अनुनाद

हिन्दी साहित्य, समाज एवं संस्कृति की ऑनलाइन त्रैमासिक पत्रिका

नए साल पर एक सरल और बेहद मासूम घरू कविता जैसा कुछ …

अमित की इस कविता को मैंने तीन विशेषण समझ बूझ कर दिए. दरअसल मैं इस कविता पर एक लम्बी टिप्पणी भी देना चाहता था पर सफ़र में होने के कारण दे नहीं पाया, सोचा इन तीन शब्दों में थोड़ा कुछ समेट लूँगा. सरल होना न सिर्फ़ कविता बल्कि जीवन में भी अब एक बहुत मुश्किल चीज़ हो चुका है. ये कविता मुझे नए साल के कार्ड के रूप में मिली तो सबसे पहले मैं इसकी इसी सादगी और सरलता पर क़ुर्बान गया. फिर मैंने देखा इसमें एक और बड़ा जीवन मूल्य छुपा है जिसे हम मासूमियत कहते हैं. कितने मासूम दृश्य हैं ये जिन्हें हम जैसे कवि कविता की जटिलता के ताने बाने में संभव करने का प्रयास अब तक करते आये हैं ताकि आधुनिक अर्थों में अपना तथाकथित कवित्व बचा पाएं. तीसरा शब्द घरू है – आप एक बार पूरी कविता को गौर से देखिये- सारे दृश्य घरेलू हैं, जीवन के चिर प्रश्न और उनके संघर्ष भी घरेलू ही है जबकि उनकी अर्थच्छायायें नितांत वैश्विक और व्यापक. अमित ख़ुद भी अपनी इस कविता की तरह ही हैं. सरल सादे मासूम घरू लेकिन बेहद चिंतनशील और दुनिया की इस जटिलता में उतने ही समर्पित भी. वे हिंदी में भूमंडलीकरण की अवधारणा और समकालीन कविता पर उसके प्रभाव पर अपना महत्त्वपूर्ण शोध भी कर रहे हैं. हमारे साल की शुरूआत अगर इतनी सरल, मासूम और घरू होती है तो हम साल के बेहतर गुजरने की उम्मीद भी कर सकते हैं. इस कविता को अनुनाद पर इस तरह प्रस्तुत करने की यह एक इच्छा ही नहीं महत्वाकांक्षा भी है.

एक दिन यूं हीं, बाजार से उकता गए,
हम दादा पोते बाजार छोड़, म्यूजियम में आ गए
म्यूजियम पिछले दिनों की आखिरी निशानी था,
सिड के वेकअप से पहले सुनी
नानी की कहानी था
म्यूजियम गये दिनों के आस-पास था,
उसके कोने-कोने में बिखरा इतिहास था
पोते को मैंने कन्धों पर बिठाया,
और ऊंगलियों के इशारे से बताया

´´ वो जो सिमटा सिकुड़ा खड़ा है,
किनारे अंधेरे में लुढ़का पड़ा है
अरे वही, जिसके सर पर ताज है,
वो प्याज है!
इसे हम रोज खाते थे,
कभी छौंका तो कभी सलाद बनाते थे
मुस्कुराते थे आंसू बहाते थे
बेटा, वो प्याज है, इसे हम रोज खाते थे!

उसे देख जो दर्द से तड़फड़ाती है,
वो चिट्ठी है बेटा, अब नहीं आती है
इसमें पिता की बीमारी,
शादी की तैयारी,
खेती,झगड़ा,कपड़ा दाल
,घर का सब हाल चाल
दिल की जुबान से लिखा जाता था,
और डाकिए का आना,
बूढ़ों को भी दरवाजे तक खींच लाता था
अब एस,एम,एस ई-मेल और,
ट्वीट से लाज बचाती है,
बेटा, वो चिट्ठी है, अब नहीं आती है!

छतों पर जो बेलौस लिखी है
दर -दीवारों पर जो अपने आप दिखी है
बिना लाग लपेट के जो पेशे नजर है
वो सीधी सच्ची बिना मसाले की खबर है
न सनसनी, न सियासत, न ही पक्षधर है
बेटा, वो बिना मसाले की खबर है!´´

उधर अकेला कड़का ऐंठा
ऑख पर हाथ धरे
तराजू पर है बैठा
इसके जीवन का आखिरी अध्याय है
ये न्याय है!

उस परदे के भीतर देख, वो मृत्युशैय्या है
उस पर हया है
बाहर नहीं आती, इतनी अभिमानी है
हाथ में इसके,
बस चुल्लू भर पानी है!

यहॉ जो ये सब एक धागे में बंधे दिखते हैं
ये प्यार से जुड़े नाते-रिश्ते हैं
ये नफरत से कम,
तोल मोल में अधिक गए
खड़े-खड़े बाजार में
बेभाव के बिक गए!

इसी अजायबघर में
उधर, अंदर के कोठर में
पीठ पर घाव लिए
फिर भी सहयोगी भाव लिए

जो बिचारा है
वो भाई चारा है
पंजाब सिंध मराठा सबकी एका
मिटी मिठास, बंटवारे की खिच गई रेखा
राजनीति का मारा है
बेटा,वो भाई चारा है!

उधर कोने में जो भूखी प्यासी अधमरी सी है
पढ़े लिखे बेरोजगार सी,
भरे गोदाम में भुखमरी सी है
बे-आवाज जिसका मुंहु खुला सा है,
वो भाषा है
ये सरकारी राजनीति का शिकार हुई
हर तरह से समृद्ध होते हुए भी
रोजी-रोटी को बेकार हुई
अक्षर-अक्षर आखिरी दिन गिन गई।
जाने कब हमसे छिन गई!

वो जो दो बहनों सी अंधेरे कोने में दुबकी है
वही हमारी सभ्यता और संस्कृति है
पहले , हमें इन पर नाज था
हमारी पहचान का भी यही राज था
पर जैसे जैसे हम पश्चिमी छलावों से दो चार हुए
इनसे उदासीन, फिर शर्मसार हुए
अब पीछे के पिछलग्गू बन
लकीर पीट रहे हैं
और आधुनिकता की बाढ़ में
बिना लाईफगार्ड के,
तैरना सीख रहे हैं!

ऐसी कितनी ही चीजों से
हम दो-चार होते रहे
बृद्विजीवी थे इसलिए
हाथ पर हाथ धरे रोते रहे
कि पीछे से आवाज आई –
´´ मैं भी हूं
मैं गए दिनों का
आखिरी बचा खुचा आदमी हूँ
बड़ा अभागा हूँ
अपनी नस्ल की कब्र से
उठ भागा हूं
यहॉ दिखाने चीजें पुरानी
पोते को लाए आप, मेहरबानी
वर्ना भूले बिसरे भी फटक नहीं जाते
आपके पोते के दोस्त,
तो घूमने के लिए भी म्यूजियम नहीं आते´´
हमारी बात जारी रहती
अगर अलार्म की घंटी कानों में न पड़ती
ये क्या,मैं तो गहरी नींद में मगन था
जो बयां किया , वो एक अद्भुत सपन था
बताया आपको इसलिए, कि बाद में न पछताना पड़े
और इन मृतपाय चीजों के लिए
सच में म्यूजियम न बनाना पड़े
इसलिए नई सोच से, नए भाव से संकल्प नया लें
म्यूजियम नहीं इनके लिए बस दिल में जगह बना लें
नए वर्ष में करे कुछ ऐसा, नहीं किया जो अब तक
शुभ हो ,शुभ हो, शुभ हो,
नए साल की दस्तक!!

0 thoughts on “नए साल पर एक सरल और बेहद मासूम घरू कविता जैसा कुछ …”

  1. अनुनाद इधर से कुछ ज्यादा सक्रिय हो गया है… अच्छी बात है लेकिन इतनी जल्दी जल्दी नयी पोस्ट आने से कई बार पढना रह जाता है… साथ ही हमारी पाचन शक्ति भी कमजोर है

  2. इस सरलता और मासूमियत का ठिकाना भी अब कोई म्यूजियम ही होने वाला है.ये पेंचदार बातों का ज़माना है.
    ख़ुशी हुई जानकार किअमित जी अब भी इन सीधी सच्ची बातों को दिल में सहेजे हैं.और हाँ जो चिट्ठी अब 'एन्टीक' हुई जाती है,आज ही नए साल की शुभकामनाएं देती दरवाज़े पर आई है,अमित जी की भेजी हुई.स्वागत है.

  3. अमित जी की अभिव्यक्ति की बानगी 'तरवताल' पर देखता रहता हूँ।'अनुनाद' पर उन्की 'घरू कविता' को पाना और पढ़ना सुखद है।

    जो घरू है वही तो
    आने वाले वक्त के लिए धरू है
    नहीं तो
    यह सारा खेल
    सारा प्रपंच
    ऊसर है मरु है।

  4. सागर ने सही कहा. हम जैसे लोगों के लिए शिरीष , प्लीज़, हफ्ता भर रहने दिया करें एक पोस्ट.

  5. @विजय भाई – एक छोटी सी टिप्पणी मैंने पोस्ट के साथ अभी जोड़ दी है, शायद आपकी खटक का कुछ जवाब उसमें मिले.
    @ सागर और अजेय – दोस्तो आपकी बात बिलकुल वाजिब है. आगे से पोस्ट जल्दी न बदले इसका ख़याल रखेंगे. अनुनाद से आपका जुडाव देख कर जो ख़ुशी और संतोष मिलता है, उसे शब्दों में बयान कर पाना मुश्किल है.

  6. आपकी टिप्पणी के बिना ये कविता कुछ और होती, आपकी टिप्पणी के साथ कुछ और है. जनाब सागर जी और अजेय जी की बात आपने मान ही ली है, मैं भी यही अर्ज़ करना चाहता था. हम पाठक अपनी मसरूफ़ियत में अनुनाद तक आने का वक़्त खोजते हैं, कभी देर भी हो जाती है- इस बात को ध्यान में रख कर पोस्ट बदलेंगे तो अनुनाद के लिए भी अच्छा होगा. नया साल फिर से मुबारक़ हो.

  7. साधारण जीवन उसके सरोकार और संघर्षों को बयान करती यह
    कविता भीतर से बेचैन करती है !
    चिठ्ठी प्याज दाल के बहाने अन्य
    विसंगतियों के दर्द भी उभर आते हैं
    नव वर्ष की हार्दिक बधाई स्वीकार करें !

  8. naye saal par behad satik tareeke se jiwan se anupasthit hoti ja rahi sambednaon ko salaam karti hui kavita lagana…aapki is muhim ko bhi salaam bhai…

    yadvendra

  9. नया इतनी जल्‍दी 'रोजमर्रा' हो जाता है कि उसे नया महसूस करने के लिए ही तो संग्रहालयों की जरुरत होती है.

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top