अनुनाद के भले दिन लगे हैं। मनोज के बाद अब हमें गिरिराज की कविताएँ मिली हैं। एक आम शिकायत है कि गिरि की कविताओं में कला है ! उसे महज कलाकार मानने और दूसरों से भी ऐसी उम्मीद रखने वाले बहुत सारे आत्मीय मित्र हैं मेरे। जी हाँ… इनमें कला है लेकिन वो कला, जो जीवन के मरुथल में चलकर हासिल होती है। देखिये न हमारे सामान्य कार्यव्यवहार में भी तो कला है….और जब हम आम आदमियों में से कोई कवि होने की तरफ क़दम बढ़ाता है तो तब क्या वह अपने लोगों के पक्ष में कलाकार होने का फैसला नहीं ले रहा होता? कवियों में ही देखें तो हमारे प्रेरणापुंज निराला, मुक्तिबोध, शमशेर, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, आलोक धन्वा, विष्णु खरे, वीरेन डंगवाल, मनमोहन, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, असद ज़ैदी में भी कितनी तो कला है। हाँ, ज़रूरत है सहाय जी के उस अमर वाक्य को याद रखने की …जहाँ कला बहुत होगी विचार कम होगा… गिरि की कला उसे सब्जी बेचने वाली, जीसा, क़त्ल कर दिए गए या ज़हर पीकर मर चुके बेरुजगार लोगों के बीच ले जाती है ; जिन्हें वह एक अद्भुत आत्मीय और आंतरिक टीस से भरी भाषा के सहारे अपने भीतर की बस्ती में आबाद रखता है। उसका कवि आम जनता की तकलीफों और उसके भीतरी हाहाकार का कवि है इसलिए निश्चित रूप से यहाँ विचार भी बहुत है। पता नहीं गिरि इस बारे में क्या सोचता है पर मेरे लिए वह विचार का ही कवि है। गिरि की कविताओं के वैचारिक संसार और उसके बेहद स्पष्ट संघर्षों की एक छोटी सी झलक मैं यहाँ लगा रहा हूँ।
कविता प्रतियोगिता के निर्णायक का आत्म-निवेदन
उन्हें पता था कविता की एक भाषा होती है
जैसे –
“दिल से कलम तक
जीवन है जब तक”
“दिल से जो चाहे वो मांग लो खुदा से
हम दुआ करते रहेंगे वो सब मिल जाये तुमको”
“वो आँखों का नूर वो जिगर का टुकड़ा
जो दो माओं का पूत था
एक थी उसकी विधवा माँ,
दूजी धरती को उसने माना था”
“यह कैसी मानवता, कैसा है समाज
कुत्ता रमता है कार में, बच्चा तड़पत दिन रात” –
उनमें से बहुत से सिर्फ उन कुछ घंटों के लिए ही कवि थे
उनकी कविताओं में संसार बस खत्म होने ही वाला था
वे किसी ट्रेन को भागते हुए पकड़ लेने ही वाले थे
सीमा पर मरने वालों जवानों को उनके अलावा हर कोई भूल जाने ही वाला था
आखिरी हरी पत्ती पर तेजाब गिरने ही वाला था
आतंक से आखिरी मनुष्य भी मरने ही वाला था
मृत
अलंकृत
भाषा के एक दूसरे द्वीप पर
अपने उस पल कवि होने की प्रसन्नता और घबराहट के साथ
मंडरा रहे एक निर्लज्ज उचक्के को
पुरस्कार दिया मैंने
कितने अच्छे भरे पूरे थे तुम सब जब तक
कवि बन कर नहीं आये थे
बस एक ही दिन के,
इतने ही अभिनय के कवि बनके रह जाना
यह इस्लाह नहीं आशीष है, मेरे बच्चों
खुश रहो
***
उन्हें पता था कविता की एक भाषा होती है
जैसे –
“दिल से कलम तक
जीवन है जब तक”
“दिल से जो चाहे वो मांग लो खुदा से
हम दुआ करते रहेंगे वो सब मिल जाये तुमको”
“वो आँखों का नूर वो जिगर का टुकड़ा
जो दो माओं का पूत था
एक थी उसकी विधवा माँ,
दूजी धरती को उसने माना था”
“यह कैसी मानवता, कैसा है समाज
कुत्ता रमता है कार में, बच्चा तड़पत दिन रात” –
उनमें से बहुत से सिर्फ उन कुछ घंटों के लिए ही कवि थे
उनकी कविताओं में संसार बस खत्म होने ही वाला था
वे किसी ट्रेन को भागते हुए पकड़ लेने ही वाले थे
सीमा पर मरने वालों जवानों को उनके अलावा हर कोई भूल जाने ही वाला था
आखिरी हरी पत्ती पर तेजाब गिरने ही वाला था
आतंक से आखिरी मनुष्य भी मरने ही वाला था
मृत
अलंकृत
भाषा के एक दूसरे द्वीप पर
अपने उस पल कवि होने की प्रसन्नता और घबराहट के साथ
मंडरा रहे एक निर्लज्ज उचक्के को
पुरस्कार दिया मैंने
कितने अच्छे भरे पूरे थे तुम सब जब तक
कवि बन कर नहीं आये थे
बस एक ही दिन के,
इतने ही अभिनय के कवि बनके रह जाना
यह इस्लाह नहीं आशीष है, मेरे बच्चों
खुश रहो
***
पिटा हुआ वाक्य
सपने देखता हूँ कहने से पाठक सोचता था जो उसके पास नहीं वैसा कोई चश्मा है मेरे पास जिसे पहनने पर दिखते हैं सपने पाठक है कहने से लगता था कोई है जिसे लगातार धोखा दे रहा हूँ धोखा दे रहा हूँ कहने पर वह समझती फिर से कोई माया फैला रहा हूँ फिर से माया फैला रहा हूँ की कल्पना करने पर कुछ ऐसा नजारा होता सब कुछ नष्ट हो रहा है सब कुछ होना बचा रहेगा एक मंत्र है सब कुछ होना बचा रहेगा एक मंत्र है बुदबुदाने पर वे हंसते सब कुछ रहेगा ही तो नष्ट होने बचाने की बात षडयंत्र है बात षडयंत्र है कहने पर चेहरा गिर पड़ता अपार रेलमपेल में
कुचले हुए चेहरे से पहचान सको तो अपना दिल तुम्हें देता हूँ अपनी जान तुम्हारे नाम करता हूँ
कितना सूकून है यह जानने में तुम हँस कर उड़ा दोगे अगर कोई कहेगा मेरे दिलदार कि यह अंतिम वाक्य एक पिटा हुआ वाक्य था
(रघुवीर सहाय की उपस्थिति के नाम श्रृंखला से)***
(रघुवीर सहाय की उपस्थिति के नाम श्रृंखला से)***
मातृभाषा-मृतभाषा
राजस्थानी कवि और मित्र नीरज दइया के लिए
वह कुछ इतने सरल मन से, लेकिन थोड़ा शर्मसार खुद पर हंसते हुए यह बात बोल गया कि यकीन नहीं हुआ यह सचमुच प्रेम में होने वाली भूल जैसी कोई बात है
राजस्थानी कवि और मित्र नीरज दइया के लिए
वह कुछ इतने सरल मन से, लेकिन थोड़ा शर्मसार खुद पर हंसते हुए यह बात बोल गया कि यकीन नहीं हुआ यह सचमुच प्रेम में होने वाली भूल जैसी कोई बात है
उसे कविता उसके जीसा सौंप गये थे या शायद कविता को उसे जीसा जिन्होंने कभी कोटगेट पर कोई कविता नहीं लिखी पर आपनी एक कविता में जीसा का श्राद्ध करते हुए उसने एक पत्तल कोटगेट के लिए भी निकाली थी और मुझे तो उसे देखते ही उसके उन्हीं जीसा की भावना होती थी कभी देखा नहीं जिन्हें मैंने
हाँ सिर्फ प्रेम में ही ऐसा हो सकता है मैंने देखा मेरे सामने चार भाषाओं के नाम लिखे हैं और उनमें एक मेरी भाषा भी है हाँ यह प्रेम ही था मृत को मातृ पढ़ा मैंने और चाहे कोई गवाह नहीं था किसी ने नहीं देखा पर अपनी भाषा को मृत कहा मैंने यकीन मानो यह सिर्फ़ प्रेम के कारण हुआ वह भाषा जो जीसा सौंप गये थे मुझे उसे मृत लिखा मैंने
यह उसके कहे हुए का अनुवाद है
मैं कविता ‘उसकी’ मातृभाषा में नहीं लिखता
यह जानता है वो
अनुवाद में जीसा को जीसा ही लिखना कहा उसने
***
उन गर्मियों में
इस नन्ही-सी, नाटी-सी, कमजोर नजर मालिन से ही
लेना है मुझे पुदीना, पालक कोई हरा साग
पर ऊधो-सी चतुर व्यौपारिन ताड़ गई है
खोटे हैं सिक्के मेरे और थमा दे रही है ठूंठ
इन सिक्कों का यही मोल है प्यारे
जाओ किसी और को बहकाओ
यहां तो बरसों का मंदा है
इस सूखे में न आग लगाओ
***
लेना है मुझे पुदीना, पालक कोई हरा साग
पर ऊधो-सी चतुर व्यौपारिन ताड़ गई है
खोटे हैं सिक्के मेरे और थमा दे रही है ठूंठ
इन सिक्कों का यही मोल है प्यारे
जाओ किसी और को बहकाओ
यहां तो बरसों का मंदा है
इस सूखे में न आग लगाओ
***
सकुशल
यह कुछ इतनी सादा सरल भोली बात है
कि आप इस पर शक करेंगे
मुझे मूर्ख नहीं मक्कार समझेंगे
पर फिर भी मैं आपको बताना चाहता हूं कि
जो जला दिये गये
जिन्हें गोली मार दी गई
लटका दिया गया
वे मेरे भीतर आबाद बस्ती में सकुशल हैं
जो डूब गये
जिन्होंने नसें काट लीं
जहर पी लिया
वे वहां बिल्कुल ठीक हैं
आपको भरोसा तो नहीं दिला सकता पर
उसमें से कुछ को रुजगार मिल गया है
कुछ का घर बस गया है
कईयों की इज्ज़त बन गयी है
आप इसे चाहें तो षड़यंत्र समझें पर
वे जो गायब कर दिए गये
भुला दिए गये
फेंक दिए गये
वे वहां अपने पूरे कुनबे के साथ राजी-खुशी हैं
आपसे नहीं पूछूंगा कि आपके भीतर ऐसी कोई बस्ती है कि नहीं?
(अंतिम दोनों कविताएं कुछ बरस पहले पंकज चतुर्वेदी ने वागर्थ में प्रकाशित की थी, उन्हीं के लिये)
***
छोटी देखकर सबसे पहले "उन गर्मियों में पढ़ी" निकलने को था लेकिन फिर सब पढ़नी पढ़ीं।
अच्छी कविताएँ ….. अपने कथ्य मे बेजोड़ ।
bhai shirish ji,
vande !
giriraj ji kiradoo ki char kavitayn juta kar mere liye upkar jaisa kam kiya hai aapne.bahut arsa ho gaya tha unhe padhe sune.aaj unhe aapke blog par pdh kar utsav sa aanand pa gaya hun.samajh nahi aa raha ki aapko sadhuwad dun ya badhai!
chalo naman hi hai uchit!naman!
bookmarked… hamesha yaad rakhne layak post… shukriya…
यह अनुनाद पर की मुझे अब तक की सबसे अच्छी पोस्ट लगी है… कवितायेँ तो माशाल्लाह हैं ही रघुवीर सहाय की लाइन दिल को छू गयीं… शुक्रिया… मैंने टेक्स्ट को कॉपी करने की कोशिश की पर नहीं हुई… सर, कृपया इस पोस्ट को इ-मेल कर दें मैं प्रिंट आउट रखना चाहता हूँ..
giriraj ji,aapki sa-kushal kavita ka jawab nahi…apni saralta me bhi ye itni gambhir bat kah jati hai ki irshya hone lagti hai…kaash mere naam bhi hoti itni shreshth kavita…
yadvendra
kavi ki kavita ko naman.
shirish jee.
saadar ,
giriraj kiradoo jee ki kavitae apne alag hi roop me ek alag hi ras liye hoti hai oonki kavitae bahut samay ke baad padhne ko mili ,os liye aap ka bhi aabhar aur giriraj jee ko sadhuwad.
वक्तव्य के बरअक्स इन्हें पढ़ना और बेहतर लगा…
सच कहा है अपने गिरिराज जी की कविता में कला भी है और विचार भी ..ये किसी युग में किसी कवि का ,उसकी भाषा का और उसके कथ्य का क्लासिकल हो जाने जैसा है !
सच्ची कविताएँ…आभार. धन्यवाद.
महेश वर्मा
विचार ही कला से संपोषित होते हैं।ये कविताएं कुछ अलग तरह की कविताएं हैं।अन्य कवियों से कुछ अलग।पढ़कर आनंद आया।कथ्य के रूप में गाम्भीर्यता की उपस्थिति बनी रही है।