यह लेख जैसा कुछ समयांतर(जून 2008) में छपा
हिंदी में भुला देने या उपेक्षा की हिंसक साहित्यिक राजनीति के शिकार हो जाने वाले बड़े कवियों में एक असद ज़ैदी 20 साल के लम्बे अन्तराल पर अपना तीसरा कविता संकलन `सामान की तलाश´ दुनिया में लाए हैं। इस संकलन की आमद काफ़ी बेचैनी और सुगबुगाहट भरी है और हिंदी कविता का मौजूदा परिदृश्य, एकाध अपवाद को छोड़ दें, तो यह तय नहीं कर पा रहा है कि इसका आख़िर वह क्या करे ! हिंदी की सुपरिचित `धन्य-धन्य´ और `धत्-धत्´ समीक्षा पद्धति के लिए यह एक बड़ी चुनौती है। इसे महज अच्छा या बुरा कह देने से काम नहीं चलने वाला। पहले तो ख़ुद को साबुत रखते हुए इसे शुरू से अंत तक पढ़़ना ही एक बड़ा काम है और फिर अपने पढ़े को समीक्षा के ढाँचे में गुनना………. तौबा ! तौबा !!
मैंने सम्पादक पंकज बिष्ट से अनुरोध करके समयान्तर के लिए यह चुनौती स्वीकारी है और नतीज़तन ख़ुद को काफ़ी हद तक परेशानी में डाल दिया है। बात यह है कि असद ज़ैदी की कविता अपने साथ इतना विक्षोभ, खीझ, अटपटापन, चिड़चिड़ाहट और दिमाग को झंझोड़ देने वाले सघन बौद्धिक वातावरण के पीछे-पीछे छुपी हुई अकुलाहट भरा एक ऐसा भयावह संसार लाती है कि आप ख़ुद को न तो एकाग्र कर पाते हैं और न ही इस संसार को परे कर इससे छुट्टी पा सकते हैं। ये एक ऐसा कवि है जो आपको संक्रमित कर देता है – फिर आपकी हालत वीरेन डंगवाल की कविता में आने वाले `मई के महीने के उस मोटे पेड़ जैसी हो जाती है, जो बाहर से तो क़तई साबुत और दुरुस्त खड़ा दिखाई देता है, पर उसके भीतर दिमाग़ में नसों की तरह कुछ फटता है´ !
संकलन की पहली कविता है `अप्रकाशित कविता´ – कई सारी अजीब अर्थच्छायाओं से घिरी और घेरने वाली इस कविता के शीर्षक में ही जैसे असद ज़ैदी के बीस साल छुपे हैं, जो उन्होंने अपने पिछले और इस संकलन के बीच बिताए।
एक कविता जो पहले ही से ख़राब थी
होती जा रही है अब और ख़राब
कोई इंसानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती एक स्थाई दुर्घटना है
सारी रचनाओं को उसकी बग़ल से
लम्बा चक्कर काटकर गुज़रना पड़ता है !
यह सिर्फ़ असद ज़ैदी की कविता का नहीं, उस पूरे अंतराल की हिंदी कविता का आत्मकथन प्रतीत होता है, जिसमें हमारी युवा कवि पीढ़ी बतौरे-ख़ास शामिल मानी जाए। इसमें उस अनकहे की पहचान छुपी है, जिसे कभी कोई भय, कभी कोई निजी या सामाजिक मजबूरी, तो कभी कोई निहित स्वार्थ कहने नहीं देता और मेरा मानना है कि इसी अनकहे की कविता ही दरअस्ल असद ज़ैदी के समूचे कविकर्म की केन्द्रीय भूमिका है। कवि ने इसे संगीन से संगीनतर होती जाती स्थाई दुघर्टना कहा है तो उसका भी स्पष्ट आशय है, क्योंकि अंत में चलकर कवि ख़ुद स्वीकारता है कि
मनुष्यों में वह सिर्फ़ मुझे पहचानती है
और मैं भी मनुष्य जब तक हूँ तब तक हूँ
जिस देश और काल में एक कवि के भीतर भी मनुष्यता का होना अनिश्चित दिखाई देने लगे, उसे और कैसे परिभाषित करेंगे आप… और वे कौन-सी रचनाएँ हैं, जिन्हें इस अप्रकाशित कविता की बग़ल से लम्बा चक्कर काटकर गुज़रना पड़ता है… मैं कवि के शब्दों में बाअदब फेरबदल करते हुए ऐसी कविताओं को `लम्बा चक्कर काटकर´ नहीं , बल्कि `कन्नी काटकर´ गुज़रने वाली कविताएँ कहना चाहूँगा। मुझे नहीं लगता कि इन कविताओं की शिनाख़्त कोई ख़ास मुश्किल काम है – आज का तो पूरा दौर ही ऐसी असंख्य कविताओं से भरा पड़ा है, जिसमें किसी कवि-विशेष की नहीं, हम सबकी कविताएँ शामिल हैं। मनमोहन के कविता-संकलन ` ज़िल्लत की रोटी ´ के ब्लर्ब पर असद ज़ैदी ने जिस ` मुक्तिबोधीय पीड़ा और एक महान अपराधबोध ´ का ज़िक्र किया है, यह यक़ीनन उसी का अर्थविस्तार है और मुझे ख़ुशी है कि कवि ने इसे अपनी कविता में सम्भव किया है। देखने वाली बात है कि हिंदी कविता का आनेवाला समय इस पीड़ा और अपराधबोध को किस अर्थ में स्वीकार करेगा या फिर करेगा भी या नहीं ! शायद वही एक बेशर्मी आगे भी जारी रहे, जो हमें आज उपलब्धि लग सकती है।
होती जा रही है अब और ख़राब
कोई इंसानी कोशिश उसे सुधार नहीं सकती
मेहनत से और बिगाड़ होता है पैदा
वह संगीन से संगीनतर होती जाती एक स्थाई दुर्घटना है
सारी रचनाओं को उसकी बग़ल से
लम्बा चक्कर काटकर गुज़रना पड़ता है !
यह सिर्फ़ असद ज़ैदी की कविता का नहीं, उस पूरे अंतराल की हिंदी कविता का आत्मकथन प्रतीत होता है, जिसमें हमारी युवा कवि पीढ़ी बतौरे-ख़ास शामिल मानी जाए। इसमें उस अनकहे की पहचान छुपी है, जिसे कभी कोई भय, कभी कोई निजी या सामाजिक मजबूरी, तो कभी कोई निहित स्वार्थ कहने नहीं देता और मेरा मानना है कि इसी अनकहे की कविता ही दरअस्ल असद ज़ैदी के समूचे कविकर्म की केन्द्रीय भूमिका है। कवि ने इसे संगीन से संगीनतर होती जाती स्थाई दुघर्टना कहा है तो उसका भी स्पष्ट आशय है, क्योंकि अंत में चलकर कवि ख़ुद स्वीकारता है कि
मनुष्यों में वह सिर्फ़ मुझे पहचानती है
और मैं भी मनुष्य जब तक हूँ तब तक हूँ
जिस देश और काल में एक कवि के भीतर भी मनुष्यता का होना अनिश्चित दिखाई देने लगे, उसे और कैसे परिभाषित करेंगे आप… और वे कौन-सी रचनाएँ हैं, जिन्हें इस अप्रकाशित कविता की बग़ल से लम्बा चक्कर काटकर गुज़रना पड़ता है… मैं कवि के शब्दों में बाअदब फेरबदल करते हुए ऐसी कविताओं को `लम्बा चक्कर काटकर´ नहीं , बल्कि `कन्नी काटकर´ गुज़रने वाली कविताएँ कहना चाहूँगा। मुझे नहीं लगता कि इन कविताओं की शिनाख़्त कोई ख़ास मुश्किल काम है – आज का तो पूरा दौर ही ऐसी असंख्य कविताओं से भरा पड़ा है, जिसमें किसी कवि-विशेष की नहीं, हम सबकी कविताएँ शामिल हैं। मनमोहन के कविता-संकलन ` ज़िल्लत की रोटी ´ के ब्लर्ब पर असद ज़ैदी ने जिस ` मुक्तिबोधीय पीड़ा और एक महान अपराधबोध ´ का ज़िक्र किया है, यह यक़ीनन उसी का अर्थविस्तार है और मुझे ख़ुशी है कि कवि ने इसे अपनी कविता में सम्भव किया है। देखने वाली बात है कि हिंदी कविता का आनेवाला समय इस पीड़ा और अपराधबोध को किस अर्थ में स्वीकार करेगा या फिर करेगा भी या नहीं ! शायद वही एक बेशर्मी आगे भी जारी रहे, जो हमें आज उपलब्धि लग सकती है।
थोड़ा आगे बढ़ें तो तीसरे नंबर पर असद ज़ैदी की इस संकलन की अब तक की सबसे चर्चित कविता ` 1857 : सामान की तलाश ´ मिलेगी। इस कविता पर पहल-86 में कवि मंगलेश डबराल ने एक लम्बी और सार्थक टिप्पणी की है, जिसके बाद कहने-सुनने को कुछ ख़ास नहीं बचता, पर इस कविता पर उठाई गई एकाध आपित्तयों के बरअक्स मैं कुछ कहना चाहूँगा – हालाँकि इसे मेरी निजी समझ ही माना जाए, कोई साहित्यिक निष्कर्ष नहीं। मामला है कविता की इन कुछेक पंक्तियों का –
यह उस सत्तावन की याद है जिसे
पोंछ डाला था एक अखिल भारतीय भद्रलोक ने
अपनी-अपनी गद्दियों पर बैठे बंकिमों और अमीचंदों और हरिश्चंद्रों
और उनके वंशजों ने
जो ख़ुद एक बेहतर गुलामी से ज़्यादा कुछ नहीं चाहते थे
जिस सन् सत्तावन के लिए सिवा वितृष्णा या मौन के कुछ नहीं था
मूलशंकरों, शिवप्रसादों, नरेन्द्रनाथों, ईश्वरचंद्रों, सैयद अहमदों,
प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचंद्रों के मन में
और हिंदी के भद्र साहित्य में जिसकी पहली याद
सत्तर अस्सी साल के बाद सुभद्रा ही को आयी !
इन पंक्तियों में दरअसल एक लम्बी बहस छुपी है, जिसे अचानक हुए एकतरफ़ा प्रतिरोधात्मक विस्फोट की नहीं, बल्कि धीरे-धीरे विचार, राजनीति और इतिहास के पुनर्पाठ की शक्ल में सामने आना चाहिए। हड़बड़ी एक सार्थक पहल को बरबाद भी कर सकती है – ऐसा मुझे इन पंक्तियों के संदर्भ में लगता है। जिस लम्बी बहस की बात मैं कर रहा हूँ, उसकी शुरूआत कवि ने कर दी है और उसकी कविता में आए उस भद्रलोक के अस्तित्व, पहचान और उसकी नीयत या सीमाओं को लेकर भी कोई संकोच हमारे मन में नहीं होना चाहिए। जिस तरह के तंज़ के साथ कुछ स्पष्ट नामोल्लेख कवि ने किए हैं, उन्हें हमें किसी तरह के सामान्यीकरण का शिकार भी नहीं बनाना चाहिए। इन नामों का वर्तमान, दरअसल हमारा अतीत या कहें कि निकटतम इतिहास है और उसमें भी कई तरह की अवधारणाओं के बीच से हमें सही राह खोजने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। मैं अपनी अब तक की समझ के हिसाब से इन पंक्तियों में उस राह की झलक देख पा रहा हूँ। हो सकता है कवि के कथन में ये व्यंग्य ज़्यादा तीखा हो गया हो, लेकिन इसे तो उसकी सफलता ही माना जाएगा। मेरे विचार से तो कविता में 1857 के ऐतिहासिक ब्यौरों की यह इतिहास के अनुशासन में हुए प्रयासों से भी सफल अभिव्यक्ति है, जहाँ –
1857 के मृतक कहते हैं भूल जाओ हमारे सामन्ती नेताओं को
कि किन जागीरों की वापसी के लिए वे लड़ते थे
और हम उनके लिए कैसे मरते थे
कुछ अपनी बताओ
क्या अब दुनिया में कहीं भी नहीं है अन्याय
या तुम्हें ही नहीं सूझता उसका कोई उपाय !
अपने लिए मैं इस मसले पर कुछ समकालीन कवि-मित्रों और अग्रजों के साथ लगातार संवाद करते हुए इसे और कुछ दूसरी कविताओं को समझने की कोशिश कर रहा हूँ – अगर कोई कविता हमें इस तरह के व्यापक संवाद या बहस के लिए प्रेरित करती है तो फिर इससे ज़्यादा हम एक कविता से और भला क्या चाह सकते हैं….
यहाँ आकर मैं कहना चाहूँगा कि समय और अन्तराल असद ज़ैदी की कविताओं में बहुत मुखर होकर बोलते हैं – जैसे इस कविता में बोल रहे हैं। उनके पिछले संकलन की कविताओं में इसके अनेक उदाहरण हैं, जिन पर यहाँ चर्चा के लिए अधिक अवकाश नहीं है, लेकिन इतना तो साफ़ है कि ये सिलसिला `सामान की तलाश´ में भी बदस्तूर जारी है। यह अन्तराल 1947 से 1965 के बीच का हो सकता है और 1965 से 1980 के बीच का या फिर 1980 से 2008 के बीच का। इन अन्तरालों में हमारे देश, समाज, राजनीति, भाषा और साहित्य के स्तर पर जो कुछ बदला है, असद ज़ैदी की कविता उस पर एक लम्बी जिरह छेड़ती है।
मैंने पहले असद जी की कविताओं के सन्दर्भ में अटपटेपन की जो बात कही, उसका सीधा सम्बन्ध समय और अन्तराल की इसी विशिष्ट समझ से है। जब समय भीषण रूप से बाज़ारू और अटपटा होगा तो एक कवि की प्रतिक्रिया भी उतनी ही अटपटी होगी और न हुई तो फिर उन संकटों का प्रतिकार कभी नहीं कर पाएगी, जो हमारे देश और समाज के सामने मुँह बाये खड़े हैं और इतने मुखर हैं कि यहाँ उन सभी को सूचीबद्ध करने की कोई ज़रूरत भी मैं नहीं देखता। पिछला सब कुछ महान था, यह मनवाने की एक ज़बरिया कोशिश लगातार होती रही है और इसे मान लेना हद दर्ज़े का अपराध होगा। इससे भी बड़ी विडम्बना तब होगी, जब उस समय के इन नामों से जो ग़लतियाँ हुई , उनसे हम कुछ सीखने को तैयार नहीं होंगे और कहने की ज़रूरत नहीं कि सीखने से पहले स्वीकारना होता है। सीखने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता – वह तो लगता है स्वीकारने में।
`दुर्गा टॉकीज़´ श्रंखला की दोनों कविताएँ देख लीजिए – वहाँ आपको इसी अंतर्दृष्टि के साथ कथ्य और भाषा के बीच का एक ज़रूरी और कड़ियल सम्बन्ध भी स्पष्ट दिखाई देगा –
अड़तालीस साल से यहाँ की दीवारें
मर्दों के पेशाब से भीगी हैं
या फिर
ठंडे कठोर सीमेंट पर अनगिनत बार
टपका है वीर्य
स्कूली छात्रों का, बेबस अधेड़ों का
दुर्गा टॉकीज़ की वे दीवारें आदमियों या इंसानों के नहीं, बल्कि `मर्दों´ के पेशाब से भीगी हैं। स्कूली छात्रों और बेबस अधेड़ों के बीच भी एक अन्तराल है, जिसके बीच के अनिवार्य ख़ालीपन को कुछ चीज़ें लगातार भर भी रही हैं, भले ही वह ज़मीन पर गिरता उनका वीर्य ही क्यों न हो। इसी श्रंखला की दूसरी कविता में कवि इंसान और सभ्यता के बारे में ये बयान देता है कि
इस मिट्टी को ज़रा कुरेदिए, इसमें आपको
हमारी महान जनता की पसलियों के टुकड़े और सभ्यता के चिथड़े मिलेंगे
हिन्दुस्तान के नए-पुराने इतिहास और उसमें मौजूद कितने ही पेंचो-ख़म के पीछे कवि को वह महान जनता दिखाई देती है और उसके साथ हुआ सुलूक भी। असद ज़ैदी जिस तरह हिन्दुस्तान के इतिहास से उलझते दिखाई देते हैं, उससे मुझे वह मशहूर शे´र याद आता है कि
` मेरी हिम्मत देखिए , मेरी तबीयत देखिए ,
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मै !´
हक़ीक़त तो यह है कि गुत्थी कभी ठीक से सुलझी ही नहीं, सुलझाने वालों ने बस `सब ठीक है´ का एक भ्रम पैदा किया, जिसे मीर, ग़ालिब, निराला(उनकी विक्षिप्तता के वर्ष), नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, धूमिल, चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल, मनमोहन मंगलेश डबराल इत्यादि से लेकर आज असद ज़ैदी तक कई-कई साहसी जन समय-समय पर तोड़ते रहे हैं। इस संकलन में कई कविताएँ हैं, जो भारतीय फासीवाद और साम्प्रदायिकता के प्रश्नों से सीधे टकराती हैं और उनमें जज़्ब होकर नहीं रह जातीं, बल्कि कवि और पाठक के पास बूमरैंग की बार-बार तरह लौट कर आती हैं। अयोध्या में कुछ क़ब्रें, कौन नहीं जानता, इस्लामाबाद, हिंदू सांसद जैसी कविताएँ इस संकलन को एक ख़ुसूसियत प्रदान करती हैं। हम बानगी के तौर पर `इस्लामाबाद´ को देख सकते हैं, जहाँ –
मेरे साथ चलते शुक्ल जी से जब रहा न गया
तो बोले :
मेरे विचार से तो अब हमें इस्लामाबाद पर
परमाणु बम गिरा ही देना चाहिए !
मेरे हिसाब से यहाँ `शुक्ल जी´ की जगह महज `मित्र´ भर होता, तब भी काम निभ जाता लेकिन ज़िद की हद तक जोखिम उठाना जैसे कवि की फि़तरत में शामिल है। जिस इस्लामाबाद या पाकिस्तान पर बम गिराने की बात हो रही है, वहाँ आज भी अनगिन हिन्दुस्तानी मुसलमानों की आपाएँ, मौसियाँ, फूफियाँ वगैरह रहती हैं। वहाँ सिर्फ़ एक क़ौम नहीं बसती, बल्कि कुछ कोमल और अब तक लगभग अपरिभाषेय रहे रिश्ते भी बसते हैं। पता नहीं क्यों मुझे असद ज़ैदी को पढ़ते हुए बार-बार शानी याद आ जाते हैं। उनकी वह बेचैनी और तल्ख़ी मानो इन कविताओं में फिर लौट आयी है। अगर हम शानी की कुछ कहानियों और `काला जल´ के साथ असद ज़ैदी के अब तक के अट्ठाईससाला प्रकाशित कविकर्म की तुलना करें , तो स्पष्ट रूप से दोनों को एक ही ज़मीन पर खड़ा पाएंगे और मुझे नहीं लगता कि ये महज एक इत्तेफ़ाक होगा। जैसे शानी से उनकी कहानी `युद्ध´ का अर्थ पूछा गया था, वैसे ही असद ज़ैदी से शायद उनकी कविता `पूरब दिशा´ का अर्थ पूछा जाएगा और हैरत नहीं कि पूछने वालों में उनके मुझ जैसे पाठक भी शामिल हों। इस कविता ने मुझे बहुत परेशान किया है और मेरी यह हार्दिक कामना है कि ये अर्थ जब भी खुले तो वैसे ही खुले जैसा `युद्ध´ का खुला – जहाँ पाठक अनगिनत व्याख्याओं के कुहासे के बावजूद और देर से ही सही, पर उस तथाकथित राष्ट्रवाद की असलियत पहचान तो पाते हैं, जो देश और समाज की रक्षा के लिए नहीं, बल्कि एक व्यापक छल को छुपाने के लिए इस्तेमाल होता आया है।
आइए अब इतिहास, विचार और तमाम बुद्धिवादी विमर्श के परे उन कोमल और गुनगुने रिश्तों की बात करें, जिनका एक छोटा-सा उल्लेख ऊपर हुआ है। असद ज़ैदी अपनी फि़तरत में ही शायद कहीं बहुत गहरे मानवीय रिश्तों के भी कवि हैं। उनके पहले ही संकलन का नाम इसकी गवाही देता है और उसमें मौजूद कविताएँ तो शायद ही कभी भुलायी जा सकें। अपने नए संकलन के सन्दर्भ में कवि को स्वीकारना होगा कि उसके काव्य-व्यक्तित्व में रिश्तों की ये आभा कुछ धुंधलायी है। यहाँ बहनें, 1965 या संस्कार जैसी कविताओं की याद भर बाक़ी है, जो `घर की बात´ सरीखी कविताओं में अनायास ही व्यक्त हो जाती है।
`सामान की तलाश´ के कवि के स्वभाव में एक ख़ास तरह का बौद्धिक विमर्श और उससे अनायास ही पैदा होने वाली रुक्षता भी बढ़ी है। हालाँकि मेरा इससे कोई स्वभावगत विरोध नहीं है और इसे हम एक बार फिर समय और अंतराल के तर्कों से परिभाषित कर सकते हैं, लेकिन नहीं ! बिल्कुल नहीं ! बार-बार ऐसा करना हमारे भीतर मरते मनुष्यों को और मारना होगा। मैं ऐसी कोई कोशिश नहीं करूँगा, बल्कि कवि से भी कहूँगा कि इतिहास को खंगालने और संक्रमणकाल के जीवन को आँकने के अपने काव्य-सामर्थ्य में आप भले ही बहुत आगे चले गए हैं, लेकिन एक बहुत प्रिय, बहुत आत्मीय और बहुत ज़रूरी दुनिया पीछे छूटती जा रही है – कृपया उसे भी पलटकर देखिए। यह बीती हुई ही सही, लेकिन आपकी अपनी दुनिया है। जिस `नाराज़ ऊर्जा, रूहानी वलवले और उससे पैदा मासूम आशावाद को देखकर´ आप अब झेंपते हैं, वह कहीं न कहीं मेरी पीढ़ी को ताक़त देता है।
असद ज़ैदी की पिछली और नई सभी कविताओं में छोटी कविताएँ बहुतायत में मौजूद हैं। इनके लिए मेरा यह मानना है कि अपने आकार के छोटेपन में ये दरअसल पाठक या श्रोता को अपने भीतर एक अजीब-सा अवकाश या स्पेस मुहैय्या कराती हैं। वहाँ हम उस कविता के छोर को पकड़ कर अपनी एक निजी यात्रा शुरू कर देते हैं। समकालीन काव्य परिदृश्य पर बहुत कम कवि हैं, जो ऐसा कर पाते हों। असद ज़ैदी की काव्यभाषा निस्संदेह वही हिंदी है, जो बाद तक बचेगी। उन्होंने उर्दू के मिटते जाने का सवाल भी अपने नए संकलन में बड़ी टीस के साथ उठाया है। इस मस्अले पर मेरा सोचना कुछ अलग है। मेरा मानना है कि जो लुप्त होगी, वह उर्दू नहीं, बल्कि उसकी लिपि होगी। हिंदी में उर्दू के शायरों को अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल है। मैं उर्दू के प्रति कवि की तर्कवान नास्टेल्जिक अभिव्यक्ति को भी समझ पा रहा हूँ, लेकिन उसके बरअक्स हिंदी को फासीवादी या साम्प्रदायिकता के एकतरफ़ा आईने में देख पाने में असमर्थ हूँ – मुझे तो उसे बोलने वाली असद जी की वही महान जनता दिखाई देती है, जो हिन्दुस्तान में करोड़ों की संख्या में मौजूद है और तरह-तरह से संकटग्रस्त एक दुनिया में किसी तरह अपना जीवन जी रही है। उसकी बोलचाल की भाषा में आधे शब्द उर्दू के होते हैं। मीर और ग़ालिब का नाम हम अकसर लेते रहते हैं और उनके शे´र जीवन के हर मोड़ पर हमारे सामने आ जाते हैं – वे हमारे जीवन में इसलिए प्रासंगिक हैं, क्योंकि नागरी लिपि में उपलब्ध हैं, वरना कितने लेखक या पाठक हैं, जो इन्हें पढ़ने के लिए लिपि सीखने की ज़हमत भी उठाएंगे। इसे मेरी निजी समझ माना जा सकता है, लेकिन मेरे हिस्से की हक़ीक़त तो यही है।
बस इतना ही……. क्योंकि ख़ुद असद ज़ैदी के ही शब्दों में
क्या करूँ व्याख्या का इतना काम आन पड़ा है
हकलाने के अलावा मैं और कर ही क्या सकता हूँ
इतनी ही मेरी मनुष्यता है बस कि
एकाध और मनुष्य के बैठने की जगह साफ़ कर दूँ
ख़ुदा करे कि `सामान की तलाश´ पर बहस जारी रहे और जहाँ मैं ग़लत हूँ, वहाँ मुझे मेरी ग़लतियों का पता भी चलता रहे।
आमीन !
आमीन !
असद जैदी जी की सामान की तलाश ज़िन्दगी और मृत्यु के बीच छटपटाते समय के लिए कैनवास की तरह लगा …उसे महसूसते हुए उसे देखने की पीड़ा रोमांच के साथ जागृत हों गयी . बधाई
बस बताते रहिये… सुन रहे हैं…
असद जैदी की कवितायें और मौर्य साब की समीक्षा…डेडली काम्बी!
बेशक समीक्षा के शिल्प में नहीं, लेकिन उनकी कविताओं की बेहतरीन विवेचना। पहले थोड़ा-बहुत पढ़ लिया था समयांतर में…आज पूरा।
यह एक बढ़िया शुरुआत है .असद पर तो अभीबहुत बातें होनी बाकी हैं .दरअसल बीसवीं सदी की काव्य आलोचना अनास्था के स्थगन के जि स पैराडा इ म की शिकार रही है असद उसी को चुनौती देतें हैं. वे हिंदी कविता में अनास्था को प्रस्तावित करने वाली मुक्तिबोध, आलोक, वीरेन के समानधर्मा हैं , जिनकेकाव्य शाश्त्र की पहचान आगामी कविता की राह हमवार करने के लिए जरूरी है. .