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एक पुरानी पोस्ट को फिर से लगा रहा हूँ दोस्तो…….
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अपनी कविता पर टिप्पणी करने के कई जोखिम हैं। कुछ दोस्त नाक-भौंह सिकोड़ते हैं कि कविता अपने आप ही रास्ते नहीं दिखाती तो वह कविता क्या, यानी टिप्पणी की ज़रूरत ही क्या? मुसीबत यह कि अकसर जीवन में जन या लोकपक्षधरता से मीलों दूर रहने वाले लोग साहित्य-कर्म से यह मांग करते हैं कि वह सबके पढ़ने और समझने लायक होना चाहिए। तो क्या हर वैचारिक तत्व हर किसी के पल्ले पड़ सकता है? ऐसा हो तो इससे अच्छा क्या? पर ऐसा होता नहीं है। न केवल दुनिया के अधिकतर लोग अनपढ़ हैं, जो पढ़े-लिखे भी हैं उनकी महारत अलग-अलग विषयों में है। कविता की अपनी बौद्धिक दुनिया है। कविता भी वर्षों की साधना मांगती है। चूंकि कविता में मूल बात संवेदना है और कम से कम आधुनिक काल के बारे में कहा जा सकता है कि मानव संवेदना के अनन्त धरातलों में जीता है, इसलिए कविता से कोई एक निश्चित अर्थ की मांग रखना ग़लत है। मैं मानता हूं कि मेरे वैचारिक पूर्वाग्रह मेरी कविता में अभिव्यक्त होते हैं, पर चूंकि मैं जीवन में कोई निश्चित राह नहीं ढूंढ पाया हूं इसलिए मेरी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति भी निश्चित नहीं है।
कई दोस्तों को इस बात से नाराज़गी है कि मेरी कविता में बौद्धिक तत्व हैं। मैं समझता हूं कि ऐसी बातें, जो आम लोगों के समझ में आ जाएं और उनमें बौद्धिक तत्व न हों, किसी काम की नहीं। हां, यह ज़रूरी ज़रूर है कि जो कहा गया, उसे सरल ढंग से कैसे कहा जाए? पर इक्कीस क्लासें पढ़कर भी अगर साहित्य कर्म में मैं कोई बौद्धिक तत्व न ला पाऊं तो लानत है मुझ पर और मेरे अध्यापकों पर !
मसलन पंद्रह साल पहले की एक बहस को लें, जो जनविज्ञान कार्यकर्ताओं की एक सभा में हुई। मेरे कहने पर एक सत्र ” मध्यवर्ग के सामाजिक कार्यकर्त्ता का विभाजित व्यक्तित्व” पर रखा गया। बहस पुरजोर थी। गांधीवादी और वामपंथी कार्यकर्ताओं के बीच खींचातानी चल रही थी। जब मैं पर्याप्त रूप से ऊब चुका तो जेब से पाकेट डायरी निकाल कर देखने लगा, जिसमें हर पन्ने पर दो दिनों के लिए जगह थी। हर दिन की जगह के नीचे उस दिन हुई घटनाओं के बारे में जिक्र था। मैंने ग़ौर किया कि तेईस अक्टूबर का वह दिन औरंगज़ेब का जन्मदिन था, उस दिन सुभाषचंद्र बोस ने आज़ाद हिंद फौज की स्थापना की थी और उसी दिन लेनिन से ज़ारशाही के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का ऐलान किया था। मुझे लगा कि यह अद्भुत बात है उस दिन हम बहस में शामिल थे। मैंने सबको रोका और उस दिन के बारे में बताया। बहस रुकी, फिर चली और आखिरकार शाम को हम छोटे-छोटे गुटों में इधर उधर हो गए। उन दिनों समाज विज्ञान के हलकों में फुकोयामा के `इतिहास के अंत´ पर चर्चा जोरों पर थी। मैंने सोचा कि इतिहास का बनना महज एक यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है। और अगर मार्क्स ने इतिहास के यांत्रिक नियमों को देखा भी, तो यह तो हर कोई जानता है कि मनुष्य की पीड़ा मार्क्स के चिंतन के केंद्र में थी। मुझे लगा हर कोई इतिहास के निर्माण की प्रक्रिया में जुटा है, जैसे उस दिन हम लोग अगम प्रसाद शुक्ल की पहल पर एक इतिहास बना रहे थे। अचानक मुझे लगा कि मानव का बौद्धिक कर्म कितना अद्भुत है। कैसे बेहतर दुनिया के सपने देखते, एक दूसरे से प्यार करते हुए हम लगातार इतिहास बनाते हैं। मैंने ये बातें उस दिन डायरी में लिखीं –
उस दिन हम लोग सोच रहे थे अपने विभाजित व्यक्तित्वों के बारे में
रोटियों और सपनों की गड़बड़ के बारे में
बहस छिड़ी थी विकास पर
भविष्य की आस पर
सूरज डूबने पर गाए गीत हमने हाथों में हाथ रख
बात चली उस दिन देर रात तक
जमा हो रहा था धीरे -धीरे बहुत-सा प्यार
पूर्णिमा को बीते हो चुके थे पांच दिन
चांद का मुंह देखते ही हवा बह चली थी अचानक
गहरी उस रात पहली बार स्तब्ध खड़े थे हम
डायरी में तेईस अक्टूबर का अवसान हुआ बस यहीं पर
`चांद का मुंह´ हमें मुक्तिबोध से जोड़ता है जो हमारी कविता के इतिहास में एक बहुत बड़ा पड़ाव है। यह कविता मेरा फुकोयामा के खिलाफ प्रतिवाद है, जिसे मैंने इस तरह से लिखा। कुछ साथियों को इससे आपत्ति है कि ऐसे लेखन में वैचारिक प्रतिबद्धता है। यह उनको मुबारक कि वे नहीं जानते कि कुछ भी कहा जाए, कैसे भी कहा जाए, वैचारिक प्रतिबद्धता हर बात में है। कभी वह यथास्थिति के पक्ष में है, कभी ख़िलाफ!
कविता तो कविता तब है, अगर इसमें पीड़ा है। अगर नहीं है तो यह कविता नहीं है। यह पीड़ा प्यार की पीड़ा है। यह चर-अचर हर किसी से प्यार की पीड़ा है। पूंजीवाद के पक्ष में इतिहास का अंत घोषित करनेवाले फुकोयामा बाज़ार को मानव के भाग्यनिर्माता के रूप में देखते हैं। बाज़ार में खरीदने-बिकने की सामग्री तो होती है, पर प्यार नहीं होता।
बहरहाल, समाज से जुड़ने के मेरे अपने तरीके हैं। वैचारिक प्रतिबद्धता की घोषणा के लिए मैं कविता नहीं लिखता। कविता तो इसलिए लिखता हूं कि कविता लिखने का मन करता है। वह दूसरों को कैसी लगी, यह उनकी बात। सही है, हर कोई क्यों किसी की कविता पढ़े? यह मांग कोई कवि नहीं कर सकता कि हर कोई उसके लिखे को पढ़ने-सुनने लायक कविता कहे। यह तो कविता के संसार में सक्रिय लोगों की जिम्मेदारी है कि वे पहचानें क्या ठीक लिखा जा रहा है और क्या नहीं? कहां नया मुहावरा गढ़ा जा रहा है, कहां नहीं?
कविताएं
वही चौराहा
वही चौराहा है
एक कोने पर आकर मुड़कर देखता हूं
देखता ही रहता हूं
गाड़ी, बस, स्कूटर, आटो
विश्व के तमाम चलमान यंत्र मेरे ऊपर चढ़ते आते हैं
जाने कैसे मैं अपने आप को सड़क के दूसरी ओर पाता हूं
सृष्टि के रहस्यों में यह भी है
कि दिन के व्यस्ततम समय में भी शहर के इस व्यस्ततम चौराहे को मैं देर-सबेर पार कर ही लेता हूं
थोड़ी ही दूर पर अगली सदियों के लिए
दरवाज़े हैं
इन दरवाज़ों के ठीक विपरीत सड़क की दूसरी ओर
जिवदानी आयुर्वेदी दवाखाना का बोर्ड लगाए तम्बू लगे हैं
बोलो प्रोफेसर
यह जो जवाना मर्दानगी पेशाब आदि की चिकित्सा करता टेप चलता रहता है निरंतर इन तंबुओ में
आवाज़ जो इन भविष्य की सदियों के दरवाज़ों को पार करती
हमारे साथ प्रविष्ट होती है आई.टी. संस्थान के अंदर
धता बताती हमारी तर्कशीलता को
क्या यह उत्तरआधुनिक है
या प्राक् आधुनिक?
मैं सड़क की आत्मा को महसूस करता हूं
मेरे साथ जीती है लम्बे समय तक
बड़ी की जगह ग़लती से इस्तेमाल की गई
छोटी `इ´ की मात्रा
अगले दिनों के इंतज़ार में !
मैं लिखता हूं
मैं लिखता हूं क्योंकि बारिश होती इन दिनों
डागर बंधु गाते मियां की मल्हार
क्योंकि नदियां बहतीं मतवाली
पुकारतीं मुझे धरती के अनजान कोनों से
मैं लिखता हूं क्योंकि जुल्म नहीं रुकता
क्योंकि लोग मर रहे हैं
बच्चे मर रहे हैं
जंग छिड़ी हुई है
धरती के सीने पर जगह जगह
मैं लिखता हूं
क्योंकि मेरे दिल में उठती है हूक प्यार की
हर अपने बेगाने के लिए
मैं लिखता हूं
क्योंकि फरीद का बेटा हूं
मुझे पैदा करनी हैं संतानें
आज़ादी के नशे में मतवाली
मैं गोविंद का बेटा हूं
मैं सत्य, मैं श्री, मैं अकाल
मैं धूमिल, मैं निराला, मैं पाश, सुकांत
मैं ढूंढता हूं ब्रेख़्त, लैंगस्टन ह्यूज़ खुद में
मैंने रवीन्द्र से सीखी है बात
कि आस्मान सूरज और तारों से भरा है
मैं गाता हूं पूर्वजों के गीत
मैं गाता हूं भविष्य के लिए
मैं लिखता हूं
मैं औरतों से प्यार करता हूं
मैं माओ के साथ कहता हूं कि औरतें
आधा आस्मान थामे हुई हैं
मैं उस आस्मान के तले हूं
मैं लिखता हूं कि औरत का शरीर
सबसे खूबसूरत कविता है दुनिया में
जैसे है सबसे खूबसूरत उसका मन
मैं लिखता हूं कि मुझे
उन तमाम पुरुषों से है नफ़रत
जो औरत को औरत नहीं समझते
जो औरत को इंसान नहीं समझते
मैं लिखता हूं
क्योंकि मैं एक औरत का बेटा हूं
और मैंने जाना है कि जब एक औरत रोती है
तो पृथ्वी हिल जाती है अपनी धुरी से
बहुत कुछ ग़लत है इस दुनिया में
जब रो रही हैं औरतें
मैं लिखता हूं
किसी प्रेतछाया के लिए नहीं
बनने वह दीप जो बुझ जाए एक दिन
नहीं
मैं साफ़ स्पष्ट आदमी की आवाज़ हूं
मैं लिखता हूं क्योंकि बारिश होती इन दिनों
डागर बंधु गाते मियां की मल्हार
क्योंकि नदियां बहतीं मतवाली
पुकारतीं मुझे धरती के अनजान कोनों से !
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दिलचस्प है ये आत्म स्वीक्रति भी…..ईमानदार भी कविता की तरह
कहीं भी कहा जाय , कैसे भी कहा जाय, वैचारिक प्रतिबद्धता हर बात में है।
बिलकुल ठीक बात।
जीवन से जुड़ी कविताएं। धन्यवाद
bahut achchha vaktavya hai.kavitayen to hai hi.
बहुत सार्थक.
काश ! लाल्टू की तरह
हमारे रचनाकार लिखने की
वज़ह तलाश पायें !
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
कविता में सार्थकता की तलाश करती कविता मुझे बहुत भाई !
लाल्टू जी के लेखन को पढ़्कर बहुत ही अच्छा लगा। हमारे मर्म को छू गई इनकी रचनाएं।
लाल्टू की कविताएँ मुझे हमेशा मूल्यवान लगती रही हैं. वह अहले-नज़र भी हैं और आज़ाद-तबियत भी, और बहुत कम स्पेस में एक संपूर्ण अनुभव, एक पेचीदा जीवन-स्थिति का प्रबंध रच देते हैं. उनकी बहुत सी कविताओं की प्रामाणिकता, सादगी और संवेदनात्मक गहराई देखते ही बनती है. यहाँ प्रकाशित ‘वही चौराहा’ इसकी मिसाल है. उनका बयान भी बताता है कि एक प्रतिबद्ध कलाकार की प्रतिबद्धता किन-किन चीज़ों से बनती है. लाल्टू के काम को रेखांकित करने के लिए आपको बधाई.
मुझे कवि का वक्तव्य और दूसरी कविता बहुत पसंद आई. आपने फिर से पोस्ट कर के अच्छा किया.