अनुनाद

अनुनाद

नाज़िम हिक़मत की एक कविता

अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र

तुर्की के विश्व प्रसिद्द कवि नाज़िम हिक़मत की ये बेहद चर्चित युद्ध विरोधी कविता हिरोशिमा पर अमेरिकी अणु बम गिराए जाने के दस साल बाद लिखी गयी थी और दुनिया की सभी प्रमुख भाषाओँ में न केवल इसका अनुवाद हुआ बल्कि अनेक देशों के शांति कार्यकर्ताओं और जनगायकों ने इसको अपने युद्ध विरोधी अभियान का प्रतीक बना लिया.पाल रोब्सन,पीट सीगर जैसे अमेरिकी लोकगायकों ने तो इस कविता को अपनी आवाज दी ही,अनेक अन्य गायकों ने दुनिया के अन्य हिस्सों में इसका चयन और पाठ किया.हिरोशिमा के नरसंहार के साठ साल पूरे होने पर जापान की लोकप्रिय गायिका चितोसे हाजिमे ने इस कविता का जापानी अनुवाद प्रस्तुत किया. इस कविता के अनेक अनुवाद उपलब्ध हैं.यह प्रस्तुति jeanette turner के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है..

दरवाज़े दरवाज़े

दरवाज़े दरवाज़े मैं चल चल के आई
पर किसी को सुनाई नहीं देती मेरी पदचाप
खटखटाती हूँ दरवाज़ा पर दिखाई देती नहीं
कि मैं मर चुकी हूँ..मर चुकी हूँ मैं…

बस सात बरस की थी जब मैं मरी
इस बात को बीत गए सालों साल
अब भी मैं सात बरस की ही हूँ जैसी तब थी
कि मर जाने के बाद कहाँ बढ़ते हैं बच्चे…

मेरी लटें झुलस गयी थीं लपलपाती लौ से
ऑंखें जल गयीं..फिर मैं अंधी हो गयी
मृत्यु लील गयी मुझे और हड्डियों की बना डाली राख
फिर अंधड़ ने रख को उड़ा दिया यहाँ वहां…

मुझे फल की दरकार नहीं,न ही चाहिए भात
मुझे टॉफी की दरकार नहीं,न ही चाहिए मुझे ब्रेड
मेरी अपने लिए बाक़ी नहीं कोई लालसा
की मैं मर चुकी हूँ..मर चुकी हूँ मैं..

मैं आपके दरवाजे आयी हूँ अमन मांगने
आज आप ऐसी लड़ाई छेड़ें..ऐसी जंग
कि इस दुनिया के बच्चे जिन्दा बचें
फलें फूलें, बढ़ें, हंसें और खेलें कूदें…

***

0 thoughts on “नाज़िम हिक़मत की एक कविता”

Leave a Reply to Ashok Kumar pandey Cancel Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top