अपने रोज़ मद्धिम होते कालेपन में
जैसे कहती हुई बहुत साथ दिया तुम्हारा अब बस
मुझे यहीं खड़े-खड़े पुर्जा-पुर्जा होने दो
तुम्हारे बच्चों के बच्चे खेलें मुझसे
किसी कल्पलोक में चले जाएं मुझ पर बैठ
अपने मुंह से एक विव्हल सच्ची ध्वनि निकालें
जो संसार को मेरी इंजन आवाज़ लगे
एक स्वाभिमानी गड़गड़ाहट
जिसका अतिनिश्चित आवर्तन
डगडगडगडगडगडगडगडग
यदि कोई एक्सीलेटर पर हाथ न लगाए तो मेरी
विश्वसनीय लयकारी कभी बेताल नहीं होती
तुम्हारे बड़े बच्चे ने इसी पर साधा अपना तबला
मेरे अविराम लहरे पर हुलसकर बजाता वह अपने मन में
तीनताल एकताल झपताल धमार कहरवा दादरा
इनके टुकड़े तिहाइयां चक्करदार परनें
और ख़ुद ग़लती न करे तो हर बार सम आता
मैं झूम-झूम जाती
तुम थरथरा जाते होगे उन क्षणों में कि अरे
यह इसे क्या हो गया
उससे छोटी सन्तान तुम्हारी बेटी को मैं जन्म के पहले से जानती हूँ
मां उसकी तुम्हारी पत्नी
गर्भ में ले उसे जब-जब तुम्हारे साथ मुझ पर बैठती
मैं सांय-सांय में गड़गड़ाना चाहती
कि बच्चे की पहली से भी पहली नींद न टूट जाए कहीं
मेरे दुनियावी शोर से
इस तरह वह सोती ही रहती
हालांकि सुनती भी रहती मुझे
उसने तो इस क़दर सुना है मुझको
कि अब भी सोचती है कि मेरी आवाज़ का लगातार ही
समय बीतना है
याद करो सत्तर के दशक के अन्त और शुरू अस्सी में
मैं ही फैशन थी
चिकनी काली कुछ-कुछ ग्राम्य काया के साथ कूद पड़ी
तब मैं
तुम्हारे देश की ध्वस्त सड़कों पर
उन्हें मैंने अपना माना वे मुझे अन्तरंग तक बुलाती रहीं
एस्कार्ट्स कंपनी की तब मैं चरम उपलब्धि हिन्दी मेरा नाम
`राजदूत´
तभी किंचित ठिगना भी मेरा एक संस्करण आया
लेकिन ख़ुद मुझे नापसन्द था वह
दया मांगता हुआ अपनी कातर पटपटाहट में
अपने रूप गुण से मैंने ही पराजित कर डाला उसे
जीजा जी की मौत के दुख में यह सोचना
कि चलना छोड़ दूं
विश्वासघात होता तब तुम्हारे परिवार के साथ
इसलिए समझते हुए कि मुझ पर जिम्मेदारियों का अब और बोझ है
मैं और निष्ठां और वेग से चली
जैसे रुलाई रोकने का यही एकमात्र तरीका हो
मुझे तुमने “मशान अस्पताल थाने कचहरी सिनेमाहॉल
जन्मदिन पहाड़ और झरने और कर्फ्यू में खड़ा किया
मैं खड़ी रही हिली नहीं
किसी निर्बल उठाइगिरे के खिलाफ़ अपने वज़न से लगातार चुनौती बनी हुई
कुछ यूँ मैंने तुमने मिलकर एक समय रचा जो अब कमज़ोर हुआ जाता है
नए समय की महासड़क के सामने
मेरा और तुम्हारा समय एक पगडण्डी
जिस पर अब भी मैं ही चल सकती हूँ
लेकिन महासड़क पर मैं छूट-छूट जाती हूँ
यहां महानायक चलते हैं महावाहनों पर
एक लीटर में अस्सी किलोमीटर की बचत और
इच्छाओं के वेग से
महाबलशाली वाहन उनके महासमर्थ चालक
महाविज्ञापनों के ज़रिये होता महाप्रचार
मेरा तो दम फूल जाता है
जल्दी-जल्दी प्यास लगती है
और वह दिन तो मैं कभी नहीं भूलूंगी
जब तुम्हारा एक शुभेच्छु तुमसे बोला था कि
`यार इसे बेचकर और कुछ पैसे मिलाकर, एक साइकिल ख़्ारीद लो´
वह पत्नीपीड़क घूसखोर क्या समझेगा मेरी अहमियत को तुम सोचे होगे
लेकिन मैं जड़ हो गई
और चकराते हुए तुम्हारे पैरों के बीच से ज़मीन पर गिरने लगी थी
भला हो तुम्हारी जांघों का मेरी पुरानी सहेलियां
बचा लिया हमेशा की तरह उन्होंने मुझे
लेकिन तय किया तभी मैंने अब सफ़र थामना होगा
जो समाज लंबी वफ़ा के बदले आपको चुटकुला बना दे
उम्र पर हंसे अपनी आत्महीनता में उसका तिरस्कार होना चाहिए
तो यही तय किया है
अब `नहीं´ बनकर खड़े हो जाना है बरामदे में इस तरह
जैसे तुम्हारी याद में !
शानदार प्रस्तुति..आभार हमारे साथ बांटने का.
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.
कविता स्मृतियों से होते हुए गुजरती है और संवेदना भीगती है बारिश में जैसे ……..
अच्छी कविता हैं । यहाँ पढ़कर और अच्छा लगा ।
उद्भावना वाली पुस्तिका में इसे पढ़ा था. यह तो समझ मे आ गई थी भाई तल्ख ज़ुबान जी.और बार बार पढ़ने का मन है इसे. शुक्रिया शिरीष.
देशी,'आत्मीय'पूंजीवाद के लिये एक शोकगीत? हो सकता है बीस-तीस साल बाद कोई नैनो भी इस तरह विलाप करे! नियोलिबरल दुनिया में नॉस्टेल्जिया कॉमिक हो रहा है और कविगण अपने अपने 'वाहनों' की चपेट में हैं। पिछले दिनों कोई अपने मारूति 800 वाले गरीब दिनों को याद कर रहा था।
हमारे घर में एक लूना थी, अब भी पड़ी है इधर मेरी बजाज कैलिबर भी दस बरस पुरानी हो रही है। कार हमारे घर में अभी समाजवाद की तरह नहीं आई है।
…………….जब कि हिन्दी के ज़्यादातर जनपक्षधर साहित्यकार सेमिनार अटॆंड करने के लिए हवाई जहाज़ की डिमांड करते हैं. मैं ने अपनी डिक्शनरी में जन पक्षधर का मतलब "पब्लिक एयर लाईंज़" कर दिया है.
मैं वाक़ई इसकी 'चपेट' में आ गया था. कविता क्या है, पूरी राजदूत मोटरसाइकिल है यह. भावभीनी. बर्बाद. जीवन की पाँचवीं कविता – 2007 में लिखी हुई. मैं इसे कुछ छिपाते हुए घूमता रहा. लेकिन अब यह है और सामने खड़ी है तो और शर्मिन्दा हूँ और शिरीष, गिरिराज, अजेय और शरद – सबका शुक्रगुज़ार.
कभी अपनी रोयल एनफिल्ड में कुछ लिखने का प्रयास किया था मैंने…शुक्र है शिरीष जी कि आपने व्योमेश जी की इस अद्भुत कविता से वास्ता करा दिया आपने।
शब्दातीत…अभी बार आऊंगा, कई बार आऊंगा पढ्ने इस मास्टर पीस को।
व्योमेश जी को नमन!
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स्मार्ट मशीनों के दौर में, जब तक आदमी का बरामदा है तब तक आदमी के साथ खड़ी ये मशीन.
कानों में बरसों पहले जैसलमेर की सुबह में दूधवाले के साथ इसकी जगाने वाली आवाज़ गूंजती है.