अनुनाद

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भुतहा मकान के बाहर : मुक्तिबोध के लिए – हरि मौर्य

यह मेरे पिता की कविता है, कमाल की बात ये कि इसे उन्होंने 63 वर्ष की उम्र में लिखा है। उनके अतीत में बहुत पीछे 1968-69 के ज़माने में यानी उनके छात्रजीवन में कभी कहीं कुछ कविताएं थीं और भाऊ समर्थ, रामेश्वर शर्मा, नागार्जुन आदि से उनपर मिली ख़ूब प्रशंसा भी। फिर एक लम्बा समय नौकरी करने और खुद से लड़ने का समय रहा, जिसमें बहुत कुछ रचनात्मक हो सकता था पर हुआ नहीं। 90 के आसपास शमशेर और दुश्यन्त से प्रेरित होकर कुछ ग़ज़लें लिखीं और जिन पर ज्ञानप्रकाश विवेक और कान्तिमोहन जैसे कुछ लेखकों ने महत्वपूर्ण हिन्दी ग़ज़लकार होने का श्रेय भी उन्हें दिया। ग़ज़लों की एक पुस्तिका `सपनों के पंख´ कथ्यरूप ने छापी, लेकिन यह लेखन भी जैसे विलुप्त होता गया। 2006 में वे अपनी सरकारी नौकरी से निवृत्त हुए। अब एक बार फिर कुछ रचनात्मक सोचते-समझते हुए मेरे ब्लाग के नाम अनुनाद को एक पत्रिका के रूप में पंजीकृत करा साहित्यिक पत्रकारिता करने की ओर कदम बढ़ाने लगे हैं। जाहिर है कवि होने जैसी कोई महत्वाकांक्षा वे नहीं रखते पर उनके हाथ का लिखा ये पन्ना पिछले दिनों बिना उन्हें बताये चुपचाप उठा लाया. इस कविता(?) को यहां छाप रहा हूं यानी एक पिता को उनके बेटे की शुभकामनाएं। उम्मीद है इस पोस्ट के निजत्व को भी अनुनाद के पाठक समझेंगे और इस बहाने मेरे काव्य संस्कारों के आदिस्त्रोत की शिनाख़्त भी वे कर पायेंगे।
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वे ही वे रहेंगे
किसी और को नहीं रहने देंगे
इक्कीसवीं सदी में
ग़रीबों को तो बिलकुल नहीं

एक भुतहा मकान जैसी
अपनी दुनिया में
वे एक-दूसरे से टकराते हुए
भूतों की तरह घूमेंगे

उन्हें नहीं मालूम
उनके उस भुतहा मकान के
बाहर भी होगी एक दुनिया
ठीक वैसे ही जैसे –
एक आकाशगंगा के बाद होती है
एक और आकाशगंगा

बची हुई मानवता के पौधे
वहीं लहलहायेंगे
वहीं सुनाई देगी
मुक्तिबोध की `धुकधुकियों´ की आवाज़

उसी खण्डहर से, उसी टीले से
नई कोंपलें फूटेंगी
और रचेंगी नया संसार

भुतहा मकान जैसी
उस दुनिया के बाहर भी
एक दुनिया होगी
और वहां होगी `मानव के प्रति
मानव के जी की पुकार
कितनी अनन्य´

सुनकर होगी
यह धरा धन्य !

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0 thoughts on “भुतहा मकान के बाहर : मुक्तिबोध के लिए – हरि मौर्य”

  1. बस ब्रेख्ट की वह पंक्ति…नई शुरुआत कभी भी हो सकती है,अंतिम सांस के साथ भी…

  2. भुतहा मकान को सुंदर मकान में बदलने के लिए कवि के साथ एक परिवर्तनकारी संवेदनशीलता की अधिक आवश्यकता है,जहाँ उग्रता न हो, प्रतिशोध भी न हो, सच्चा मकान तभी बन सकेगा इधर भारत की गरीब बस्तियों में…

  3. 'वहीं सुनाई देगी ;मुक्तिबोध की धुकधुकियों की आवाज' अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने पड़ेंगे …तोड़ने ही होंगे गढ़ और मठ. और जब जागें तभी से सवेरा हो सकता है. मुक्तिबोध का 'अनुनाद' करने का ढंग ही निराला है !!!!!!

  4. बहुत सुंदर।
    फार्म और कथ्य दोनों में। उन्हें नियमित लिखने को कहो। बड़ों से जितना लिखवाया जा सके, लिखवाना चाहिए। यही तो हमारे दस्तावेज हैं।

  5. एक उम्मीद लगातार चलती है समानांतर.कविता आश्वस्त करती है.

    उस अविछिन्न परंपरा को प्रणाम,भले ही उसका रास्ता बिलकुल पूर्ववर्ती जैसा होने की शर्त से जुड़ा न हो.

  6. शिरीष भाई
    नमस्‍कार
    यह जानकर प्रसन्‍नता हुई कि आपके काव्‍य-संस्‍कारों पर पिता की छाया है. हालॉंकि मैंने उन्‍हें पहले कभी नहीं पढ़ा है लेकिन उनकी इस एक कविता से ही उनकी क्षमताओं का सहज अहसास किया जा सकता है.
    यह जानकर और भी प्रसन्‍नता हुई कि सेवानिवृ‍त्ति के बाद वे फिर रचनात्‍मक सोच के साथ हिंदी मैदान में उतर गये हैं. आपके ही ब्‍लॉग 'अनुनाद' के नाम से साहित्यिक पञिका के प्रकाशन की योजना है. यह हिंदी के लिए शुभ एवं सुखद समाचार है.
    उम्‍मीद है 'अनुनाद' साहित्‍य के पूर्वग्रहों-दुराग्रहों को तिलांजलि देते हुए अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करेगी. मेरी शुभकामनाएं स्‍वीकारें…

    प्रदीप जिलवाने, खरगोन

  7. yah naya parichay hai: kavi putra. par yah ek bahut anubhav hota hoga.
    ham jaise to apne ghar mein isliye arse tak ajnabee aur azooba rahe ki ham lekhak ho gaye. khoob fatkar thee lekhak jaisa nikamma kuchh ho jane. uncle ke liye shubhkamnayen.

  8. {matlb aap pita ji se kameez aur kavitaaye dono dete-lete rahte hain}……ekdam taazi aur nai hai…..kya anunaad inki aur kavitaaye aur sath hi puraani gazlen bhi padwayega..

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