अनुनाद

कुमार अनुपम की दो कविताएँ

7 मई, 1979 को (बलरामपुर, उ.प्र.) में। शिक्षा : बी.एस.सी., एम.ए.(हिन्दी), डी.एम.एल.टी. प्रशिक्षण।
युवा कवि, चित्रकार, कला समीक्षक; लोक विधाओं में विशेष रुचि। तद्भव, नया ज्ञानोदय, हंस, कथादेश, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, कथन, प्रगतिशील वसुधा, साक्षात्कार, कथाक्रम, समकालीन भारतीय साहित्य, सम्बोधन, आशय, कथ्यरूप, लमही, विपाशा, पर्वतराग, वितान, शुआ-ए-उम्मीद, अरुणाभा, कलावसुधा, कलादीर्घा, उत्तर प्रदेश, दै.हिन्दुस्तान, पाटल और पलाश, विश्व पत्रकार सदन, शिवम आदि देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, आवरण चित्र, लेख, रेखांकन, पुस्तक समीक्षाएँ प्रकाशित।
प्रदर्शकारी कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका कलावसुधा का कला सम्पादन; साहित्य, राजनीति एवं कला की वैचारिक पत्रिका शब्द सत्ता का सह सम्पादन। अवधी ग्रन्थावली के एक खंड का जगदीश पीयूष के साथ सम्पादन सहयोग। साथ ही सर्व शिक्षा अभियान, यूनीसेफ, यू.एन.डी.पी.(विकलांग बच्चों के सहायतार्थ कार्यक्रम), आपदा प्रबन्धन कार्यक्रम, सूचना एवं जन सम्पर्क विभाग (लखनऊ) के कार्यक्रमों में लोक विधा विशेषज्ञ एवं विजुलाइजर के रूप में सहभागिता। दूरदर्शन लखनऊ के साहित्यिक कार्यक्रम ‘सरस्वती’ का कई वर्षों तक संयोजन और संचालन। कुछ वृत्तचित्रों का लेखन।
सम्प्रति : एक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान से सम्बद्ध।

(कुमार अनुपम अनुनाद पर पहली बार छप रहें हैं, एक समानधर्मा युवा का मैं यहाँ स्वागत करता हूँ।)

तीस की उम्र में जीवन-प्रसंग

मेरे बाल गिर रहे हैं और ख़्वाहिशें भी
फिर भी कार के साँवले शीशों में देख
उन्हें सँवार ही लेता हूँ
आँखों तले उम्र और समय का झुटपुटा घिर आया है
लेकिन सफ़र का भरोसा
क़ायम है मेरे क़दमों और दृष्टि पर अभी
दूर से परख लेता हूँ ख़ूबसूरती
और कृतज्ञता से ज़रा-सा कलेजा
अर्पित कर देता हूँ गुपचुप
नैवेद्य की तरह उनके अतिकरीब
नींदें कम होने लगी हैं रातों के बनिस्बत
किन्तु आफ़िस जाने की कोशिशें सुबह
अकसर सफल हो ही जाती हैं
कोयल अब भी कहीं पुकारती है …कुक्कू… तो
घरेलू नाम …गुल्लू… के भ्रम से चौंक चौंक जाता हूँ बारम्बार
प्रथम प्रेम और बाँसुरी न साध पाने की एक हूक-सी
उठती है अब भी
जबकि जीवन की मारामारी के बावजूद
सरगम भर गुंजाइश तो बनायी ही जा सकती थी ख़ैर
धूप-पगी खानीबबूल का स्वाद मेरी जिह्वा पर
है सुरक्षित
और सड़क पर पड़े ब्लेड और केले-छिलके को
हटाने की तत्परता भी
किन्तु खटती हुई माँ है, बहन है सयानी, भाई छोटे और बेरोज़गार
सद्य:प्रसवा बीवी है और कठिन वक्तों के घर-संसार
की जल्दबाज उम्मीदें वैसे मोहलत तो कम देती हैं
ऐसी विसंगत ख़ुराफातों की जिन्हें करता हूँ अनिवार्यत:
हालाँकि आत्मीय दुखों और सुखों में से
कुछ में ही शरीक होने का विकल्प
बमुश्किल चुनना पड़ता है मन मार घर से रहकर इत्ती दूर
छटपटाता हूँ
अब भी कविता लिखने से पूर्व और बाद में भी
कई जानलेवा खूबसूरतियाँ एक साथ मुझे पसन्द करती हैं
मेरी होशियारी और पापों के बावजूद
अभी मर तो नहीं सकता सम्पूर्ण।
***

विरुद्धों के सामंजस्य का पराभौतिक अन्तिम दस्तावेज

पुरखों की स्मृतियों और आस और अस्थियों
पर थमी थी घर की ईंट ईंट
ऊहापोह और अतृप्ति का कुटुम्ब
वहीं चढ़ाता था अपनी तृष्णा पर सान
एक कबीर अपनी धमनियों से बुनने की
मशक्कत में एक चादर निर्गुन पुकार में
बदल जाता था बारम्बार
कि सपनों की निहंगम देह के बरक्स
छोटा पड़ जाता था हरबार आकार
कि अपनी बरौनियों से भी घायल होती है आँख
बावजूद इसके, जो था, एक घर था :
विरुद्धों के सामंजस्य का पराभौतिक अन्तिम दस्तावेज़
बीसवीं सदी के बिचले वर्षों में
स्मृतियाँ और स्वप्न जहाँ दिख रहे हैं
सहमत सगोतिया पात्र
अलबम की तस्वीर है अब मात्र
फासलों को पाटने की
वैश्विक कारसेवा में बौखलाया था
जब सारा जहान
दिखा, तभी पहली पहली दफा अतिस्पष्ट
देखकर भी जिसे
किया जाता रहा था अदेखा
शिष्टता के पश्चात्ताप का छछन्द
और दीवारों और स्मृतियों से
एक एक कर उधड़ते गये
बूढ़ी त्वचा के पैबन्द
गुमराह आँधियों के जोर से फटते गये आत्मा के घाव
और
इक्कीसवीं सदी का अवतार हुआ
मध्यवर्गीय इतिहास के तथाकथित अन्त के उपरान्त
कुछ तालियाँ बजीं कुछ ठहाके गूंजे नेपथ्य से
कुछ जश्न हुए सात समुन्दर पार
एक वैश्विक गुंडे ने डकार खारिज की
राहत की सुरक्षित साँस ली
अनावश्यक और बेवजह
घटित हुआ
प्रतीक्षित शक
कि घटना कोई
घटती नहीं अचानक
किश्तों में भरी जाती है हींग आत्मघाती
सूखती है धीरे धीरे भीतर की नमी
मन्द पड़ता है कोशिकाओं का व्यवहार
धराशाई होता है तब एक चीड़ का छतनार
धीरे धीरे धीरे लुप्त होती है एक संस्कृति
एक प्रजाति
षड्यन्त्र के गर्भ में बिला जाती है
‘ख़ैर !’ को जुमले की तरह प्रयोग करने से बचता है एक कवि
अपनी चहारदीवारी में लौटने से पहले
कि कुटुम्ब की अवधारणा ही अपदस्थ
जब घर की नयी संकल्पना से
ऐसे में गल्प से अधिक नहीं रह जाता
यह यथार्थ।

***

वर्तमान सम्पर्क : सी-सेकंड टाइप-173, लोदी कॉलोनी, नयी दिल्ली – 3 स्थायी सम्पर्क : शान्तिकुंज, निकट कटार सिंह स्कूल, मो. – पूरबटोला, शहर व ज़िला – बलरामपुर, उ.प्र. – 271201 मोबाइल नं. : 09873372181

0 thoughts on “कुमार अनुपम की दो कविताएँ”

  1. अरे वाह !!! अनुपम मेरे भाई !!! कमाल है…
    कितनी खुशी हो रही है तुमको यहाँ पाकर …इत्ती सी उम्र में इतनी गंभीर कवितायें !!! मेरी हार्दिक बधाई…,लखनऊ कब आ रहे हो ?

  2. झकझोर देने वाले आवेग से युक्त कविताएं..विशेषकर दूसरी वाली तो..’खैर’..पहली बार पढ़ा अनुपम जी को.अनुनाद का आभार!!

  3. कुमार अनुपम को पढ़ता रहा हूं– एकाध बार फोन पर बात भी हुई है।

    वह अपने समय के तमाम युवा कवियों से मुझे कई मायनों में अलग लगते हैं। वह 'प्रतिष्ठित' प्रकाशन गृह और दिल्ली की स्टार बिरादरी उनके इस अलगपन में सेंध न लगा सके यही शुभकामना!!

  4. anupam aapne scha main bahut achi kavitaaye likhi hain….apni is baat ko main aur kya kh k aap tk pahuchau…aapko pahle bhi pda hai…aap prerna hain hamaare liyeaise hi likhte rahiyega

  5. कुमार अनुपम में बहुत विविधता है अभी से। वे 'सिग्नेचर'से सायास मु्क्त हैं। बहुत नये और मौलिक लगने वाले स्टाईल के बंदी हो जाते हैं। मुझे गहरी, विकट, सुखद आशंका है अनुपम हमें बहुत हैरान करेंगेः और हर बार नये तरीके से। उनके यहाँ जीवन को सघन और सम्पूर्ण पाने की बालों की तरह गिर रही ख़्वाहिश है।

    अब भी कविता लिखने से पूर्व और बाद में भी
    कई जानलेवा खूबसूरतियाँ एक साथ मुझे पसंद करती हैं

    इन पंक्तियों में 'भी' और 'एक साथ' पर गौर कीजिये और सोचिये इन तीन शब्दों के बिना क्या चला जाता इस कविता सेः

    अब भी कविता लिखने से पूर्व और बाद में
    कई जानलेवा खूबसूरतियाँ मुझे पसंद करती हैं

    इसी तरह अंतिम पंक्ति से 'अभी' और 'तो' को हटाकर सोचिये। यह कवि क्या सचमुच तीस ही बरस का है?

  6. कुमार अनुपम बहुत आकर्षक और अनिवार्य हैं. उनके यहाँ अजीब दुस्साहस और शोक हमेशा मौजूद है लेकिन उसका हल्ला नहीं. उनके भीतर बहकने और बेसम्भाल में जाने की आदत है और इसलिए वह और पास हैं.

  7. वाकई पढ़ कर मज़ा आ गया

    अब ये मत पूछना कि इसमें मजे की क्या बात है…

    कई आशंकाए, डर जिसे व्यक्ति खुद define नहीं कर पा रहा हो जैसे कहीं रास्ते में उससे टकरा जाए।

  8. मेरे प्रिय कवि की कविताओं के लिए धन्यवाद।कुमार साहब को बहुत बहुत शुभकामनाएँ। कविताएँ हमेशा दिल के करीब रही है।

  9. जीवन की मारामारी के बावजूद सरगम भर गुंजायश और अपनी बरौनियों से भी घायल होती है आंख……. दुख को भाषा में दिव्य बनाए दे रही कवि-भाषा ! साधु-साधु कुमार बाबू !!

  10. नीदें कम होंने लगी हैं रातों के बनिस्बत
    इत्ती कम उमर में इत्ती कम नींद
    जादू है भाई! वाकई
    शुभकामनाएं!अनुपम भाई

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