अनुनाद

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ईरान से पर्तोव नूरीला की कविता – चयन, अनुवाद तथा प्रस्तुति : यादवेन्द्र

पर्तोव नूरी़ला इरान की प्रखर कवियित्री हैं। १९४६ में तेहरान में जनमी, वहीँ पलीं बढीं और पढीं। बाद में तेहरान यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगीं। १९७२ में पहला काव्य संकलन छपा, पर तत्कालीन शाह शासन ने उसपर प्रतिबन्ध लगा दिया। १९७९ में इस्लामी क्रांति के समय उसपर से प्रतिबन्ध तो उठा लिया गया पर उनके स्त्री होने के कारण पढाने से रोक दिया गया। अपनी कुछ लिखने पढ़नेवाली मित्रों के साथ मिल कर उन्होंने एक प्रकाशन शुरू किया,पर उसमे भी इतने अड़ंगे लगाये गए कि तीन साल बाद उसको भी बंद करने कि नौबत आ गयी। इन सब से परेशाँ होकर पर्तोव ने अमेरिका कि शरण ली। उन्होंने कविता के साथ साथ कहानी,नाटक और आलोचनात्मक पुस्तकें भी लिखी हैं और उनके फारसी कविता के अनेक संकलन प्रकाशित हैं।

यहाँ प्रस्तुत कविता उनकी बेहद लोकप्रिय कविता है, जिसको इरान में स्त्रियों के लोकतान्त्रिक संघर्ष का घोषणापत्र भी कहा जाता है. इसका फारसी से अंग्रेजी अनुवाद जारा हौशमंद ने किया है.
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मैं इंसान हूँसर झुका कर चलो
जैसे निकालो घर से बाहर पैर

पड़े तुम्हारे चेहरे पर
प्रकाश सूर्य का
और न ही रौशनी चंद्रमा की
क्योंकि तुम एक स्त्री हो.
शरीर पर उभर आए बौर को
काल के तहखाने में गुडुप कर दो
माथे की कुलबुलाती लटों को हवाले कर दो
बुरादे वाले चूल्हे की राख के
और
हाथों की उत्तप्त सामर्थ्य को
झोंक दो घर के अन्दर झाडू पोंछे और बर्तन बासन में…
क्योंकि
तुम एक स्त्री हो.
दफ़ना डालो सदा के लिए अपने बोल
चुप्पी के उजाड़ बियाबान में
अपनी अकुलाती चाहतों पर शर्म से डूब मरो
और
सम्मोहन के रस में डूबे अंतर्मन को पहनाओ जामा
मंद मंद बयार के निस्सीम धीरज का…
क्योंकि
तुम एक स्त्री हो.
ईर्ष्या के गंदले दर्पण में
जड़ होकर चस्पां हो जाओ
और पहन लो लिजलिजी जाहिली का ताना बाना..
क्योंकि
तुम एक स्त्री हो.
तन मन कस कर बाँध कर रखो
जाने
कब आ धमके तुम्हारा मालिक
और करने को उतावला हो जाये
करने को तुम्हारी पीठ पर मन मर्जी सवारी…
क्योंकि
तुम एक स्त्री हो.
**************
मैं फूट पड़ती हूँ
रोने लगती हूँ
यहाँ
तो
नादानी से भरी
हुई करुणा
भारी
पड़ती जा रही है
ज्ञान की बर्बरता से
मैं संताप करती हूँ
स्त्री बन कर अपने जन्म लेने का
मैं संघर्ष करती हूँ
लड़ती हूँ
जहा मर्दानगी का गुरुर
सर चढ़ कर बोलता रहता है खेतों में
घरों में और क़ब्र के अन्दर भी
मैं लड़ती हूँ
लड़की बन कर अपने जन्म लेने के खिलाफ़.
मैं रखती हूँ अपनी ऑंखें खूब खुली
जिस से डूब न जाऊँ
ऐसे
स्वप्न के
भार तले
जो मेरे लिए देखा था और कई कई लोगों ने
और
जोर लगा कर फाड़ देती हूँ यह भुतहा परिधान
जिस से बाँध दिया गया था मुझे
मेरे नग्न ख़यालों को ढांपने के नाम पर…
क्योंकि
मैं एक स्त्री हूँ.
मैं युद्ध के देवता से करने लगी हूँ प्यार
जिस से धरती की अतल गहराईयों में
दफ़ना सकूँ उसके कोप की तलवार
मैं अंधियारे के देवता से भिड जाती हूँ आमने सामने
जिस
से क्षितिज पर चमक सकें मेरे नाम लिखे सितारे…
क्योंकि
मैं एक स्त्री हूँ.
प्रेम को एक हाथ से थामती हूँ
पकड़ती हूँ श्रम को दूसरे हाथ से कस कर
इस तरह मैं अपनी
गौरवशाली प्रखरता के बलबूते
सिरजने लगती हूँ अपनी दुनिया
इसी धरती पर
और बादलों का बिछौना बना कर
रोप देती हू उसमे
अपनी
मुस्कान की सुगंध
कि जब बरसे पानी तो
सुगन्धित बूंदों से
कलियाँ फूट पड़ें दुनिया भर की वनस्पतियों में…
क्योंकि
मैं एक स्त्री हूँ.
मैं जनूंगी जो बच्चे
वो
रौशनी का सैलाब ले कर आएंगे
मेरे आदमियों के साथ साथ आयेगी
ज्ञान विज्ञान की अद्वितीय आतिशबाजी…
क्योंकि
मैं एक स्त्री हूँ.
मैं ही हूँ इस धरती की अखंडित शुचिता
और काल की कभी न फीकी पड़नेवाली शान…
क्योंकि मैं एक इंसान हूँ ….

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यादवेन्द्र जी
संपर्क – 9411100294

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  1. जितनी कमाल की कविता है, उतना ही कमाल का हिन्दी अनुवाद। यादवेन्द्र जी कविता का अनुवाद नहीं करते, लगता है, कविता का पुन: सृजन करते हैं। यह उनकी खूबी है जहाँ उनका अनुवाद भाषिक न होकर, सृजनात्मक हो उठता है और एक मौलिक रचना सा सुख देता है।

  2. अद्भुत कविता है यह नूरीला की इसमे उत्पीड़न की व्यथा सहज रूप से झलकती है । अनुवाद कुछ बेहतर हो सकता था , प्रवाह की कमी महसूस हो रही है । हो सकता है यह अंग्रेज़ी से अनुवाद की वज़ह से हो

  3. कविता बेहद मारक है… हालाँकि ख्याल कोमोन हैं… किन्तु सटीक और प्रभावशाली शब्दों से जोड़ा गया है…

  4. खबर मिली कि लीलाधर मंडलोई पुरूस्कार आपको "पृथ्वी पर… " के लिए मिला… बहुत बहुत मुबारक हो… बुक फेयर में देखा था पर ले नहीं सका था…

  5. एक और सम्मान की बधाई शिरीष जी…आपको तब से पढ़ रहा हूँ, जब आपने अंकुर मिश्र सम्मान लिया था। अंकुर मेरा ममेरा भाई था…

  6. इस कविता के अनुवाद और प्रस्तुति के लिए यादवेन्द्रजी को और ताज़ा पुरष्कार के लिए शिरीष जी को मुबारकबाद

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