अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र
दरवाज़े दरवाज़े
दरवाज़े दरवाज़े मैं चल चल के आई
पर किसी को सुनाई नहीं देती मेरी पदचाप
खटखटाती हूँ दरवाज़ा पर दिखाई देती नहीं
कि मैं मर चुकी हूँ..मर चुकी हूँ मैं…
बस सात बरस की थी जब मैं मरी
इस बात को बीत गए सालों साल
अब भी मैं सात बरस की ही हूँ जैसी तब थी
कि मर जाने के बाद कहाँ बढ़ते हैं बच्चे…
मेरी लटें झुलस गयी थीं लपलपाती लौ से
ऑंखें जल गयीं..फिर मैं अंधी हो गयी
मृत्यु लील गयी मुझे और हड्डियों की बना डाली राख
फिर अंधड़ ने रख को उड़ा दिया यहाँ वहां…
मुझे फल की दरकार नहीं,न ही चाहिए भात
मुझे टॉफी की दरकार नहीं,न ही चाहिए मुझे ब्रेड
मेरी अपने लिए बाक़ी नहीं कोई लालसा
की मैं मर चुकी हूँ..मर चुकी हूँ मैं..
मैं आपके दरवाजे आयी हूँ अमन मांगने
आज आप ऐसी लड़ाई छेड़ें..ऐसी जंग
कि इस दुनिया के बच्चे जिन्दा बचें
फलें फूलें, बढ़ें, हंसें और खेलें कूदें…
उफ़! बेहद मार्मिक ….पढ़ाने के लिए आभार !!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
itani sunder kavita ki jhakjhor gayi bheetar tak .
बेहतरीन बेहतरीन …. शुक्रिया पढवाने का !!
भूमिका देकर बहुत अच्छा किया. लगे हाथों जानकारी भी हो गयी.
उफ़…इन सवालों के जवाब क्यूं नहीं दे पाये हम अब तक?