अनुनाद

हिन्दी साहित्य, समाज एवं संस्कृति की ऑनलाइन त्रैमासिक पत्रिका

मैं ऐसे बोलता हूँ जैसे कोई सुनता हो मुझे !

एक नई कविता …..

रात भर
पुरानी फ़िल्मों की एक पसन्दीदा श्वेत-श्याम नायिका की तरह
स्मृतियां मंडराती
सर से पांव तक कपड़ों से ढंकीं
कुछ बेहद मज़बूत पहाड़ी पेड़ों और घनी झरबेरियों के साये में
कुछ दृश्य बेडौल बुद्धू नायकों जैसे गाते आते ढलान पर

एक निरन्तर नीमबेहोशी के बाद
मैं उठता तो एक और सुबह पड़ी मिलती दरवाज़े के पार
उसकी कुहनियों से रक्त बहता
उसकी पीठ के नीचे अख़बार दबा होता उतना ही लहूलुहान
वह किसी पिटी हुई स्त्री सरीखी लगती
मेरी पत्नी उसे अनदेखा करती जैसे वह सिर्फ़ मेरी सुबह हो उसकी नहीं

मैं अपनी सुबह के उजाले में अपने सूजे हुए पपोटे देखता
ठंडी होती रहती मेज़ पर रखी चाय

मेरे मुंह में पुराने समय की बास बसी रहती बुरी तरह साफ़ करने के बाद वह कुछ और गाढ़ी हो जाती

मेरे हाथों से उतरती निर्जीव त्वचा की परत और मेरा बेटा हैरत से ताकता उसे

इस तरह अंतत: मैं तैयार होता और जाता बाहर की दुनिया में
और वहां बोलता ज़ोर ज़ोर से ऐसे जैसे कि कोई सुनता हो मुझे !


0 thoughts on “मैं ऐसे बोलता हूँ जैसे कोई सुनता हो मुझे !”

  1. आप आजकल इतनी उदास और खीझ भरी कविताएँ क्यों लिखते हैं? पृथ्वी पर एक जगह में भी आपकी दुनिया बदलती हुई दिखती है पर क्या अब वह इतनी बदल गई है? चाह कर भी कैसे लिखूं कि कविता अच्छी लगी – पढ़ते हुए गहरी उदासी घेरने लगती है.

  2. मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत बढ़िया लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है!
    मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!

  3. विष्णु खरे की कविता 'मार खा रोईं नहीं' का ख़याल-पाठ करते हुए गीत चतुर्वेदी ने उनकी कविता में सिनेमैटोग्राफी की तकनीकों के इस्तेमाल की ओर ध्यान आकृष्ट किया है.शिरीष मौर्य की इस कविता की विशेषता भी यही कैमरावर्क है.
    पहले पैराग्राफ का बज़ाहिर फ़िल्मी लोकेल पूर्वपीठिका स्थापित करता सा लगता है.पर दूसरे ही पैराग्राफ में जिस कुशलता से कवि का कैमरा चीज़ों के एकदम पास आ जाता है,कई सारी बारीकियाँ नज़र आने लगती हैं.दरवाज़े की दहलीज़ का उभार,कुहनियों से टपकते खून के साथ खरोंचों के निशान,दबे हुए अखबार पर पड़ी चुनवटें दृश्य में आ जाती हैं.ऐसा करते हुए कवि जाने-अनजाने 'आउटडोर' से 'इनडोर' को,'फील्ड' से 'सेट' को,और 'मुख्यधारा' से 'समानांतर' सिनेमाई शैली/विधा को 'ट्रांसेंड' कर जाता है.
    पपोटा,चाय का कप,अनधोए मुँह की भंगिमा और निर्जीव त्वचा जैसी 'थिर' चीज़ों से गुज़रती हुई कैमरे की आँख में जब ज़ोर ज़ोर से आने वाली आवाज़ मिल जाती है,तो दृश्य और श्रव्य के संयोग से ऐसा विस्फोट होता है कि पाठक का
    मन गहरे विषाद से भर जाता है.रागिनी की टिप्पणी इस बात की तस्दीक करती है.
    अभ्यंतर से बाह्य की इस यात्रा का 'विजुअल लिरिसिज्म' अप्रतिम है और इस कविता का हासिल भी.एक बार फिर गीत के शब्द उधार लेकर कहें तो शिल्प के स्तर पर 'खरेस्क'(Khare-sque) शायद ऐसे ही हुआ जाता है.

  4. तकनीकी स्तर पर भी यह खरेस्क होने से दूर है, और अच्छा है कि ऐसा है। गीत का वह पठन हमने प्रकाशित किया है और वह जैसा मेरी पहली प्रतिक्रिया थी उसे पढ़कर, खुद कविता से अच्छा है। एक खास तरह की प्रभावाव्यंजकता के बावजूद। शिरीष की कविता में कोई और चीज़ है, वही जो उसकी कई और कविता में भी रहती आयी है, फिलहाल वह मेरे लिये बेनाम है, एक किस्म का एक्स फैक्टर। जियो प्यारे, और ऐसी चीज़ें और लिखो प्यारे।

  5. मेरे ख़याल से…एक होता है subject और एक होता है उसका treatment(जिसे हम तकनीक भी कहते hai)…जैसे की एक आईडिया और दूसरा उसे संप्रेषित करने की तकनीक…..लॉन्ग शोट..मिड शोट ..और क्लोसे उप के बारे में मैं इतना हिन् जानता हूँ की ये आर्डर १,२,३ या फिर ३२१ रहना चाहिए यदि नहीं तो वो 'jerk मन जाता है ' जो एक प्रकार की त्रुटी है…अब कहना ये चाहता हूँ की कविता किस्सी ने भी लिखी हो और उसे ,प्रकाशित किसी ने भी किया हो(गौण hai)-तकनीक के स्तर पर उपरोक्त नियम हर कृति पर लगाये जा सकते है………हाँ विषय पर वाद हो रहा है तो एक अलग बात है…वैसे एक बात और याद आ गयी..हिन्दुस्तानी लोग जिस रंग को पहचान नहीं पाते उसे english color कह देते है…ये'एक्स-फास्टर 'शब्द का उपयोगे भी उसी श्रेणी में आता सा लगता है…वैसे…कहते तो ये भी हैं की सतीश कौशिक लॉन्ग से क्लोसे उप और vice-vera को भी संभव कर लेते है…तो यही सीखा हमने की दुनिया में किसी चीज़ का कोई नीयम नहीं होता.. !!!!!!!

  6. क्या यहाँ "पुरानी फिल्मों की एक पसंदीदा श्वेत श्याम नायिका" की जगह "पुरानी श्वेत श्याम फिल्मो की एक पसंदीदा नायिका" नहीं होना चाहिए था ?

    -सच है कमरों के अन्दर अब सुबह नहीं होती !!
    -शुक्र है लेकिन की अभी जोर जोर से ही सही …कोई न सुनता हो तो भी आप जैसे कुछ लोग बोल रहे हैं !! अभी संभावनाएं ज़िंदा हैं !!

    बहुत सुन्दर कविता!!

  7. शिरीष की इस कविता में मुझे जो प्रभावित करता है वह है एक संवेदनशील व्यक्ति का गहरे अकेलेपन का एहसास। पूरा शिल्प जिस विशिष्ट अवसादपूर्ण स्थिति का निर्माण करता है वह सिर्फ़ उसके लिये है। उस विज़ुअल सीन में वह बस अकेला है। इसलिये कि वह सोचता है। वह बाहर जाके भी जब बोलता है तो वह अकेला है। यह कवि, कविता और संवेदना के लगातार अकेले और विस्थापित होते जाने का दुख है। इसीलिये मह्सूस भी तभी किया जा सकता है जब उसे भोगा जाये। इसी अर्थ में शिरीष उस एक्स फ़ैक्टर को जन्म देता है। यह कवियों का कवि होने जैसा है– शमशेर से क्षमायाचना सहित्।

    हां गीत के उस लेख की बात चली तो भाई मै गिरिराज किराडू जी से सहमत हूं कि वह ख़ुद कविता से अच्छा है और यह जोडना चाहूंगा कि इसीलिये उस कविता से न्याय नहीं करता।

  8. बहुत अच्छी कविता है शिरीष जी, विशेष कर अंतिम चार लाइन तो बहुत बेहतरीन है… रोज़ की सच्चाई…

  9. अशोक भाई ने बहुत सटीक शब्दों में जो कहा है वह मेरे मन में कहीं था लेकिन जिस एक्स की बात कर रहा था वो बहुत निजी कुछ है। शिरीष की कुछ कविताओं से तत्काल, इंटेनसिटी से जोड़ने वाला कुछ। पहली बार एमआरआई वाली उसकी कविता पढ़कर जो महसूस हुआ था वह बाद में कुछ और में और इस वाली में बहुत शिद्दत से लगा।

    हिन्दी में उसके जैसे युवा व्यक्तित्व भी कम हैं भले 'वस्तु'निष्ठ विद्वानों पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता।

    जियो प्यारे,इसी तरह जियो प्यारे।

  10. शिरीष भाई
    अभी दुबारा टीप पढते हुए महसूस हुआ कि भावावेश में तुम पर उतर आया…

    उम्र और अनुभव दोनों में छोटा हूं तो सब आप वाली शैली में होना चाहिये था…क्षमा कीजियेगा।

  11. टिप्पणी करने वाले सभी दोस्तों को इस अभूतपूर्व प्रोत्साहन के लिए दिली शुक्रिया, हालांकि इस बात का कोई शुक्रिया हो ही नहीं सकता, तब भी….. . किसी कविता पर इतनी बात होना किसी भी कवि का हासिल होता है.
    @अशोक – प्रिय भाई मेरे जीवन और व्यवहार में "आप" जैसा न कभी कुछ था. न कभी होगा. "तुम" की आत्मीय गुनगुनाहट को बनाये रखो यार.
    @ तरव_अमित – अमित भाई आपने जिस भाषा प्रयोग का ज़िक्र किया, उसे मैंने कुछ हद तक जानबूझ कर किया है. कभी मिलने पर स्पष्ट करूंगा.

  12. मैं निःशब्द इस कविता की सुबह और कवि की संवेदना में चल रहा हूं- इस महातल के मौन में। आपके कवि का कंठ-स्वर कविता के ख़ास स्वर के साथ मिलकर ऐसा ऐकमेक हो गया कि क्या कहूं. …बधाई तो तत्काल लें ही. बाकी भूल-चूक लेनी-देनी बाद तफसील से आपकी किताब के बहाने लिखे जा रहे लेख में।

  13. कविता तो कविता , टिप्पणियों का भी जवाब नहीं. तक़्नीक़ को एक तरफ रखते हुए बात करूँ, इस कविता को बार बार पढ़ना चाहूँगा. ऐसी कविता बनने मे लम्बा समय लेती है, ऐसे बिम्ब लम्बे समय तक मन पर छ्प जाते हैं, इस कविता की जो खीज है, वही इस की ताक़त है. अर्से बाद कुछ पढ़्ने को मिला, जिस का आस्वाद आसानी से "समझ" (?)में आ गया. अच्छी कविता और क्या होती है?

    # क्या यहाँ "पुरानी फिल्मों की एक पसंदीदा श्वेत श्याम नायिका" की जगह "पुरानी श्वेत श्याम फिल्मो की एक पसंदीदा नायिका" नहीं होना चाहिए था ?
    मुझे भी ऐसा ही लगा. पर मूल वर्जन मे भिन्न ध्वनियाँ हैं, वो भी सही लग रहा है.

  14. कविता की अंतिम पंक्त्यिां, बिल्‍कुल अंतिम
    को पढ़कर याद हो आया,
    चलना कुछ ऐसे, जैसे कोई देखता हो मुझे।
    पूरी कविता बहुत अच्‍छी लगी।

  15. यानी सुबह किसी नए की शुरुआत नहीं.
    सिर्फ अर्द्ध-मूर्छा में पस्त करती स्मृतियों के बाद की थकान भर.
    कविता पर टिप्पणियों को देखकर मैं कह सकता हूँ की मेरी प्रतिक्रिया इनसे मिलती जुलती ही है हालांकि अगर पहले मैं देता तो इतना तरतीब से शायद नहीं कह पाता.

    व्यक्तिगत तौर पर एक और समृद्ध करने वाला अनुभव.

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