“ वह केवल अमरीकी समाज में ही लोकप्रिय नहीं था, पूरी दुनिया में लोकप्रिय था। अफ्रीका में भी, यूरोप में भी, लातिन अमरीका में भी, भारत में भी, चीन में भी। जो जानना नहीं चाहते पहले उन्हीं को बताऊं(क्योंकि जानने वाले तो जानते ही हैं) कि उसके गाए हुए ऐसे अनेक गीत हैं जो रंगभेद के ख़िलाफ़ हैं, नस्लभेद के ख़िलाफ़ हैं, ग़ैरबराबरी के ख़िलाफ़ हैं, वृद्धों, महिलाओं, बच्चों पर होने वाले अत्याचारों के ख़िलाफ़ हैं, हर तरह के शोषण के ख़िलाफ़ हैं, इंसानियत के पक्ष में हैं, सामुदायिकता के पक्ष में हैं, शान्ति के पक्ष में हैं और युद्धों के विरुद्ध हैं। परमाणु होड़ के विरुद्ध हैं। सामाजिक न्याय के पक्ष में हैं, दुनिया भर के मज़दूरों और कामगारों के पक्ष में हैं। उसके गाए गीतों पर वंचित समाज ज़ार-ज़ार रोता था और उसे दुआएं देता था। उसने जीवनभर कोई अश्लील गीत नहीं गाया, चाहे वह मुक्तप्रेम का गीत हो या घोर रोमानी हो। माइकल जैक्सन जीनियस था, वाग्गेयकार था और साथ में नर्तक भी। भरतमुनि ने जितने गुण एक वाग्गेयकार के गिनाए हैं, उसमें कुछ अधिक ही थे। अपने पाठक मित्रों के लिए वाग्गेयकार माइकल जैक्सन द्वारा रचित एक गीत का अपना अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ ….– कुबेरदत्तकहां गया हमारा सूर्य, और मौसम
कहां बिला गई बरखा हमारी
और प्रसन्नताएं सपने ?
उन्हें तो होना था हमारे लिए
वे हमारे थे….
कहां हैं वे कालखण्ड …वह ज़मीन…वे खेत
जो हमारे ही तो थे ?
क्या हम हो गए इतने जड़-प्रस्तर
कि हमें नहीं दीखते नदियों के रक्तिम किनारे
और समुद्रों का लाल ज्वार ?
क्या वह हमारा ही रक्त नहीं है? आह!…
अरे ओ बूढ़े! तुम रोते हो अपने पुत्र की हत्या पर
धरती के अगणित लाल सूली चढ़ा दिए गए
युद्धों ने जला दी पृथ्वी की कोख
महसूस करो इसे, आह! आह!!
सोचें हम सब जो हैं जीवित अभी किसी तरह
सुनें ध्यान से आहत पृथ्वी के शोकगीत
और आसमानों की द्रवित धड़कन …
देखो…पूरा ब्रह्माण्ड बीमार है, जर्जर है धरा
स्वर्ग टूट-टूट कर गिरते हैं….सांस लेना दूभर …
प्रकृति का कंठ अवरुद्ध है, कहां है प्राणवायु?
एक दूजे को एक दूजे से विलग कर रहा कौन?
जबकि ध्वस्त हैं राजशाहियां…
फिर भी उनके प्रेत अब भी नाचते हैं…
एक गझिन अंधकार में हम खोजते हैं एक दूजे को
अपने प्रिय पशुओं को, प्रिय वनस्पतियों को,
फूलों और रंगों और जंगलों,
अपने लोगों को,
और अपनी आत्माओं को…
उफ़! ये बिलबिलाते… इंसानों के बच्चे
जिनके कंठों में धंसी बारूद…
क्या मृत्यु उपत्यकाएं फिर फिर? चारों तरफ़?
अरे ओ घिग्घी बंधे लोगो!
फिर से याद करो अपने अब्राहम लिंकन को
आहत धरती कहती है यह, फिर…फिर
गाती है अनवरत … शोकगीत !
***
अरे! अद्भुत कविता है यह तो…
सचमुच अदभुत है ! अविश्वसनीय भी! सुखद आश्चर्य से भरती हुई ….
कभी कभी मैं यह सोचता हूँ हमलोग क्या लिखते हैं फिर ? कहीं ग़लतफहमी के शिकार तो नहीं हैं ?
यह गीत माइकल का अपने ओरिजनल स्वरूप में एक जमाने से मेरा फेवरि रहा है…..उस जैसा कलाकार अब फिर से पैदा होने से तो रहा।