निज़ार क़ब्बानी को को केवल प्रेम , दैहिकता और इहलौकिकता का कवि भर मान लिया जाना उनके साथ अन्याय होगा. वे अपनी कविताओं में धीरे – धीरे बदलते , अपने आसपास के परिवेश व विषम परिस्थितियों से प्रभावित होते, उन पर सटीक व चुभती हुई टिप्पणी करते, प्रतिरोध के स्वर में अपना स्वर मिलाते भी देखे जाते हैं । इस प्रकार की कविताओं में ‘पत्थर थामे बच्चे’, ‘दमिश्क , तुमने क्या किया मेरे वास्ते’, ‘जेरुशलम’ , ‘ बलक़ीस’ आदि का उल्लेख किया जा सकता है।
निज़ार क़ब्बानी ने एक राजनयिक के रूप में दुनिया के कई इलाकों में अपना वक्त बिताया और अपने अनुभव जगत को विस्तार दिया.पचास वर्षों के लम्बे साहित्यिक जीवन में तीस से उनकी किताबें प्रकाशित हुई हैं तथा विश्व की की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। जहाँ तक अपनी जानकारी है हिन्दी में निज़ार की कविताओं की उपस्थिति अत्यन्त विरल है। आजकल मैं उनकी कविताओं का आस्वादन तो कर ही रहा हूँ , अनुवाद का काम भी जारी है। हिन्दी में विश्व कविता के प्रेमियों के बीच यदि मेरा किसी कण के हजारवें हिस्से भर का यह काम एक महत्वपूर्ण कवि के कविता कर्म के प्रति किंचित रुचि पैदा कर सके तो ….
तो लीजिए प्रस्तुत है निज़ार क़ब्बानी की दो कवितायें –
* प्रेम तुला पर
कुछ भी नहीं है समतुल्य
न ही
तुम्हारे अन्य किसी प्रेमी से
संभव है मेरा कोई सादृश्य
फिर भी :
यदि वह तुम्हें दे सकता है मेघ
तो मैं ला दूँगा बारिश
यदि वह तुम्हें दे सकता है दीपक
तो मैं हाजिर हो जाऊँगा साथ लिए चाँद।
यदि वह तुम्हें दे सकता है कोई टहनी
तो मैं ले आऊँगा पूरा का पूरा एक वृक्ष
और….
यदि वह तुम्हें दे सकता है जलयान
तो मैं
तुम्हारे साथ चल पड़ूँगा लेकर अनंत यात्रायें ।
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प्रेम को ऐसे ही घटित होना था
जल की त्वचा पर
एक मछली की भाँति फिसलते हुए
हम दाखिल हुए
देवताओं के स्वर्ग में ।
हम अचम्भित हुए
जब सागर तल में दिखी
बेशकीमती मोतियों अविरल पाँत।
प्रेम को ऐसे ही घटित होना था
संतुलित
प्रतिसाम्य से परिपूर्ण
मानो ‘स्व’ और ‘पर’ का विलोपन
हो गया – सा हो मूर्तिमान ।
कुछ भी नहीं नि:शेष
बस एक न्यायोचित दान – प्रतिदान
ऐसा ही होना था किसी आरोह का अवरोह
ऐसा ही होना था किसी उत्थान का अवसान
जैसे जैस्मिन के जल से लिखी जा रही हो कोई इबारत
जैसे धरा को फोड़कर
सहसा उदित हो गया हो कोई जलप्रपात ।
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( क़ब्बानी की कुछ कवितायें यहाँ और यहाँ भी देखी जा सकती हैं )
शिरीष जी आप के द्वारा प्रस्तुत प्रेम पर बहुत सुंदर कविता पढ़ी … पढ़ कर सराबोर हों गया मन .. प्रेम में सर्वोपरि होने के सुंदर भाव मन को छू गए कवि को शत शत नमन है
प्रज्ञा जी ये कविताएँ वाकई में बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण हैं पर यह प्रस्तुति मेरी नहीं मेरे जवाहिर चा की है इसलिए कृपया उन्हें श्रेय दीजिये, मुझे नहीं. मैं कोशिश करूंगा कि उनसे कुछ और ऐसे ही अनुवाद प्राप्त कर सकूं जो अनुनाद की धरोहर साबित हों. मैंने तो ख़ुद पोस्ट के आरम्भ में उनका आभार प्रकट किया है और इस टिप्पणी में पुनः करता हूँ. चच्चा इस खूबसूरत पोस्ट के लिए बहुत बहुत शुक्रिया. हमें यूँ ही समृद्ध करते रहना.
shireesh ji jawahar chacha ka naam to hamane shuru men hi padha tha lekin madhyam aap hain isliye hamane aap se hi kah diya .. bhavishya aur anuwaad padhane ko milen toh yah hamara bhi soubhagya hoya yah hamari bhi gujarish hai chachaji se
ये तो पाब्ला नेरूदा की कविताओं की याद दिलाती है। बहुत सुन्दर…आभार
Bahut Khoobsoorat Ji. Bahut badhiya anuvaad kiya hai aap ne. Keep it on … …
Sukhdev.
निजार कब्बानी को पिछले दिनों कबाड़खाना और कर्मनाशा पर भी पढ़ा… जिज्ञासा बढती जा रही है.. कृपया जारी रहें… सिद्देश्वर सिंह को धन्यवाद
शानदार अनुवाद सिद्धेश्वर सिंह जी. मेरी बधाई
aapka yeh anuvaad vastav mein sarahneeya hai.vaise utni goodh samajh to nahin hai phir bhi i tried to understand and i really appreciate your efforts.
बेहतरीन अनुवाद और बहुत सुन्दर कवितायेँ..