एक प्रिज़्म, लड़ाइयों से तर
यह अध्याय है विध्वंस का
यह हमारा नखलिस्तान है
है एक कोण जहाँ लड़ाइयाँ आपस में मिलती हैं
ज़ालिम इकट्ठा होते हैं हमारी आँखों के इर्दगिर्द
ज़ालिम इकट्ठा होते हैं हमारी आँखों के इर्दगिर्द
ज़ंजीर के बरामदे में अभी
दाद देने की काफी गुंजाइश है
दाद देने की काफी गुंजाइश है
आइये दाद दें
शहर की मोमबत्तियों पर
फाँदती है एक और शाम
रात को रौंदते हैं मशीनी खुर
शॉर्ट वेव्ज के आर-पार क़त्ल किये जा रहे हैं लोग
पर रेडियो उगलता है अनपके बयान
और हमसे
तकाज़ा करता है दाद देने का
हम झेलते हैं बारिश
धधकते छाते का ढाँचा लिए
हमारे झण्डे पर एक देवता सोता है
पर उफ़क पर नहीं कोई पयम्बर
शायद पयम्बर आ जाएँ गर हम दाद दें
आइये दाद दें
हम धुएँ से करेंगे बप्तिस्मा अपने नवजातों का
जोत देंगे उनकी जीभें
धधकते युद्ध गीतों से
या संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्तावों से
सिखायेंगे उन्हें नारों की चिल्लाहट
और एक आसन्न संकट में
छोड़ देंगे उन्हें जलते चूचुकों के किनारे
और दाद देंगे
और दाद देंगे
जालिमों के लिए शरद का
एक और मौसम बुनने से पहले
हमें पार करनी होगी
कंटीले तारों की आकाशगंगा
और दुहराते रहना होगा
हैप्पी न्यू वॉर!
बग़दाद, मार्च 1991
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बग़दाद में जन्मे सिनान अन्तून प्रथम खाड़ी युद्ध के बाद से अमेरिका में रहते हैं. अन्तून का एक कविता संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशित हैं. अन्तून ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय से अरबी साहित्य में पीएचडी की है; उन्होंने अरबी साहित्य का अंग्रेजी में विपुल अनुवाद किया है जिसमें महमूद दरवेश की कविता प्रमुख है. वे आज के इराक़ी जीवन पर केन्द्रित एक डॉक्युमेंटरी ‘अबाउट बग़दाद’ का सह निर्माण/निर्देशन भी कर चुके हैं.
सादर वन्दे
भावपूर्ण
अनुनाद पर युद्ध विषयक पिछली कई कविताओं को पढ़ कर मन मे आया, यह नहीं. यह नहीं. इस बार कह रहा हूँ हाँ यह वाली !
खाड़ी युद्ध को टी वी पर देख् कर् मैंने भी एक कविता लिखी थी. इस वाली को पढ़ कर अपनी कविता नकली लगने लगी है….ज़रा देखिए , सेकेंड हेंड अनुभवों की इस कविता को….
• अजेय
कविता नहीं लिख सकते
(खाड़ी युद्ध के एक बागी सैनिक के उद्गार)
अच्छे मौसम में
हम मैच देखते हैं
बड़े से स्टेडियम में लाखों मस्त लोगों के साथ
कुरते और ट्राऊज़र उतार कर
गाढ़े चश्मे पहन कर
हमारी चिकनी चमड़ियों पर
झप-झप धूप झरता है अच्छे मौसम में
उमंग से ऊपर उठता है झंडा
राष्ट्रीय धुन के साथ
हम खडे़ हो जाते हैं सम्मान में
अपने भावुक राष्ट्रपति का अनुसरण करते हुए
होंठों में बुदबुदाते हैं अधबिसरे राष्ट्र-गान
आंखों के कोर भर जाते हैं
बँद-बूंद खुशियाँ गुलाबी गालों पर
छप-छप छलकतीं हैं
हमारे बगलों में सुन्दर मस्त लड़कियाँ होती हैं
उत्तेजक पिंडलियों वाली
उछलती-फुदकती
हवा उड़ाती है
स्कार्फ और मुलायम लटें
बिखेरती हैं इत्र की गंध ताज़ी
रविवार की सुबह
कुदरत शरीक होती है,
रोमांचित-हमारे उत्सव में
नीला आकाश
हरी घास
युद्ध से दूर………..
हम मैच देखते हैं
अच्छे मौसम में
कविता नहीं लिख सकते ।
घटिया मौसम में
सूरज मुँह छिपा लेता है गर्द गुबार में
आसमान से बरस रही होती है आग
घटिया मौसम में
रात दिन उड़ते हैं जंगी जहाज़
नींद नहीं आती
रॉकेट और बमों के शोर में
तपता रहता है रेत / दिन भर
मरीचिकाओं में से प्रकट होती रहती हैं
फौलादी बख्तरबंद गाड़ियाँ
एक के बाद एक
अनगिनत
रेडियो सिग्नल, आड़े तिरछे बंकर और ट्रेंच
बारूदी सुरंगे, ग्रेनेड फटते हैं रह-रहकर
और कान के पर्दों में घन्टिया बजती रहती हैं निरंतर
कटीली तारों में उलझी हुई जाँघें
काँप रही होती हैं बेतरह
दुख रहा होता है पसलियों में खुभा हुआ संगीन।
गुड़ मुड़ अजनबी भाषाएं
बर्बर और भयावह
रौंदती चली जाती हैं हमारे ज़ख्मी पैरों को
पसीना-पसीना हो जाते हैं हमारे माथे
हम चीख नही पाते
साँसे रोक, आतंकित,
फटी आँखो से करते रह जाते हैं इन्तज़ार
दुश्मन के गुज़र जाने का ……
हम युद्ध झेलते हैं
घटिया मौसम में
कविता नही लिख सकते।
यह कविता उन दिनों हिमाचल सरकार साहित्यिक की पत्रिका विपाशा में छपी थी, बाद में हरिशंकर अग्ग्रवाल की आकंठ , और रति सक्सेना की कृत्या पर भी लगी.