कुबेरदत्त समकालीन हिन्दी कविता के एक सुपरिचित और आत्मीय सहभागी है। उन्होंने दूरदर्शन के लिए लगातार साहित्य के कई ऐसे कार्यक्रम बनाए हैं, जिन्हें आज दस्तावेज़ माना जाता है। मल्टीमीडिया में तेज़ी से बढ़ती अपसंस्कृति और हत्यारी सभ्यताओं के हस्तक्षेप के बीच साहित्य और ख़ासकर कविता के लिए उनका यह समर्पण हमारे लिए पूर्वज और समकालीन रचनाकारों की थाती तैयार करता गया है। पिछले दिनों पश्चिमी गायक माइकल जैक्सन के निधन के बाद उन्हें ब्लागजगत में काफ़ी याद किया गया लेकिन मैं ऐसा कुछ कर पाने में ख़ुद को जानकारी और विचार, दोनों स्तरों पर असमर्थ पाता रहा। अभी
महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की पत्रिका पुस्तकवार्ता के पन्ने पलटते हुए मेरी निगाह `समय-जुलाहा´ स्तम्भ के अन्तर्गत छपे कुबेर दत्त के एक लेख पर गई जिसमें उन्होंने कवि सुदीप बनर्जी के साथ ही माइकल जैक्सन पर भी एक लम्बी टिप्पणी लिखी है। इस टिप्पणी में उन्होंने माइकल जैक्सन के एक गीत का काव्यानुवाद भी दिया है, जिसे पढ़ने के बाद मैं माइकल के विवादास्पद मिथकीय व्यक्तित्व के बारे में नए सिरे से कुछ सार्थक सोचने पर मज़बूर हो गया। मैंने कुबेरदत्त जी से इस अनुवाद को अनुनाद पर छापने की अनुमति मांगी और उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी दी भी। इस तरह यह अनुवाद और टिप्पणी का एक अंश अनुनाद पर लगाया जा रहा है। इसके लिए मैं पुस्तकवार्ता को महज समीक्षा के ऊसर धरातल से उठाकर रचनात्मकता के एक उर्वरप्रदेश में पहुँचा देने वाले वरिष्ठ साहित्यकर्मी सम्पादक श्री
भारत भारद्वाज का भी आभारी हूँ।
“ वह केवल अमरीकी समाज में ही लोकप्रिय नहीं था, पूरी दुनिया में लोकप्रिय था। अफ्रीका में भी, यूरोप में भी, लातिन अमरीका में भी, भारत में भी, चीन में भी। जो जानना नहीं चाहते पहले उन्हीं को बताऊं(क्योंकि जानने वाले तो जानते ही हैं) कि उसके गाए हुए ऐसे अनेक गीत हैं जो रंगभेद के ख़िलाफ़ हैं, नस्लभेद के ख़िलाफ़ हैं, ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ हैं, वृद्धों, महिलाओं, बच्चों पर होने वाले अत्याचारों के ख़िलाफ़ हैं, हर तरह के शोषण के ख़िलाफ़ हैं, इंसानियत के पक्ष में हैं, सामुदायिकता के पक्ष में हैं, शान्ति के पक्ष में हैं और युद्धों के विरुद्ध हैं। परमाणु होड़ के विरुद्ध हैं। सामाजिक न्याय के पक्ष में हैं, दुनिया भर के मज़दूरों और कामगारों के पक्ष में हैं। उसके गाए गीतों पर वंचित समाज ज़ार-ज़ार रोता था और उसे दुआएं देता था। उसने जीवनभर कोई अश्लील गीत नहीं गाया, चाहे वह मुक्तप्रेम का गीत हो या घोर रोमानी हो। माइकल जैक्सन जीनियस था, वाग्गेयकार था और साथ में नर्तक भी। भरतमुनि ने जितने गुण एक वाग्गेयकार के गिनाए हैं, उसमें कुछ अधिक ही थे। अपने पाठक मित्रों के लिए वाग्गेयकार माइकल जैक्सन द्वारा रचित एक गीत का अपना अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ ….– कुबेरदत्त
धरती का गीत
कहां गया हमारा सूर्य, और मौसम
कहां बिला गई बरखा हमारी
और प्रसन्नताएं सपने ?
उन्हें तो होना था हमारे लिए
वे हमारे थे….
कहां हैं वे कालखण्ड …वह ज़मीन…वे खेत
जो हमारे ही तो थे ?
क्या हम हो गए इतने जड़-प्रस्तर
कि हमें नहीं दीखते नदियों के रक्तिम किनारे
और समुद्रों का लाल ज्वार ?
क्या वह हमारा ही रक्त नहीं है? आह!…
अरे ओ बूढ़े! तुम रोते हो अपने पुत्र की हत्या पर
धरती के अगणित लाल सूली चढ़ा दिए गए
युद्धों ने जला दी पृथ्वी की कोख
महसूस करो इसे, आह! आह!!
सोचें हम सब जो हैं जीवित अभी किसी तरह
सुनें ध्यान से आहत पृथ्वी के शोकगीत
और आसमानों की द्रवित धड़कन …
देखो…पूरा ब्रह्माण्ड बीमार है, जर्जर है धरा
स्वर्ग टूट-टूट कर गिरते हैं….सांस लेना दूभर …
प्रकृति का कंठ अवरुद्ध है, कहां है प्राणवायु?
एक दूजे को एक दूजे से विलग कर रहा कौन?
जबकि ध्वस्त हैं राजशाहियां…
फिर भी उनके प्रेत अब भी नाचते हैं…
एक गझिन अंधकार में हम खोजते हैं एक दूजे को
अपने प्रिय पशुओं को, प्रिय वनस्पतियों को,
फूलों और रंगों और जंगलों,
अपने लोगों को,
और अपनी आत्माओं को…
उफ़! ये बिलबिलाते… इंसानों के बच्चे
जिनके कंठों में धंसी बारूद…
क्या मृत्यु उपत्यकाएं फिर फिर? चारों तरफ़?
अरे ओ घिग्घी बंधे लोगो!
फिर से याद करो अपने अब्राहम लिंकन को
आहत धरती कहती है यह, फिर…फिर
गाती है अनवरत … शोकगीत !
***
अरे! अद्भुत कविता है यह तो…
सचमुच अदभुत है ! अविश्वसनीय भी! सुखद आश्चर्य से भरती हुई ….
कभी कभी मैं यह सोचता हूँ हमलोग क्या लिखते हैं फिर ? कहीं ग़लतफहमी के शिकार तो नहीं हैं ?
यह गीत माइकल का अपने ओरिजनल स्वरूप में एक जमाने से मेरा फेवरि रहा है…..उस जैसा कलाकार अब फिर से पैदा होने से तो रहा।