गाज़ा में कविता है लापता
एक कहता है कि उसे गटर से बहते हुए
दूजा खबर देता है कि बम फटने से मलबे और मिट्टी में बदल गई
हो सकता है वह हो खुली हवा में बने मुर्दाघर में
उन बच्चों की लाशों के बीच
हिलोरे लेती सड़कों पर
उसका पीछा कर रहे हैं लोग लौह मुस्कानों वाले
जिनकी साँसों से आती है गोला-बारूद की गंध
जिनकी माइक्रो–प्रोसेसर सी आँखें देखती हैं हर जगह
सिवाय दिल के
गाज़ा में कविता है लापता
लौह मुस्कानों के बड़े मंसूबे हैं
वे दीवार बना देंगे कविता के इर्द-गिर्द
क़ैद कर देंगे उसे तडपाएंगे उसे चुरा लेंगे उसकी ज़मीन
काट डालेंगे जैतून के पेड़ और
धीरे धीरे मारेंगे भूखा कविता और उसके बच्चों को तब तक
जब तक उनमें बचे न कुछ भी
पर कविता बचती है लौह मुस्कानों से
लंगड़ों से लूलों से बहरों से अंधों से
और पहुँचती है उसी चौपाटी पर
जहाँ पिकनिक मनाता एक परिवार मारा गया गोलीबारी में
कविता लहरों को नहीं सुन सकती
और न देख सकती है आसमान को जर्द पड़ते हुए
पर वह महसूस करती है गर्म रेत को
और सूंघ लेती है शाम के खुशबूदार हाथों को
और कविता याद कर सकती है
मार दिए गए बच्चों को याद कर फिर जिंदा कर सकती है कविता
याद कर सकती है गाँवों को जो गायब कर दिए गए इस धरती से कहीं अलग
घर लौटते शरणार्थियों के स्वागत में बाहें पसारे
कविता याद कर सकती है जैतून के बागों से होकर बहती शर्मीली हवाओं को
और कविता जो याद करती है वह बन जाता है एक गीत
और वह गीत उठ खड़ा होता है
और चौपाटी से चलने लगता है गाँवों और क़स्बों के उजाड़ की ओर
जहाँ से उठ रहा है धुआँ
गीत को लौह मुस्कानें नहीं सुन पातीं क्योंकि उनके दिमागों में है धमाके
और कानों में भरा है खून
लोग मगर सुन सकते हैं हौले से गाना शुरू करते हैं
नहीं मिटेंगे हम और न ही मरेंगे.
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*डोरा मैक्फ़ी की बनाई चारकोल-पैस्टल तस्वीर ‘ हॉस्टेज इन गाज़ा’ ऑस्ट्रेलियंस फॉर पैलेस्टाइन की वेबसाइट से साभार
असर दार है भाई, शुक्रिया.