इस वर्ष फरवरी में ७३ वर्ष की आयु में स्तन कैंसर से १६ वर्षों तक जूझने के बाद प्रसिद्ध अमेरिकी अफ़्रीकी कवियित्री लूसिले क्लिफ्टन (१९३६-२०१०)का निधन हुआ.अमेरिका में उन्हें अपनी अश्वेत बिरासत का गर्व करने के साथ साथ बेवाकी,चुटीलेपन और स्त्रीवादी सोच के लिए भी याद किया जाता है…स्त्री शरीर को महिमामंडित करने का कोई मौका उन्होंने अपनी कविताओं में नहीं छोड़ा…गर्भाशय, कूल्हे, गर्भपात, स्तन और मासिक स्राव जैसे विषयों पर लिखी उनकी कविताओं का अमेरिकी साहित्य में सम्मान जनक स्थान है. मजदूर माता पिता की संतान—कविता लिखने की प्रेरणा उन्हें माँ से मिली जिनकी कवितायेँ पिता ने कभी छपने नहीं दीं,पर अपनी संकल्प शक्ति से उन्होंने अपना संकलन छपवाया.बचपन की इस घटना को वे जीवनपर्यन्त भूली नहीं और स्त्रियों के जीवन में अन्याय के प्रतीक के तौर पर अंतिम दिनों तक स्मरण करती रहीं.अक्रिब दर्जन भर काव्य संकलन उन्होंने प्रकाशित किये–१९६९ में पहला–साथ ही बच्चों के लिए भी उन्होंने खूब लिखा.अमेरिका के अनेक बड़े विश्व विद्यालयों और कालेजों में उन्होंने अध्यापन किया,अमेरिका के लगभग सभी बड़े पुरस्कार और सम्मान उन्हें मिले–१९७९-८५ के दौरान वे मेरीलैंड राज्य की राज कवि भी रहीं. यहाँ प्रस्तुत है उनकी कुछ चुनिन्दा कवितायेँ…
अपने कूल्हों की शान में ये कूल्हे खूब हृष्ट पुष्ट हैं
और काफी जगह चाहिए
इन्हें हिलने डुलने को..
कोनों अंतरों में ये भला कहाँ समा पाएंगे
ये तो आजाद कूल्हे हैं..
इन्हें बंध कर रहना बिलकुल नहीं भाता
न ही ये कभी गुलाम हो कर रहे..
जहाँ जी चाहे,चले जाते हैं
जो जी करे,कर लेते हैं
ये मजबूत कूल्हे हैं
ये जादू भरे कूल्हे हैं…
मैं खूब वाकिफ हूँ
कि कैसे जकड़ लेता है इनका सम्मोहन
मर्दों को अपने पाश में
और फिर नचाता फिरता है
नन्ही फिरकी की मानिंद…
***
अपने कूल्हों की शान में ये कूल्हे खूब हृष्ट पुष्ट हैं
और काफी जगह चाहिए
इन्हें हिलने डुलने को..
कोनों अंतरों में ये भला कहाँ समा पाएंगे
ये तो आजाद कूल्हे हैं..
इन्हें बंध कर रहना बिलकुल नहीं भाता
न ही ये कभी गुलाम हो कर रहे..
जहाँ जी चाहे,चले जाते हैं
जो जी करे,कर लेते हैं
ये मजबूत कूल्हे हैं
ये जादू भरे कूल्हे हैं…
मैं खूब वाकिफ हूँ
कि कैसे जकड़ लेता है इनका सम्मोहन
मर्दों को अपने पाश में
और फिर नचाता फिरता है
नन्ही फिरकी की मानिंद…
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१९९४ *मैं पूरे ही करने वाली थी चौवनवां साल
तभी बर्फ का अंगूठे जैसा गोला
जोर से आ के टकराया मेरे दिल के पास
हर किसी की होती है अपनी कहानी
तजुर्बे दहशत के,आंसुओं के
ना यकीनी के दाग धब्बे और निशान
ये तो जगजाहिर है
कि सबसे मनहूस झूठ बोलते हैं
हम खुद से ही…
तुम्हे मालूम ही होगा कितना खतरनाक होता है
दो स्तनों के साथ इस दुनिया में कदम रखना
तुम्हे ये भी मालूम ही होगा कितना खतरनाक होता है
काली चमड़ी के साथ इस दुनिया में कदम रखना…
तभी बर्फ का अंगूठे जैसा गोला
जोर से आ के टकराया मेरे दिल के पास
हर किसी की होती है अपनी कहानी
तजुर्बे दहशत के,आंसुओं के
ना यकीनी के दाग धब्बे और निशान
ये तो जगजाहिर है
कि सबसे मनहूस झूठ बोलते हैं
हम खुद से ही…
तुम्हे मालूम ही होगा कितना खतरनाक होता है
दो स्तनों के साथ इस दुनिया में कदम रखना
तुम्हे ये भी मालूम ही होगा कितना खतरनाक होता है
काली चमड़ी के साथ इस दुनिया में कदम रखना…
मैं पूरे ही करने वाली थी चौवनवां साल
कि अचानक आ गिरी ठन्डे और मरणशील देह के
बर्फीले बियावान में
बर्फ के बारीक धागे यहाँ वहां टंगे हुए
और एक पगलाया सा स्तनाग्र बिलखने लगा
होकर बेकाबू
यदि हम ईश्वर की अच्छी भली संतानें न होते
तो न मिल पाती हमें इस धरती की बिरासत..
पर अफ़सोस ये सब जानने के वास्ते
हमें जीना ही पड़ेगा एक अदद ठिठुरता हुआ जीवन
पूरा पूरा…
*इसी साल कवियित्री को स्तन कैंसर होने की सूचना मिली.
***
झड़ती पत्तियों की सीखझड़ती पत्तियों की सीख.. …
पत्तियों को भरोसा है
कि ऐसे झड़ना प्रेम है..
ऐसा प्रेम आस्था है
आस्था शालीनता है
शालीनता ही तो ईश्वर है..
और मेरा सिर हिलता है
पत्तियों की हाँ में हाँ मिलाता हुआ…
***
पत्तियों को भरोसा है
कि ऐसे झड़ना प्रेम है..
ऐसा प्रेम आस्था है
आस्था शालीनता है
शालीनता ही तो ईश्वर है..
और मेरा सिर हिलता है
पत्तियों की हाँ में हाँ मिलाता हुआ…
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नृशंसता
मुझसे नृशंसता की बाबत कोई गुफ्तगू मत करो
या यह भी मत पूछो कि क्या क्या कर सकती हूँ मैं..
जब मन में आया कि तिलचट्टों को मारना है तो बिलकुल यही आया
और मैंने उन्हें मार डाला…झाड़ू से बुहार कर घर से बाहर फेंक भी दिया
पहले से चेताये बिना उन्हें कुचला रौंदा..एक पल को सुस्ताई भी नहीं
और ये सब करते हुए मैं मुस्काती भी रही अनवरत..
ये तिलचट्टों का होलोकास्ट था..चारों ओर बिखरे हुए
तिलचट्टे ही..उनकी टाँगें…उनके पंख..फर्श चपचप लाल..
मैंने पूछे नहीं उनके नाम पते
उनमे जानने जैसा मिलता भी क्या…
अब जितनी बार भी कमरे के अन्दर दाखिल होती हूँ..चौंक के ख़ुद को देखती हूँ
मुझे ख़ुद भी नहीं मालूम था क्या क्या कर सकती हूँ मैं…
***
या यह भी मत पूछो कि क्या क्या कर सकती हूँ मैं..
जब मन में आया कि तिलचट्टों को मारना है तो बिलकुल यही आया
और मैंने उन्हें मार डाला…झाड़ू से बुहार कर घर से बाहर फेंक भी दिया
पहले से चेताये बिना उन्हें कुचला रौंदा..एक पल को सुस्ताई भी नहीं
और ये सब करते हुए मैं मुस्काती भी रही अनवरत..
ये तिलचट्टों का होलोकास्ट था..चारों ओर बिखरे हुए
तिलचट्टे ही..उनकी टाँगें…उनके पंख..फर्श चपचप लाल..
मैंने पूछे नहीं उनके नाम पते
उनमे जानने जैसा मिलता भी क्या…
अब जितनी बार भी कमरे के अन्दर दाखिल होती हूँ..चौंक के ख़ुद को देखती हूँ
मुझे ख़ुद भी नहीं मालूम था क्या क्या कर सकती हूँ मैं…
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क्या तुम मेरे साथ साथ खुशियाँ नहीं मनाओगे? क्या तुम मेरे साथ साथ खुशियाँ नहीं मनाओगे
कि किस मशक्कत से
मैंने गढा है अपने जीवन का स्वरुप?
मेरे सामने नहीं थी कोई माडल
बेबीलोन में जनमी हुई
दुर्भाग्य से मैं थी भी दोनों ही..अश्वेत और स्त्री
अपने सिवा कुछ भी तो नहीं था सामने
जिसे देख देख के बड़ा होना सुकून देता..
ऐसे ही बढ़ाये मैंने कदम पुल के ऊपर
जिसके एक छोर पर थी तारों से टिमटिमाती रात
तो दूसरे पर थी धूल मिटटी
मेरा एक हाथ कस के थामे रहा मेरा दूसरा हाथ…
आओ मेरे साथ मनाओ खुशियाँ
कि कोई न कोई साधता रहा मुझपर निशाना
मार डालने को हार रोज बिला नागा
पर अंत में निराशा ही हाथ लगी उसके
अपनी चूक दर चूक पर…
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कि किस मशक्कत से
मैंने गढा है अपने जीवन का स्वरुप?
मेरे सामने नहीं थी कोई माडल
बेबीलोन में जनमी हुई
दुर्भाग्य से मैं थी भी दोनों ही..अश्वेत और स्त्री
अपने सिवा कुछ भी तो नहीं था सामने
जिसे देख देख के बड़ा होना सुकून देता..
ऐसे ही बढ़ाये मैंने कदम पुल के ऊपर
जिसके एक छोर पर थी तारों से टिमटिमाती रात
तो दूसरे पर थी धूल मिटटी
मेरा एक हाथ कस के थामे रहा मेरा दूसरा हाथ…
आओ मेरे साथ मनाओ खुशियाँ
कि कोई न कोई साधता रहा मुझपर निशाना
मार डालने को हार रोज बिला नागा
पर अंत में निराशा ही हाथ लगी उसके
अपनी चूक दर चूक पर…
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behtareen…shukriya.
पत्तियों को भरोसा है की ऐसे झड़ना प्रेम है…
बहुत अच्छी कवितायेँ और कवित्री के बारे में
जानकारी भी.
बहुत सुन्दर कविताएँ. कई दिन बाद नेट पर आने का मौका मिला. इस कवि को पढना एक अनुभव है. शुक्रिया यादवेन्द्र जी.
गत मार्च में वाशिंगटन डी सी में हुए स्प्लिट दिस रॉक पोएट्री फेस्टिवल में मेहमूद दरवेश,डेनिस ब्रुटुस, हॉवर्ड ज़िन और लुसील क्लिफ्टन की स्मृति में एक कार्यक्रम था. क्लिफ्टन में २००८ में हुए पहले स्प्लिट दिस रॉक में शिरकत की थी; श्रद्धांजलि समारोह में उनके परिचितों/प्रशंसकों ने उनसे जुड़े अपने अनुभव सुनाये. अफ्रीकी-अमेरिकी समाज की जटिलता, उसकी रिचनेस में गहरे डूबी कविताओं को रचने वाली इस रचनाकार को मैंने वहीं से जाना. फेस्टिवल की स्मरणिका में उनके बारे में एक मौजूं पंक्ति कहती है -'Poetry is a matter of life, not just a matter of language' यह क्लिफ्टन ने हमें सिखाया.
इन कविताओं के लिए यादवेन्द्र जी का शुक्रिया.
आपका आभार, एक महान कवियित्री से मिलवाने के लिए, कमाल की रचनाएँ है !