ब्लॉग: स्वप्नदर्शी
जीवन
जीवन के वैविध्य के चित्र उकेरना
कुछ इस तरह है, जैसे एक अनाड़ी, दर्जी
आड़ी, तिरछी, बेहिसाब लम्बी और बौनी परछाईयों के माप से, सिलता रहे कपड़े
या फ़िर एक अकेला चरवाहा किसी पहाड़ की मूंठ से
अपनी ही प्रतिध्वनी की गूंज मे बुनता रहे भ्रम
और नकारता रहे जीवन का इकहरापन,
जीवन का इकहरापन किसी सुनसान,निर्जन पहाडी घाटी की तरह
पैर पसारे हुए है, ठीक राजधानी के कोलहल मे कहीं भी,
जगमगाती माल में, बेहिसाब भीडभाड़ से अटी सड़को पर
घर-परिवार के सलौने चमकते संसार में भी
और यहाँ तक कि लगातार बुदबुदाते, भन्नाते काल सेंटर्स में भी
जहाँ रात मे भी कायम रहता है पूरी दूनिया से संवाद
खरीदने-बेचने का, उधार और भुगतान का
और बंद खिडकियों और अंधेरे कौनो के बीच
खड़-खड़ करती मशीनों और आदमियों के बीच भी
जीवन की इकहरी इबारते इसी तरह से फ़ैली है
गाँव घर के गलियारों से लेकर शिक्षा संस्थानों मे, बाजारों मे
जहां दो भाषाओं मे संवाद होता है
एक भाषा जो निहायत व्यापार की भाषा है
और दूसरी नितांत लाचारी की
कहने और सुनने वाले अपनी अपनी कलाकारी से
उसे कभी संगीत में, कभी साहित्य में,
कभी संस्कृति में, और अक्सर देश की प्रगति की
उभरती हुयी तस्वीर में बदल देते है।
***
किताब और जीवन: पामुक को पढ़ते हुए
खोली थी एक किताब, किताब ने खोली एक समूची दुनिया,
एक अनजाना भूगोल, चिंदी-चिंदी इतिहास, बोली, भाषा,
समय और काल की अनंत क्षितिज पर रंग और रोशनी का रिश्ता.
कभी धीमे, कभी बदहवास, कभी अचेत,
मन की नदी में उफनते रहे भीतर ही भीतर
कुछ अंजाने, अचीन्हे भाव, नदी के तट पर उठती, गिरती रही
बदलते मौसम की सर्द हवाएं।
बहुत गहरे उतर गयी एक स्त्री की जिंजिविशा
अंधेरी गुफाओं में रोशनी की तरह
भविष्य को भनक लगने से पहले
वों बुनती रही भविष्य
स्वाभिमान के साथ दो बच्चों की मां है स्त्री
बेटी,पत्नी, मां और प्रेमिका बनकर भी ख़त्म नहीं होती स्त्री
बचाए रखती है, जगह अपने भीतर अपने लिए…
कुछ जगमग हो उठते हैं हाशिये के बिम्ब
शिनाख्त करते हुए कई संभावनाओं की
रिश्ते नहीं दिखते पीतल से ठोस और ठन्डे
न ही सफ़ेद और स्याह अक्स की शक्ल में
बिखरे हुए उजास के सतरंगी आकाश में
किताब कितना कुछ कहती है
और जीवन फिर भी पढता है इकहरे ककहरे
सहमता है फिर-फिर चिर-परिचित खांचों में
बार-बार छोड़ता नहीं अटपटे समीकरणों का मोह
सवाल हल करने का एक शर्तिया बेढब तरीका
किताब की रूपरेखा होती है सोची समझी,
कई हाथों में पगी, एक सुलझी गुत्थी
जीवन को ये सब सहूलियत कहाँ
यह्ना तो अचानक से डूबना है, और डूबते हुए तैरना हैं
***
स्मृति के छल
अशंकित है बड़े, बूढ़े और समझदार
हमेशा की तरह आनेवाले समय को लेकर,
ढूंढते है सुकून बहुत पीछे छूटी दुनिया में
जो अब कंही नहीं है, धुंधली पड़ गयी है स्मृति भी,
छांटकर, पोंछकर सजा ली है मन ने स्मृति की दुनिया,
कारीगरी से बचा लिया है सिर्फ अल्हड़ बरसों का रोमान,
और मिटा दिए कई कई बेतरबीब निशान
जीवन की लम्बी सुरंग के अँधेरे के,
लोप गयी है स्मृति काटती कचोटती बैचेनियों की
खो गया है सन्दर्भ, घुल मिल गए हैं सुख और दुःख
इस तरह कि स्मृति भी नींद में देखे सपने जैसी है
सपने में है सांत्वना,
स्मृति भी अगर न होती इतनी छलना,
एक सफल फैशन डिजानर,
ज़रुरत, समय, और उम्र के साथ,
नित्य भाव, भेष बदलती मॉडल
तो कौन इसे सीने से लगाए घूमता?
क्यूँ ढूंढता ढांढस अतीत में,
पकड़ता बार-बार उसका पल्ला,
वर्तमान और भविष्य की यात्रा के बीच.
***
कितनी अजीब बात है कि सोचे समझे जीवन में,
बिन मौसम बरसात से टपक जाते है दोस्त
और समझ चली जाती है पानी भरने,
कोई पूछता है किस तरह की दोस्ती?
कैसे दोस्त? कब मिले?
और फिर बताया भी नहीं जा सकता कि कैसे बिन बताए,
ऐसे अचानक आगए ये सारे जीवन के भीतर
रात को एक लडकी मिल गयी थी पीसीओं की लाइन पर,
कोई मिली थी अचानक से हॉस्टल की मेस में, कोई बस में,
किसी ने ऐसे ही घनी, गिरती बर्फ में कार में लिफ्ट दे दी थी
दो लड़कियों के साथ बिताये थे दो साल हॉस्टल के एक कमरे में,
कुछ के साथ बैठा जाता था एक हरे रंग की झील के नौक पर उगी चट्टान पर
ऐसे ही राह चलते, पोस्टर चिपकाते,
पर्चे बांटते कुछ लड़कों से हो गयी थी बातचीत,
दो लड़के घर से बना लंच लाते थे,
और हॉस्टल के टिफीन से बदलने पर मुहँ नहीं बनाते थे
कुछ लड़कों के साथ उलटे पुलट तरह खेले गए क्रिकेट के मायने से
अलग कुछ देर ही सही दरक जाती थी दीवारे
एक लड़के ने जान पर खेलकर सीखायी थी बाईक, बेहद तंग गलियों में,
और कोई कई सालों लेकर आता रहा जेब में तुड़ी-मुडी कविताएं
फैलता रहा कुछ उजाला, बनती रही दोस्तियाँ
टूटते रहे बहन और प्रेमिका के विद्रूप खांचे
आधी दुनिया का अतिक्रमण कर कुछ हद तक सांस लेते रहे पूरी दुनिया में,
और बिना सोची समझी दोस्तियों ने ही मुमकिन बनाया इसे
***
हेलोवीन की रात चुड़ैल बनकर घूमना चाहती हूँ
और कुछ देर विलुप्त होना चाहती हूँ, अन्धकार की दूनिया में
बतियाना चाहती हूँ निषिद्ध स्त्रियों से, चखना चाहती हूँ वों अभिमंत्रित जल
स्त्री के आदिम निषिद्ध, गुप्त ज्ञान का भागी होना चाहती हूँ
सेलम की चुड़ैलों मे से एक चुड़ैल मैं भी होना चाहती हूँ।
मेरे दोस्त तुम पूछते हो कि कोई कहे कि तुमसे प्यार करता हूँ
तो क्या तराजू लेकर खड़ी हो जाओगी?
अरे नही तुम ऐसा नही करोगी!
प्यार की उदात्त भावना का सम्मान करोगी,
प्यार की उड़ान में सितारों में विचरने लगोगी,
तुम भली लड़की, राधारानी विहाग गाओगी,
नहीं दोस्त, राधारानी का हज़ारों सालों पुराना मर्सिया नहीं
मुझे तो अक्सर लुभाती है, दूनिया भर की निषिद्ध स्त्रियाँ,
चुडैलें, डायन, जादूगरनियां, इतिहास की धुरी घुमाने वाली मंथरा दासी
खुबसूरत काया से परे, ये औरते गढ़ती है औरत होने के दूसरे बिम्ब,
घर-परिवार की चौखट के बाहर है इनकी दख़ल का घेरा
वेश-भूषा के परे है इनका आतंक, बहुत गहरे मानस की तहों में
लालायित हूँ उसी निषिद्ध ज्ञान के लिए, जिससे रोशनी डरती है,
शायद वहीँ से निकलेंगे, औरत की अस्मिता के कुछ नए बिम्ब
औरत के वज़ूद को रौंदती रोशनी की दूनिया,
शताब्दियों से जलाती रही है चुड़ैलों की बस्तिया
स्त्री को खारिज़ कर रचती रही है नायिका भेद के पाखण्ड
फ़िर भी चुड़ैलें अँधेरे के आगोश में बदलती रही हाथ से हाथ
बचाती रही अपनी दुनिया को देखने की दृष्टि
मैं बिल्कुल साफ़ साफ़ शिनाख्त करना चाहती हूँ
कई चीजों की, बिल्कुल स्थूल रूप मे
ताकि सूक्ष्म विवेचना उनके तत्व को हर न ले
प्रेम की उदात्त भावना भी उनमे से एक है।
मैं वाकई जानना चाहती हूँ इसका मतलब
उस पढी-लिखी इंजीनियर स्त्री के लिए
जो तीन दिन तक मरा बच्चा कोख मे लेकर
अस्पताल जाने का साहस नही जुटा पाती
और झुक-झुक कर पैर छूती है पचासेक लोगो के
मैं उस स्त्री के ह्रदय से भी जानना चाहती हूँ प्रेम का मतलब,
जो हकबक है प्रेमी के पिता द्वारा इस्तेमाल किए गए
वेश्यावाचक संबोधनों से
एक रेड हेड (लाल बालों वाली आयरिश स्त्री) से
कि कैसे लगता है जब एअरपोर्ट पर प्रेम मे पगी
प्रेमी को छोड़ने जाती है, और प्रेमी का दोस्त बताता है
कि प्रेमी हिन्दुस्तान या फ़िर किसी भी दूसरे देश
जा रहा है शादी रचाने, और कैसे आधी रात तक पब मे बैठे
वों एक गंवार जाहिल के साथ चली जाती है अपनी रात कोयला करने
उस स्त्री से भी जानना चाहती हूँ,
जो प्रेम-विवाह के छ: महीने के अन्तराल मे
पति की गृहस्थी जमाने का सपने लिए
सात समंदर पार जाती है
और पति की गर्भवती प्रेमिका के साथ
एक महीने दो कमरे मे बसर करती है
और भी बहुत सारे बिम्ब है प्रेम के जिनको
मैं बहुत ठीक-ठीक समझ लेना चाहती हूँ।
और इससे पहले की प्रेम मे पगूं
सितारों की दूनिया मे अपना चाँद खोजूं
मैं वाकई तराजू लेकर खड़ी रहूंगी
कि प्यार का वज़न मुझसे संभलता है कि नही ?
***
अच्छी कवितायें हैं ।
बस पढाये जाइए..
bahut achchhee kavitaayen hain. Badhaaee. Aapko bhi aur Sushma ko bhi.
Govind Singh
कविताएं काफी पसंद आईं क्या इसे पत्रिका के लिए उपयोग कर सकता हूं
गोपाल राय
09878215875
3rdfm.blogspot.com
नहीं एक साथ लगाकर ही ठीक किया. एक पूरा परिचय बनता है इस तरह. बेहद संवेदनशील और आत्मीय और विवेकपूर्ण और विद्रोही पंक्तियाँ एक कविता से दूसरे में तैरती सी आती हैं. तराजू वाली बात सही लिखी है, इसी से एतराज है 'प्रेमियों' को.
सुषमा जी से आभासी जान पहचान है। उनके विचार सदा बहुत स्पष्ट व बिना किसी आडंबर के होते हैं। विज्ञान से सम्बन्ध का शायद यही लाभ है। तथ्य व आडंबर को अलग कर पाती हैं।
कवि मन की होने के कारण संवेदनाशील भी हैं। जीवन के बहुत वर्ष प्रकृति की गोद में बिताए हैं सो विज्ञान, कवि मन व प्रकृति का अनोखा मिश्रण उनके व्यक्तित्व को अलग ही बनाता है। इनसे मिलवाने के लिए आभार।
घुघूती बासूती
तीसरी कविता में ऊर्जा है.
बहुत बहुत बधाई सुषमा नैथानी जी को ,उनकी कई कवितायेँ एक साथ लगा कर आपने ठीक किया ,इससे हम पाठकों का भला ही हुआ है .
सुषमा जी की इतनी प्यारी कविताएँ पढवाने के लिए शिरीष जी का आभार…स्मृति के छल और प्रेम के बिम्ब और निषिद्ध स्त्रियाँ कविता वास्तव में लाजवाब लगी.
आप सबका धन्यवाद.
शिरीष कवि के आत्म परिचय की जगह सिर्फ आत्म परिचय कर दे, वैसे हिन्दी में कवियत्री पहले से स्थापित शब्द है. जेंडर न्यूट्रल शब्द यह्ना कवि नहीं है. वैसे ये हमेशा से कुछ बहुत साफ़ और सुलझा मामला नहीं है. एक तरफ लगातार जेंडर न्यूट्रल शब्द प्रचालन में है, और दूसरी तरफ कवि शब्द से कुछ उसी तरह की फीलिंग होती है जैसे गेट पर खड़ा चौकीदार सुबह सुबह सलाम साब, या गुड मोर्निंग सर बोल दे.
but if kavi in hindi becoming a gender neutral word, I have no problem
कविताओं में बात है…और टिप्पणी-संवाद भी अच्छे चले हैं।
"मैं बिल्कुल साफ शिनाख्त करना चाहती हूं/कई चीजों की, बिल्कुल स्थूल रुप में"…और कवियत्री{?} अपनी रचनाओं में आंतरिक रुप से यही कर रही हैं…
कुछ बिम्बों ने खूब हिलाया डूलाया…चाहे वो "अस्पताल जाने का साहस न जुटा पाने वाली वो पढ़ी-लिखी इंजीनियर स्त्री" वाला हो या फिर "जान पर खेल कर बाइक सीखाने वाला वो लड़का" जो जेब में तुड़ी-मुड़ी कवितायें लेकर आता था…..
शुक्रिया शिरीष भाई इस परिचय के लिये…
मुझे 'प्रेम के बिम्ब और निषिद्ध स्त्रीयां' कविता सभी अच्छी कविताओं में ज्यादा अच्छी लगी.और ये ऐसे ही है जैसे पहली बार कविताओं की किताब पढ़ते पढ़ते कुछ कवितायेँ ख़ास तौर पर ज़ेहन में दर्ज हो जाती है.
सारी कवितायेँ पसंद आयीं. मुझे सिर्फ रवानगी में कुछ दिक्कत महसूस हुई.
सुषमा जी जैसा आपने कहा कर दिया है.
"कवि" को लेकर मेरे अपने आग्रह हैं, जिनकी मैं रक्षा करना पसंद करता हूँ. वैसे भी चीज़ें बनाने से ही बनती हैं. मेरे लिए ये एक जेंडर न्यूट्रल शब्द है. कवियत्री से किसी अलग प्रजाति का बोध मुझे होता है,ज़रूरी नहीं सबको हो पर हिंदी में लगातार कार्य करने के नाते मुझे होता है. मैं अपनी सनक में इसे किसी षड्यंत्र की तरह देखता हूँ.
आप गोपाल राय जी को भी जवाब दे दीजिये, उनका प्रस्ताव बहुत अच्छा है. उनका नंबर उनकी टिप्पणी में दर्ज़ है.
बहुत सुन्दर कवितायेँ
जीवन का एक नया अहसास
बहुत बहुत आभार ………….
युं मामला कुछ अटपटा है, और भाषा से ज्यादा राजनीती का सवाल है. कभी कभी एक ही शब्द का अर्थ अलग-अलग सन्दर्भ में अलग हो जाता है. मसलन किसी काले का माईकल जोर्डन या ओबामा होना एक सन्दर्भ में तमाम अल्पसंख्यक लोगो के लिए प्रेरणा का विषय हो जाता है. पर जन चुनाव के दरमियान बार बार ये शब्द विरोधी खेमे से आया कि ओबामा एक संभावनामय ब्लैक सेनेटर है, तो कंही न कंही उसका अर्थ बिलकुल दूसरा हुया, कुछ इस तरह कि वों सब का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते.
वैसे ही जैसे कृषी की शुरुआत औरतों ने की और आज भी बहुतायत में औरतें ही सारा काम करती है,आर ढूंढें भी किसानिन शब्द नहीं है, और कृषी भूमी पर खासकर भारत में स्त्री को उत्तराधिकार भी नहीं है. तो ये एक तरह से सर्वमान्य चलन हुआ, स्त्री का जिस तरह से संसाधनों से बेदखली है. उस स्थिति में किसी स्त्री का किसान होना, और किसानिन शब्द का चलन पोजीटिव मायने रखता है. कुछ इस तरह के शब्द और पहचाने जो एक ख़ास सामाजिक सन्दर्भ में दबी कुचली अस्मिताओं से जुडी है, उनका होना, राजनीतिक रूप से ऐसे तबकों की गोलबंदी और जनतंत्र में उनके इसूज की अड्वोकेशी के लिए महत्वपूर्ण है.
इसके विपरीत स्त्री राजनीतिज्ञों को सिर्फ कुछ सोफ्ट इसूश तक सीमित रखना, स्त्री ब्लोगरों को एक ख़ास केटेगरी बनाकर रखना एक तरह का हथियार हो सकता है उन्हें वृहतर सर्कल से दूर रखने का और एक दोयम केटेगरी में धकेलने का.
इसी तरह से जेंडर न्यूट्रल शब्द एक साथ समानता का धोतक हो जाते है, और अगर बहुत सचेत तरह से उनका इस्तेमाल नहीं करे तो एक ख़ास तरह का भाषाई हथियार भी हो सकते है, कुछ इस तरह कि वों समाज में जो कई तरह के जातिगत, और लिंगभेद और रंगभेद से जुड़े अन्याय है, उनकी सचेत पहचान को मिटा दे, तब भी जब अन्याय की ये प्रक्रियाए बराबर चलती रहे.
वैसे कविता के क्षेत्र में राजनीती को लाने की माफी, अगर कुछ लोगो का इससे जायका खराब हो तो ….
jiwan ko iske ghanghor angarh roop me dekhne ki koshish ko salaam….jaise ritwik ghatak ka angarh khurdure jiwan ko paas se dekhne ka jiwan bhar ka aagrah….dostiyon ki baat karte hue bina sochi samjhi dostiyon aur striyon ko chhu kar dekhne ki lalak me nishiddh striyon ki duniya me utar jaane ka dam bharna…main to in do aagrahon par hi atak gaya…kavi ko aur us khoji blogger ko dirgh jiwan aur is jajbe ko banaye rakhne ki shubh kamnayen…
yadvendra
सुषमा जी जब तक दुनिया में अन्याय है..अनाचार है…तरह तरह का भेद भाव है…तब तक तो कविता में राजनीति आएगी ही…उसे आना ही होगा. और देखिये आपकी लम्बी टिप्पणी के बाद ये बहस कितनी अर्थपूर्ण हो गयी है अब….कविता से शुरू होकर किन किन कोनों अंतरों तक जा पहुंची है ….मेरे लिए यही कविता है….जीवन और उसके संघर्षों से भरी.
अनुनाद के पाठक हमेशा अपनी टिप्पणियों में कितना कुछ सहेज जाते हैं…अनुनाद पर ऐसा होने – होते रहने का ऐसा एहसास ही ब्लॉगजगत पर मेरी कुल पूँजी है. सभी साथियों-पाठकों को सलाम
प्रिय भाई शिरीष
सुषमाजी की सभी कविताएं पढी. फुरसत और इत्मीनान से पढ़ी.
सुषमाजी अपनी कविताओं में शब्दों को खास तरबीत से सजाती हैं. जैसे आमतौर पर महिलायें अपने घरों को सजाती हैं/सजाकर रखती हैं. घर, परिवार, स्मृतियों और जीवन से जुड़ी इन कविताओ के लिए सुषमाजी को बधाई और प्रस्तुति के लिए आपको आभार.
प्रदीप जिलवाने, खरगोन
अच्छी प्रस्तुति……
kavitaaye kaisi lgi isko do-chaar line main nahi kh sakta….ye kavitaye hamaare bheetr bahut kuch torta jorta jaata hai…itni saarthk kavitaye likne k liye aap ko bahut bahut badhai….aur shirish ji ko bhi padwane k liye..
sushmaji ki kavitayein bahut prabhavit karti hain unhein badhai pahunchayein. sahityetar siksha ke bavajud hindi smakaleen kavita se kadam mila kar chalna badi baat hai.
kiyaab ne sach hio khol di duniya saari.
manmohan saral, mumbai
अच्छी कविताएं पढ़ कर समझ नहीं आता क्या लिखूं
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