलाकों में अपना वक्त बिताया और अपने अनुभव जगत को विस्तार दिया.पचास वर्षों के लम्बे साहित्यिक जीवन में तीस से उनकी किताबें प्रकाशित हुई हैं तथा विश्व की की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। जहाँ तक अपनी जानकारी है हिन्दी में निज़ार की कविताओं की उपस्थिति अत्यन्त विरल है। आजकल मैं उनकी कविताओं का आस्वादन तो कर ही रहा हूँ , अनुवाद का काम भी जारी है। हिन्दी में विश्व कविता के प्रेमियों के बीच यदि मेरा किसी कण के हजारवें हिस्से भर का यह काम एक महत्वपूर्ण कवि के कविता कर्म के प्रति किंचित रुचि पैदा कर सके तो ….

तो लीजिए प्रस्तुत है निज़ार क़ब्बानी की दो कवितायें –

* प्रेम तुला पर

कुछ भी नहीं है समतुल्य
न ही
तुम्हारे अन्य किसी प्रेमी से
संभव है मेरा कोई सादृश्य
फिर भी :

यदि वह तुम्हें दे सकता है मेघ
तो मैं ला दूँगा बारिश
यदि वह तुम्हें दे सकता है दीपक
तो मैं हाजिर हो जाऊँगा साथ लिए चाँद।

यदि वह तुम्हें दे सकता है कोई टहनी
तो मैं ले आऊँगा पूरा का पूरा एक वृक्ष
और….
यदि वह तुम्हें दे सकता है जलयान
तो मैं
तुम्हारे साथ चल पड़ूँगा लेकर अनंत यात्रायें ।
_ _ _

**
समुद्र संतरणअंतत:
प्रेम को ऐसे ही घटित होना था
जल की त्वचा पर
एक मछली की भाँति फिसलते हुए
हम दाखिल हुए
देवताओं के स्वर्ग में ।

हम अचम्भित हुए
जब सागर तल में दिखी
बेशकीमती मोतियों अविरल पाँत।
प्रेम को ऐसे ही घटित होना था
संतुलित
प्रतिसाम्य से परिपूर्ण
मानो ‘स्व’ और ‘पर’ का विलोपन
हो गया – सा हो मूर्तिमान ।

कुछ भी नहीं नि:शेष
बस एक न्यायोचित दान – प्रतिदान
ऐसा ही होना था किसी आरोह का अवरोह
ऐसा ही होना था किसी उत्थान का अवसान
जैसे जैस्मिन के जल से लिखी जा रही हो कोई इबारत
जैसे धरा को फोड़कर
सहसा उदित हो गया हो कोई जलप्रपात ।
_ _ _
( क़ब्बानी की कुछ कवितायें यहाँ और यहाँ भी देखी जा सकती हैं )

सिद्धेश्वर सिंह
विभागाध्यक्ष हिन्दी, हेमवती नंदन बहुगुणा राजकीय स्तात्कोत्तर महाविद्यालय, खटीमा, जिला- ऊधम सिंह नगर (उत्तराखंड)
फोन – 9412905632

0 thoughts on “निज़ार क़ब्बानी की कविता – चयन, अनुवाद तथा प्रस्तुति : सिद्धेश्वर सिंह”

  1. शिरीष जी आप के द्वारा प्रस्तुत प्रेम पर बहुत सुंदर कविता पढ़ी … पढ़ कर सराबोर हों गया मन .. प्रेम में सर्वोपरि होने के सुंदर भाव मन को छू गए कवि को शत शत नमन है

  2. प्रज्ञा जी ये कविताएँ वाकई में बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण हैं पर यह प्रस्तुति मेरी नहीं मेरे जवाहिर चा की है इसलिए कृपया उन्हें श्रेय दीजिये, मुझे नहीं. मैं कोशिश करूंगा कि उनसे कुछ और ऐसे ही अनुवाद प्राप्त कर सकूं जो अनुनाद की धरोहर साबित हों. मैंने तो ख़ुद पोस्ट के आरम्भ में उनका आभार प्रकट किया है और इस टिप्पणी में पुनः करता हूँ. चच्चा इस खूबसूरत पोस्ट के लिए बहुत बहुत शुक्रिया. हमें यूँ ही समृद्ध करते रहना.

  3. निजार कब्बानी को पिछले दिनों कबाड़खाना और कर्मनाशा पर भी पढ़ा… जिज्ञासा बढती जा रही है.. कृपया जारी रहें… सिद्देश्वर सिंह को धन्यवाद

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