अनुनाद

छह दिसंबर पर व्योमेश शुक्ल की एक कविता

______________________
6 दिसंबर 2006

पहली और अंतिम बार
आज 6 दिसम्बर 2006 है
हमेशा की तरह

बच्चे प्रार्थनाएं और राष्ट्रगान हल्का बेसुरा गा रहे हैं
इसके बाद स्कूल बंद हो गए
एक प्रत्याशी दिशाओं को घनघोर गुंजाता हुआ कुछ देर पहले नामांकन करने
कचहरी गया है
हमेशा की तरह

एक व्यक्ति फोन पर हँसा बोला
गुटखा 1 रुपए का है आज भी
ख़रीदो खाओ
ठोंक पीट हवा इंजन बोलने रोने चिल्लाने की आवाज़ें हैं
हमेशा की तरह

पंखे और वाटर पम्प बनाने वाली एक छोटी कम्पनी
आज पहली और अंतिम बार ज़मींदोज़ हुई है
हमेशा की तरह
***

0 thoughts on “छह दिसंबर पर व्योमेश शुक्ल की एक कविता”

  1. आज़ाद हिंदुस्तान के सबसे बड़े इस साम्प्रदायिक विध्वंस पर शोक व्यक्त करने के बाद कहना ही होगा कि एक खराब कविता जो इस हादसे के बारे में कुछ बताने की जगह ये बताती लगती है कि इसका कवि कितना चमत्कारी है. माफ़ कीजियेगा शिरीष मौर्य जी पर आप जितने अच्छे कवि हैं उतनी अच्छी पसंद नहीं है आपकी.

  2. मित्रो समझिये एक बड़ी और उदास करने वाली घटना की स्मृति किस क़दर दिमाग पर तारी रहती है और जीवन के दूसरे पक्षों में कैसे एकमेक हो जाती है और तब हमारा बोलना या लिखना किस तरह उस एक घटना से अनायास ही, जी हाँ बिलकुल अनायास ही प्रभावित होने लगता है. क्रियाएं संकेत बन जाती हैं और मन उस बीते हुए के तलघर में कहीं खोने लगता है.यह जानना और मानना भी यहीं से शुरू होता है कि इस अँधेरे तलघर में विचार ही एक रौशनी है. उम्मीद है भीम सिंह जी के आगे मेरी खराब पसंद अब कुछ और स्पष्ट हुई होगी.
    @ अजेय- राम मंदिर के सन्दर्भ में "ज़मींदोज़" एक ख़ास अर्थ और भंगिमा का शब्द है. सोचो क्या क्या ज़मींदोज़ है वहाँ और फिर उसके बहाने ?

  3. अवांछित घटने की पीड़ा है तो अविस्मरनीय पर अफ़सोस… सदअफ़सोस… कि अयोध्या में भी साल ३६५ दिनों का ही होता है ; जिसमें "३० नवम्बर" और "६ दिसंबर" के अलावा भी तिथियाँ आती हैं | बत्ती , पानी ,सड़कें बस ,ट्रेन तथा ऐसी ही और भी चीजें हैं अयोध्या में! और इनसे जुड़ी समस्याएँ भी | लेकिन उफ्फ़ ! बलात्कार की शिकार लड़की की तरह एक गर्म खबर बन कर रह गयी है अयोध्या | जिंदगी की तमाम बुनियादी सुविधाओं से महरूम अयोध्या एक मुद्दा भर है अब……..याद आते हैं "मजाज" जो झुँझलाकर कह रहे हैं —
    "अहले-बातिन इल्म से सीनों को गर्माते रहे ,
    मस्जिदों में मौलवी ख़ुत्बे सुनाते ही रहे , "
    लेकिन…
    "इक न इक दर पर जबीने-शौक घिसती ही रही ,
    आदमीयत जुर्म की चक्की में पिसती ही रही |"
    सो , हे भाई ! आइये ,और देखिये-जानिए समाचारों से बाहर की अयोध्या को फिर लिखिए….आइये…..

  4. आज पढ़ी यह कविता…सच कहूं तो भाषाई चमत्कार के सहारे रची यह असम्बद्ध सांकेतिका मुझे रुदाली प्रलाप की तरह खोखली और अर्थहीन लगती है…

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top