दुनिया से विदा हुई दादी के बारे में
सोचता है उसका पोता
बड़े से फ्रेम में उसके चित्र को देखता।
विस्तार में फ्रेम को घेरे उसका चेहरा
बेशुमार झुर्रियां लिए
जिनमे तह करके रखा है उसने अपना समय।
समय जो साक्षी रहा है
कई चीज़ों के अन्तिम बार घटने का।
अनगिन बार सुना है जिसने
समाप्त हो चुकी पक्षी प्रजातियों का कलरव
बहुत से ऐसे वाद्यों का संगीत
जो अब धूल खाए संग्रहालय की
कम चर्चित दीर्घा में पड़े हैं
या हैं जो किसी घर की भखारी में
पुराने बर्तनों के पीछे ठुंसे हुए।
देखा है जिसने
शहर के ऐतिहासिक तालाब को
चुनिन्दा अच्छी बारिशों में लबालब होते
फ़िर बेकार किए जाते
अंततः कंक्रीट से पाटे जाते।
देखा है जिसने
घर के सामने
खेजड़ी को हरा होते और सूखते
अन्तिम बार हुए
किसी लोकनाट्य के रात भर चले मंचन को भी।
कितने ही लोक संस्करण बोले हैं
इसने राम कथा और महाभारत के
जिन्हें उनके शास्त्रीय रूपों में
कभी जगह नहीं दी गई।
बताती थीं वो
कि पांडवों का अज्ञात वास
उसके पीहर के गाँव में ही हुआ था
जहाँ भीम के भरपेट खाने लायक
पीलू उपलब्ध थे
और अर्जुन ने वहीं सीखा था
ऊँट पर सवारी करना।
उसके हाथों ने, जो दिखाई नही दे रहे थे फोटो में
इतना जल सींचा था
जिनसे विश्व की समस्त नदीयों में
आ सकती थी बाढ़
कदम उसके इतनी बार
चल चुके थे इसी घर में
कि जिनसे की जा सकती थी
पृथ्वी की प्रदक्षिणा कई कई बार
इतनी सीढीयाँ वे चढ़ चुके थे घर की
कि जिनसे किए जा सकते थे कई
सफल एवरेस्ट अभियान
और इतनी दफा वे उतर चुके थे
घर के तहखाने में
जो पर्याप्त था
महासागरों के तल खंगालने को।
यद्यपि मृत्यु से पहले
सवा दो महीने तक
वो घर के अंधेरे कमरे में
शैय्या-बद्ध रही
पर हाँ अभी ही मिला था उसे अवसर
अपनी दुनिया में विचरने का
उसे पहली बार आबाद करने का।
अनूप ले रहे हैं मौज : फुरसत में रहते हैं हर रोज : तितलियां उड़ाते हैं http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/06/blog-post.html सर आप भी एक पकड़ लीजिए नीशू तिवारी की विशेष फरमाइश पर।
कुछ सुंदर कवितापंक्तियों और काव्यातिरेकों के साथ एक अच्छी कविता.. लेकिन अंत में आई पंक्तियों का सन्दर्भ समझ नहीं पा रहा कि-
पर हाँ अभी ही मिला था उसे अवसर / अपनी दुनिया में विचरने का / उसे पहली बार आबाद करने का/
कवि को बधाई.
महेश वर्मा, अंबिकापुर,छत्तीसगढ़.
संजय मेरे प्रिय लिखने वालो में से एक है .कविता के आलावा उनके गध को मै जीवन के देखने का एक माक्रोस्कोप मानता हूँ ….ये कविता भी कई अनुभूतियो की पड़ताल करती है
ओर हाँ आपका ब्लॉग मोज़िला में खुल नहीं पा रहा है…….देखिये क्या टेक्नीकल प्रोब्लम है
ऐसा क्या है भाई कि एक बेहद औसत कवि पर आप अनुनाद का इतना स्पेस जाया कर रहे हैं?
पिछली कविता पर जो कमेंट आये वे ही काफ़ी थे और अब यह बेहद साधारण और घिसी-पिटी कविता!!
waah bahut sundar
सुंदर कविता, जिस में इतिहास और देश बोलता है।
अच्छी कविता…
औसत और सर्वोत्तम के उपमान पाठक की भीतरी समझ से उपजते हैं. संजय भाई की कविताएं मेरे अंदर कौतुहल जगाने का कारक रही हैं उन्हें पढ़ना सुखद ही लगा है. इस श्रंखला के लिए अनुनाद का आभार.
सच दादियों के पास होते हैं …ख़ज़ाने …बहुत अच्छी कविता …मेरी अपनी दादी से जुड़ती है कहीं ..