आज से कई बरस पहले जब यतींद्र मिश्र ने एक बहुत अच्छी और खुली पत्रिका सहित शुरू की थी तब उसके दूसरे या तीसरे अंक में (शायद अक्टूबर 2001 में) यह पाठ पहली बार प्रकाशित हुआ था। अनुनाद पर कुछ समय पहले प्रकाशित काव्य-कथा बोरहेस और हिमालया लिखने के बाद जब मैंने अपनी बयाज़ों को टटोला तो वहाँ दो ऐसे पाठ मिले जो ऐन वही चीज़ थे जिसे काव्य-कथा कहना शुरू किया है मैंने। ‘पदयात्रा के पद’ के अलावा दूसरा टैक्स्ट ‘वनवास’ था जो पूर्वग्रह में उन्हीं दिनों प्रकाशित हुआ था।
मेरे शहर बीकानेर से साठ कोस की दूरी पर रामदेवरा है, विख्यात/कुख्यात पोखरण की बगल में। वह रामदेवजी या रामसा पीर का स्थान है। हमारे जैसे लोग रामदेवजी को को कम्पोजिट कल्चर का बेमिसाल नमूना मानते हैं पर ज्यादातर लोग एक ऐसा देव या पीर जो उनके दुख दूर करेगा, उनकी दुआएँ सुनेगा। कोई सरकार या एक्टिविस्ट या क्रांतिकारी उन तक पहुँचे या ना पहुँचे वह उन तक जरूर पहुँचेगा। अपने देवों, भगवानों से भारतीयों का संबंध खासा ‘भौतिकतावादी’ रहा है – जो देव कोई काम न करे, ‘परचा’ न दिखाये वह लोकप्रिय नहीं हो सकता। लाखों की तादाद में लोग एक वार्षिक मेले के लिये कई राज्यों से आते हैं। कई कई दिनों तक पदयात्रियों के जत्थे और राह में उनकी देखभाल करने वाले दस्ते शहर से निकलते हुए दिखते रहते हैं। पदयात्रा करने वाले साधनहीन हो यह भी जरूरी नहीं।
मेरे घर में दादी सबसे कट्टर धार्मिक रही हैं, परले दर्जे की ‘वैष्णव’- कुछ ऐसी कि वैष्णव की गाँधीजी वाली व्याख्या सुना दें तो छि छि करते हुए नहाने चली जाये। उधर मेरे नाना रामसा पीर के भक्त। कलकत्ते से हर साल आते सिर्फ उन्हीं के सपरिवार दर्शन के लिये। सपरिवार याने उनके बेटे- बेटियों, भाई-बहनों के परिवार; एक बस भर जातरी लेकर वे निकलते। दादी काफ़ी नीचा समझती हमारे नाना को, हमको और हमारे देव को भी। नाना के कराये हुए बचपन के उस धार्मिक पर्यटन की याद में, उनके निर्विकल्प रूप से आस्थाहीन दोहिते की ओर से यह कथा खुद उनकी याद के भी नाम। ज्यादातर बस की खिड़कियों से देखे हुए, अपनी असहायता और आस्था में तत्क्षण अकेले और जत्थेदार वे पदयात्री अब नाना की तरह ही अचानक याद आ जाते हैं और किसी ऐसी जगह खड़े खड़े रुला देते हैं जहाँ तमाशबीन इसी मौके के इंतज़ार में होते हैं कि इधर आप रोयें और उधर वे ठहाका लगायें।
– कवि
पदयात्रा के पद
एक
*उनके साथ यात्रा करने की सोचते हुए आप अनुमान करते हैं कि वे किसी अनोखी आस्था से नहीं, किसी प्राचीन धार्मिक भाव से नहीं, चमत्कार के आश्वासन से नहीं, किसी अप्रकाशित दुख से संचालित हैं लेकिन उनके साथ थोड़ी यात्रा करते ही उनको सुनने पर आपको लगेगा कि वे अपने जीवन में सिर्फ यह उत्सवी यात्रा करते हुए ही जैसे उत्साह के परिचित होते हैं, कि उनका जीवन लगातार किसी इस या उस ईश्वर के हाथों प्रताड़ित है और यह या वह ईश्वर ही उसका उपचार कर सकता है, कि कोई न कोई मुश्किल आस्मां बनकर उनके सर पर तनी रही और ऐसा कोई वक्त न रहा जब आस्मां सर पर तना न था, कि इस या उस और खासकर इसी ईश्वर ने उनकी नहीं सुनी जिसकी तरफ उनके ये कदम बढ़ रहे हैं।
कि इस तरह वे अपनी मुश्किलों का लाचारी का, दुख का बयान इतना करते हैं कि वह एक प्रकाशित दुख हो जाता है और आपको उन पर एक अटपटी सी दया आती है और आपके चेहरे पर दया को देखते ही वे आपको अपने साथ से बेदखल कर देते हैं, आप उन्हें नहीं समझा पाते कि दुख के बयान सुनकर दया ही आती है और आपको इस बात से राहत महसूस होती रही है कि आपको अब तक दुख का कोई बयान सुनकर दया आती है
मुझे भी इन पदयात्रियों पर दया ही आती है पर दया करने जितना समर्थ क्योंकि मैं कभी नहीं रहा यह एक अप्रकाशित दया हो कर जाती है, क्या एक अप्रकाशित दुख और ईश्वर के बीच वही रिश्ता होता है जो एक अप्रकाशित दया और प्रकाशित दुख के बीच होता है ?
यदि आपको अब तक उन्होंने अपने साथ से बेदखल नहीं कर दिया है तो आप आखिरी कोशिश कर सकते हैं, यह साठ या अस्सी या सौ कोस लम्बी यात्रा इनके साथ कर लीजिए, शायद आप इनके उस अप्रकाशित दुख को देख, छू या जान पाएं जिसका अनुमान आपने किया था क्योंकि मुझे विश्वास है कि अपना दुख लगातार इतना कहने, इतना प्रकाशित करने के बावजूद उनके भतीर ऐसा कोई दुख है जरूर
हाँ, एक तरीका है उतना ही मुश्किल जितना आसान
आप उनके सामने, सपने में या सचमुच इस या उस ईश्वर के भेस में चले जाइये
जरा जल्दी कीजिए।
कल शाम तक तो वे इतनी दूर निकल चुके होंगे कि आप उन्हें कभी पकड़ नहीं पायेंगे।
दो
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वह अपने पैरों की नहीं सुनती
वह अपने पैरों की नहीं सुनती
हम अक्सर अपने पैरों की नहीं सुनते जब तक कि वे दुखने नही लग जाएँ
पैर हमें बताना चाहते हैं उन यात्राओं के बारे में जिन्हें हमें न चाहते हुए भी करना पड़ा था, उनके बारे में भी जिन्हें हम या तो भूल चुकते हैं या भूलना चाहते हैं, उन जगहों के बारे में जहाँ जाने की हमारी इच्छा अब तक पूरी नहीं हुई – यात्रा की ही नहीं हमारी सारी इच्छाएँ जैसे पैरों को पता होती हैं, इच्छाओं का निवास भले ही मन जैसी कोई जगह है लेकिन उनकी साँस पैरों में रहती है
‘तुम पैरों में कुछ पहना करो कि तुम्हारी मौजूदगी की आवाज़ दोगुनी सुनाई दे, तुम पैरों में कुछ इसलिए भी पहना करो कि बाद में कभी तुम्हारी गैर-मौजूदगी की आवाज़ भी दोगुनी सुनाई पड़े’
अब मैं उसकी गैर-मौजूदगी की दोगुनी आवाज़ सुनता हूँ
वह भी अगर अपने पैरों की सुनती, क्या यूँ मुझे अपने साथ से बेदखल करती?
तीन
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पदयात्रियों से ज्यादा अपने पैरों को कोई नहीं सुनता
पदयात्रियों से ज्यादा अपने पैरों को कोई नहीं सुनता
हममें से कोई जब उन्हें गिनकर बताता खासकर किसी वृद्ध यात्री को कि वह अपने जीवन में इतने हजार कोस चल चुका है तो वह कहता है कि मेरे कदमों को गिनकर बताओ तो सचमुच थकान का कोई अंदाजा हो, वह कहता यह गिनना इतना आसान नहीं इसमें थकान और इच्छा, उम्मीद और नाउम्मीद, नींद और बेहोशी को जोड़ दो
आप भी अगर उनके पैरों को सुने तो वे शायद आपको अपने साथ से कभी बेदखल न कर पाएँ
चार
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पदयात्रियों के किस्से भी उनके पैर सुनाते हैं। वे जब बोलते हैं तो लगता है उनके पैर बोल रहे हैं, उनके किस्सों में न चाहते हुए भी चमत्कार के कई प्रसंग प्रकट होते हैं जैसे वे पूरे यकीन से आपको बतायेंगे कि जन्मजात कोई अपाहिज पचास फीट की ऊँचाई से बावड़ी में कूदा और निकलकर अपने पैरों पर चलता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ गया
पदयात्रियों के किस्से भी उनके पैर सुनाते हैं। वे जब बोलते हैं तो लगता है उनके पैर बोल रहे हैं, उनके किस्सों में न चाहते हुए भी चमत्कार के कई प्रसंग प्रकट होते हैं जैसे वे पूरे यकीन से आपको बतायेंगे कि जन्मजात कोई अपाहिज पचास फीट की ऊँचाई से बावड़ी में कूदा और निकलकर अपने पैरों पर चलता हुआ सीढ़ियाँ चढ़ गया
उनके लिए इससे बड़ा चमत्कार कोई नहीं कि पैर सलामत रहें
पाँच
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उनके हाथों में फहराती ध्वजाएँ कभी उनके हाथों का तो कभी उनके पैरों का विस्तार हो जाती हैं
उनके हाथों में फहराती ध्वजाएँ कभी उनके हाथों का तो कभी उनके पैरों का विस्तार हो जाती हैं
‘हाथों और पैरों में कोई रिश्ता नहीं, हाथ किसी भी यात्रा में नहीं थकते और सबसे बड़ी नेमत ये है कि हाथ छू सकते हैं पैर कुछ भी छू नहीं सकते, वे सिर्फ छुए जा सकते हैं’
वे छूने के प्रति इतने शंकित हो उठते हैं कि कभी-कभी अपने हाथों से कभी कुछ नहीं छूते सिवाय उस इच्छा के जिसकी साँस उनके पैरों में रहती है
आप ध्वजाओं को छुएँ, उनके साजो सामान को छुएँ तो अपने हाथ काम में ले सकते हैं, लेकिन यदि आप अभी भी उस अप्रकाशित दुख को छूना चाहते हैं तो पैरों से छूकर दिखाइए
इससे बड़ा चमत्कार आप इपने इस जीवन में कभी नहीं कर पायेंगे
यह और बात है उन्होंने चमत्कार करने की यह कोशिश देख ली तो वे आपको अपने साथ से बेदखल कर देंगे
और आखिरी बात
उनके पैर मत छुएँ, इससे ज्यादा उन्हें कुछ भी दुखी नहीं करता
छह
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उनके इस या उस किसी भी ईश्वर का कोई भी भेस मैंने तो कभी देखा या बनाया नहीं। उनके किसी स्थान या दरगाह तक मैं तो कभी गया नहीं
उनके इस या उस किसी भी ईश्वर का कोई भी भेस मैंने तो कभी देखा या बनाया नहीं। उनके किसी स्थान या दरगाह तक मैं तो कभी गया नहीं
इतना सुना है पीर, फकीर, ईश्वर, देवता जैसे शब्द उनके मन में एक ही जगह रहते हैं
लेकिन वही रात को अपनी मरहम-पट्टी करते हुए कहेंगे कि उनका ईश्वर उनके पैर हैं
सात
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मैं और वह एक सपने में उनके पैरों की आवाज़ सुन रहे हैं, हम उस बावड़ी में कूदने ही वाले हैं जिसमें कूदकर उस अपाहिज को अपने पैर मिल गए थे, शायद हमार रिश्ते के भी पैर नहीं थे, हम सपने में चमत्कार के उनके किस्से पर शायद उनसे भी ज्यादा यकीन करते हुए उस प्राचीन पानी को कूदने से पहले आखिरी बार देख रहे हैं
माफ़ करें इस सपने में मैं आपकी यात्रा के बारे में भूल चुका हूँ
क्या हमारे कूदते ही आप भी उनके उस अप्रकाशित दुख को पैर से छू लेंगे जिसका अनुमान आपने बिल्कुल शुरू में किया था?
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ये कविता लिखने का नया ट्रेंड है. इस कविता को पढ़कर लगा ये पदयात्रियों से शुरू हो कर कवि के भीतर समाप्त होती है. अंत में एक रिश्ते की बात है जिसके पैर नहीं और जिसकी पहचान खोजने वो युगल चमत्कारी बावड़ी में कूदने वाला है – यहाँ आ कर अनुभव होता है कि कविता कितनी बातों को समेट रही है. शिरीष जी आप अनुनाद में कविता के नए नए रूप खोज रहे हैं और हमारा उनसे परिचय करा रहे हैं, इसके लिए आपका धन्यवाद. गिरिराज किराडू जी को मैं बहुत सारी बधाई देना चाहूंगी. उनकी कविता बहुत अच्छी और दिल को छूने वाली है. क्या किराडू जी का संग्रह प्रकाशित है, कृपया इस बारे में बताएँ. उनकी और कविताएँ पढने का मन है.
रागिनी जी – कागज़ पर छपी हुई गिरिराज की किताब का इंतज़ार तो हम भी कर रहे हैं. मगर फिलहाल, उनकी कविताएँ,अनुवाद,काव्य-कथाएँ वगैरह वगैरह इन्टरनेट पर उनकी पहली किताब सारी दुनिया रंगा में आपको मिल जायेंगी.
हाँ, इतना सा समझ सकता हूँ. इस से ज़्यादा नहीं.संदर्भ के बिना तो इतना भी नहीं. तल्ख ज़ुबान जी, आप बनें हैं कि अंतर्ध्यान हो गए फिर से ?
अजेय जी मैं बना हुआ हूँ. आप खिन्न क्यूँ हैं मुझसे – मैंने पिछली बार सिर्फ आपकी टिप्पणी का जवाब दिया था, हाँ तल्ख़ी मेरे स्वभाव में है और उसके लिए मैं आपसे मुआफी तलब करता हूँ.
गिरिराज किराडू जी की कविताएँ पढता रहा हूँ. आम तौर पर वे मुझे अच्छी लगती रही हैं. ये "कविता" भी भाई- हालांकि कवि इसे "काव्यकथा" कह रहा है पर मैं कविता कहूँगा. (कहीं काव्यकथा शिरीष जी तो नहीं कह रहे? शायद नहीं!) कविता की शुरूआत देखिये कितनी सुलझी हुई- वे पदयात्री किसी धार्मिक विश्वास से नहीं, चमत्कार की उम्मीद में नहीं- अपने किसी अप्रकाशित दुःख से संचालित होते हैं. हमारे देश में कितना तो धर्म है – कवि उसके पार देख रहा है -जहाँ दुःख हैं, तकलीफ़ें है, मुश्किलें हैं, लाचारी है, ज़िन्दगी की थकान से चूर पैर है, और कहीं प्रेम है – जो कविता में अचानक शामिल होता है, अंत तक बने रहने के लिए.
दरअसल यह एक कठिन कविता लगती है मुझे. यह एकबारगी सरल लग सकती है पर बार बार पढ़िए तो कई अर्थ खुलते हैं. एक बड़े कैनवास पर बना चित्र है यह पिकासो की बड़ी ब्लैक एंड व्हाईट पेंटिंग्स की तरह- वैसा ही इसका प्रभाव.
देख रहा हूँ शिरीष जी की दृष्टि अपने समय की काव्य रूढ़ियों से बहुत आगे जाती है (उनकी अपनी कविताओं में भी और उनके द्वारा चयनित कविताओं में भी), जो बहुत ख़ुशी की बात है- वे जिस एप्रीशियेशन के साथ व्योमेश शुक्ल और गिरिराज किराडू जैसे कवियों को छापते हैं उससे एक विश्वास मिलता है कि हिंदी कविता किसी छत के नहीं, खुले आसमान के नीचे लिखी जा रही है. उम्मीद है मेरी आज की टिप्पणी से किसी को ठेस नहीं पहुंचेगी. मेरी पिछली टिप्पणी में मेरी पहचान या नाम पर सवाल उठाये गए थे, सवालियों से निवेदन है की मेरा प्रोफाइल देख लें. व्योमेश शुक्ल वाली पोस्ट में लोग आपस में झगड़ पड़े थे, आशा है इस बार कविता पर झगड़ेंगे
( आपके मन की बात कह दी न शिरीष जी अंत में मैंने -:)
बहुत ही बेहतरीन कथा है। गिरीराज जी ने भाषा का बेहतरीन बर्ताव किया है।
@ तल्ख़ ज़ुबान – प्रिय संजीव शर्मा जी आपका नाम जान कर अच्छा लगा. इसी नाम के मेरे एक परिचित होते थे कभी जो पंतनगर विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक थे अब शायद दिल्ली में कहीं होल टाइमर हैं. आपने गिरिराज की कविता पर अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है. इतनी लम्बी-विस्तृत टिप्पणी कभी रंग किया करता था अनुनाद पर आजकल वो शायद व्यस्त रहता है. रंग से भी कविता पर वैचारिक गद्य का अनुवाद करने का अनुरोध किया है मैंने- जो संभवतः जल्द ही पूरा हो जाये. अजेय से आपका संवाद शुरूआती तल्खी के बाद अब रचनात्मक होता जायेगा. आपको बताना चाहूंगा अजेय ख़ुद भी एक समर्थ कवि है. उसकी कविता हिंदी में एक नया भूगोल ले कर आई है. कभी उसके ब्लॉग पर जाइएगा.
कभी मन करे तो आप भी अनुनाद के लिए किसी कविता पर कोई लम्बी टीप लिखिए.
@ रागिनी – भारत ने आपको गिरिराज के रचना संसार की राह बताई है, उस पर जा कर देखिये. पुस्तक रूप में गिरि के संग्रह का इंतज़ार हम सभी को है. हिंदी में प्रकाशन तंत्र इतना अजीबोगरीब है कि क्या कहा जाये ! हम आशा करते हैं कि हमारे इस प्रिय कवि की किताब जल्द हमारे संग्रह में आये.
मुझे इसे कविता कहना ज्यादा सहज लग रहा है.रामदेवरा में भी अंततः चरण पूजा ही होती है.
पश्चिमी राजस्थान में वैष्णव शब्द विशिष्ट अर्थ लिए है जिसका सम्बन्ध वल्लभाचार्य के पुष्टि मार्ग से है जो पूजा और पुजारी तंत्र के जटिल सोपानक्रम के कारण कट्टर हो गया था,और तथाकथित कमतर भगवानों के भक्तों के लिए यहाँ कोई जगह नहीं बची.यद्यपि इसका वार्ता साहित्य इससे भिन्न और रोचक पाठ उपलब्ध करवा सकता है.कवि की टिप्पणी बताती है कि चमत्कारों की भौतिक जीवन में तीव्र इच्छा समाज को व्यापक रूप से पदयात्रा की और मोड़ती रही है.
कविता के कई अंश इस विराट सालाना पदयात्रा और संगमन के मर्म को छूते हैं.
शिरीष कुमार मौर्य जी!
पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा!
आपको जन्म-दिन की शुभकामनाएँ!
# तल्ख, भईया , वक़्त नहीं है. ज़रूरत पड़ने पर प्रोफाईल भी देख लेंगे. हम तो जो बात आप कहना चाह रहें हैं, उस में इंटेरेस्टेड हैं.पर सामने आ कर कहॆं तो! ऐसी भी क्या मज़बूरी ? चलिए माना कि कोई मज़बूरी है, तो कोई बात नहीं. पर जो मज़बूर नही है और एकदम सामने खड़ा है, उस से यह सवाल तो नहीं करना चाहिए कि आप कौन हो? जो खुद छिपा हो उसे तो क़तई नहीं . मैं खिन्न आप से नही हूँ आप की कमज़ोरी से हूँ.इस बार तो फक़त आप के उस सवाल का जवाब दिया था कि " आप की समझ में क्या आता है?" आखिर हम सब यहाँ कुछ न कुछ बाँटने आये हैं.कि ये जीवन थोड़ा और बेहतर हो पाये. तो सरे आम क्यों नहीं.c' mon , i love talkhee,but only the fearless one. आखिर एक ही ज़िन्दगी मिलती है हमें, अपना एजेंडा तो हम खुद तय करें कम से कम. एक बुद्धिजीवी क्यों संचालित हो बाहरी ताक़तों से ?
बहर हाल किराड़ू जी की कविताएं तो मुझे भी समझ आ गई थीं .आप ने इस का खुलासा(व्याख्या) कर दिया, आभार. व्योमेश की उस कविता पर भी ज़रा सप्रसंग टिप्पणी कर दीजिए. सादर.
आवेश का आदेश मान कर मैंने 'आज में आज के कबूतर' वाली पंक्तियाँ बार बार पढ़ी.सोचा था राम का मरा जैसा कोई इफेक्ट पैदा होगा. येह मंत्र शक्ति भी नही चली.उधर एक भाई को पता नहीं कैसे इंट्यूशन हो गया, सहाय जी के तोते याद गए. मैं झॆंप कर रह गया.
#शिरीष , ये प्राणी मुझे निरा तल्ख ही नही, दूसरों के झगड़े का रस लेने वाला भी लग रहा है.dekhie n inhe aashaa hai ki ham jhagaD_e^ge. kavitaa par hee sahee. पर खुशी इस बात की है कि जनाब हिन्दी साहित्य जैसी दक़ियानूस होती चली जा रही चीज़ में नवाचारों/ प्रयोगों के पक्ष मे खड़े हैं.
दूसरी बात , आप ने व्योमेश की कविता बिना संदर्भ के डाल दी. ( रघुबीर सहाय ?)
@सबः प्रतिक्रिया व प्यार के लिये आभार।
मित्रो मैं इस अवसर का (गलत) फायदा उठाकर एक दो बातें कहना चाहता हूँ।
(1)
हिन्दी में यह खराब है, वह खराब है, यह भी खराब है, वह भी खराब है का रोना सब रोते हैं और वह रोना बहुत सारे मामलों में बेजा गर नहीं है तो भी सवाल ये हैः हम क्या कर रहे हैं? बहुत सारी युवा प्रतिभाएँ लिख तो सचमुच अच्छा रही हैं लेकिन हिन्दी सत्ता और सत्ताधीशों का अनुगमन,उनके साथ मैनुपुलेशन ऐसी व्यावसायिक दक्षता के साथ करती हैं कि दुख होता है। ये युवा प्रतिभाएँ जॉर्ज बुश का, बाल ठाकरे का किसी का भी विरोध कर सकती हैं (जो जैसा एक समकालीन बनारसी कवि ने कहा है सचमुच बहुत आसान है!) लेकिन अपने साहित्यिक गॉडफादर/रों, बॉसेज का नहीं। हमारा परिदृश्य सिर्फ अच्छा लिखने से नहीं बदलेगा। याद रहे अच्छा लिखने वाले लेकिन अपने (और अधिकतम अपने दोस्तों-बिरादरानों के) लिखने, छपने, छाने, पीने, पाने से अधिक की चिंता न करने वाले हमेशा से रहे हैं। जब तक नौजवान साहित्यिक एस्टैबलिशमेंट से सर्टिफिकेट पाने और बदले में उस एस्टैबलिशमेंट को मजबूत करने और अंततः दस-बीस साल में खुद एस्टैबलिशमेंट बनने के 'एजेंडे' पर रहेंगे, अच्छा लिखना बहुत होगा लेकिन हिन्दी के बारे में रोना जारी रहेगा। शिरीष जैसे आज़ाद तबियतों की बड़ी किल्लत है।
इसी सिलसिले में, यह इंटरनेटी दुनिया बहुत लोकतांत्रिक और जनवादी है, खुली हैः यहाँ ओपिनियन मैनुफैक्चर नहीं की जा सकती। हमें इसे जहाँ तक हो सके प्रिंट दुनिया की उन सब चीज़ों से बचाने की कोशिश करनी चाहिये जिनकी वजह से रोना हिन्दी लेखकों का स्थायी भाव बना हुआ है।
रागिनीजी जैसे पाठकों से क्षमा चाहता हूँ, इस 'विषयांतर' के लिये।
(2)
अनुनाद पर कविता पर बात हो इसके लिये सबको कोशिश करनी चाहिये। सबसे ज्यादा हमारे जैसे लोगों को जिनकी अपनी कविताएँ यहाँ बारबार छपती हैं। और अनुनाद के लिये लिखना है ऐसा सोचकर लिखना होगा। हिन्दी में इंटरनेट को प्रिंट माल का डम्पिंग ग्राउंड समझने की आदत से भी हमें जूझना होगा। लिखने की ‘पूरी कीमत’ वसूलने के चक्कर में हम जब कुछ फ्रेश लिखते हैं तो किसी तद्भव या ज्ञानोदय या बहुवचन की तरफ भागते हैं – पैसे (वो प्रिंट में भी कहा हैं! राजकमल प्रकाशन की पत्रिका आलोचना ने पिछले दिनों मेरी दस कवितायें छापी और दो सौ रूपये का चैक, कृपापूर्वक, भेजा) और सर्कुलेशन (जो इंटरनेट का कहीं ज्यादा हैः प्रभात रंजन की कहानी को प्रतिलिपि पर तीन हजार लोग पढ़ चुके हैं) से ज्यादा वहाँ भी यह सोच काम करता है कि ज्यादातर सत्तापुरूष इंटरनेट पर नहीं हैं या उसे दोयम मानते हैं।
जहाँ तक हिन्दी प्रकाशन तंत्र का सवाल है उसके बारें में मेरी राय वैसी ही है जैसी हिन्दी के सत्तापुरूषों के बारे में जिनके बिना यह प्रकाशन तंत्र वैसा नहीं होता जैसा वह है। हिन्दी सत्तापुरूषों ने वैकल्पिक प्रकाशनों की पहल नहीं की। यह काम तरक्कीपसंद तहरीक से जुड़े ‘पैदल सिपाहियों’ के अलावा बहुत कम किसी ने किया। और हमने क्या सुलूक किया उन शानदार सिपाहियों के साथ! वे लोग ‘छोटे’ स्तर पर पत्रिकायें निकालते रहे और हमने हर कोशिश की वो ‘छोटे’ स्तर पर ही बनी रहे। हमने उन लोगों को इस बेरहम व्यवस्था में शहीद होने के लिये छोड़ दिया और खुद ‘बड़े’ प्रकाशनों से छपते रहे, उनको और बड़ा बनाते रहे, उनसे ‘पारिवारिक’ संबंध बनाते रहे।
लेकिन मेरी इस राय का कोई ‘व्यक्तिगत’ कारण नहीं है। मैंने अब तक पाँडुलिपि ही नहीं बनाई है। जैसे अपने समाज में होता है, जब तक बड़े की शादी न हो जाये, छोटे शादी नहीं करते। मेरे प्रिय और प्रेरक कवि प्रभात की किताब जब तक नहीं आयेगी मैं पाँडुलिपि नहीं बनाऊंगा। इस बात को लेकर हमेशा संतप्त रहता हूँ कि उस जैसे कवि की तरफ ध्यान नहीं गया है। इन दिनों उसकी पाँडुलिपि बना रहा हूँ। उसके कहने पर। फिर शायद अपनी।
@संजयजी: वैष्णव से मेरा तात्पर्य एक खास तरह की ‘एवरीडे वैष्णव प्रैक्टिस’ से ही था। परंपराओं को मैं ग्रन्थों के आधार पर नहीं ऐसी एवरीडे प्रैक्टिसेज के आधार पर ही जानता-समझता रहा हूँ। कोई भी ‘महान’ सिद्धांत या ‘महान’ परंपरा महान आचरण की गारंटी नहीं होते – खराब आचरण के डिफेंस का जरिया जरूर होते हैं बाजदफा। इसके उदाहरणों की हमारे बुद्दिजीवन में कोई कमी नहीं।
गिरिराज भाई ,आपका लिखा पहली बार पढ़ा,और पढ़ते पढ़ते लगन बदती गयी ,शायद इसलिए की ये fiction नहीं था ,इस्म ेज़िंदगी की खुशबू है,जैसा की यन्न मार्टेल ने अपनी किताब "लाइफ ऑफ़ पी " की preface में लिखा है की वो पूरी दुनिया में घूमते रहे,और अनगिनत किस्से सुने लेकिन उन्हें ज़िन्दगी की खुशबू नहीं मिल रही थी किसी भी किस्से में ,अंततः उन्हें Pi Patel की कहानी मिली जो उन्होंने किताब के रूप में लिखी,इसी को booker prize़े भी मिला,और अब M.Night Shyamlan इस पर फिल्म भी शुरू करने जा रहे hai.क्या पता किस विधा में आपने ये सब कुछ लिखा है,लेकिन जो भी है "ज़िन्दा " है !!पता नहीं क्यों लेकिन पड़ते -पड़ते गोल्डी आनंद वाली "Guide" आँखों के सामने आने लगी,उसमे जब धुप और अकाल से बेहाल रोज़ी और raju guideे की माँ आकर,उसके पैर छूती है और वो कहता की"पैर मत chuo"तीन सच्चाइयाँ–राजू की,रोज़ी की,राजू की माँ की–और गाँव वालो का विश्वास …ये सारी जानकारी होने के बावजूद –निर्देशक ने बताया की १४ दिन बाद बारिश हुई –और मैंने भी सारी सच्चाइयाँ जानने के बाद भी माना की बारिश हुई—कोई कनेक्शन नहीं आपके लिखे और उस फिल्म में लेकिन मेरेदिमाग के 70 MM ने वही फिल्म दिखाई आपका लिखा पड़ते हुए.enjoyed.