अनुनाद

अमित श्रीवास्तव की लम्बी कविता

महाकुम्भ
हज़ारों हज़ार साल पुराना हिन्दू धर्म (?) ख़तरे में है बचाओ

एक सौ आठ फीट लम्बी धर्म ध्वजा
जो महज सहजता के लिये
बावन फीट की भी हो सकती है
और जिसकी लकड़ी के लिए
(वो तो एक साधू ने सगर्व बताया
कि ये पूरा लम्बा लट्ठ एक ही पेड़ का है
कहीं कोई जोड़ नहीं)
घने जंगलों की ख़ाक छानी गई है
जिसे धरती के पेट से निकालने में उत्सव था
अखाड़ा परिसर के बीचों-बीच लगाने में
उत्सव था
जो अपने जैसी कई ध्वजाओं
(एक ही धर्म की अनेक ध्वजाएं
इस बात को बताती है अनायास
कि यहॉ सबको विचार की, चुनाव की
और अपने मत के
अन्धाधुन्ध प्रचार की स्वतंन्त्रता है)
के साथ बीच आकाश तनी मुस्कराती है
उससे बचेगा

या बचेगा धर्म
लम्बे पेशवाई जुलूसों और शोभा यात्राओं से
जिसमें
फिल्मी धुनों पर जबरन
भक्ति के शब्द उड़ेसे गाने वाले बैण्ड
जो बहरी हो रही सभ्यता
के कान के पर्दों पर
गैर जिम्मेदाराना शोर भर हैं

और
चमकीली छतरियों वाली बग्धियॉ
जिनको खींचने वाले घोड़े खच्चर
और गाड़ीवान
भोजन और दिहाड़ी में मिले पैसों
के गुणागणित से ज्यादा
उन अफवाहों से चिन्तित हैं
जिनमें प्रशासन द्वारा जुलुस के आकार-प्रकार
और संख्या पर असफल आत्म मुग्ध और
दिल बहलाऊ सवाल खड़े किये जा रहे हैं
ये अलग बात है कि साल के उन शुरुआती महीनों में
अखाड़ा हर सवाल पर हावी है

और
तलवारबाजी और गतके के साथ
नटबाजियॉ दिखाते
नंग धड़ग कुछ लोग
जो हर जुलूस में इतने ही जोश के साथ
उूल जुलूल उछलकूद मचाते हैं
गो कि इनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं
उन धर्मोपदेशों से
जिनके वाचक
उनके ठीक पीछे
चमकीली छतरियों वाली
बग्घियों में विराजमान हैं

और
हाथी
जो उधार के विचार की तरह
हर जुलूस में शामिल हैं
अलमस्त ,गैर जिम्मेदार, अजीर्ण

और
अभी-अभी दीक्षा प्राप्त
भभूत, जटा और चिलम के ट्रेडमार्कवाले
नागा साधू
जो मौसम की अठखेलियों को
बद्तमीजी करार देते हुए
थर-थर कांप रहे हैं

ये सब शामिल हैं
और शामिल हैं पुलिस वाले
जिन्हें जटाजूट शिखाओं से कोई सरोकार नहीं
जिन्हें गाजे बाजे बैण्ड का शोर
झुंझलाहट के सिवा कुछ नहीं देता
जो इस बात से खौफ़जदा हैं,लगातार
कि कहीं हमारा जुलूस
किसी और जुलूस से टकरा ना जाए
जिनका पिछले जुलूस में उत्साह ज्यादा था
उससे पिछले में और भी ज्यादा
और उसके पिछले में तो देखते ही बनता था
ऐसे रंगबिरंगे जुलूसों से बचेगा हिन्दू धर्म

या बचेगा धर्म
धर्म गुरुओं के बड़े आलीशान
(तीन चार पांच सितारा कहने को जी
चाहता है पर क्या करें इनके लिए
सितारों की व्यवस्था नहीं है अभी)
आश्रमों से
जहाँ यात्रियों से किराया नहीं
दान लिया जाता है
जो तारों की व्यवस्था की अनुपस्थिति के बरक्स
अलग अलग है सुख सुविधा के अनुरुप
आयकर, मनोरंजन कर, व्यापार कर
चाहे कितने भी कर रोपे सरकार
लेकिन आंखों से धूल फांकना ही
सरकार की नियति है

या बचेगा धर्म
उन ब्याख्यानों , उपदेशों , कथाओं से
जो तब ज्यादा ही भारी और ओजस्वी हो उठती हैं
जब कि पण्डाल में
लाल बत्ती , नीली बत्ती या
विदेशी कारों की चमकीली अनगिन
बत्तियॉ आ घुसी हों

या बचेगा धर्म
अफीम सुल्फा और धुनी के धुंएं से
ललछौर हुई
औघड़ अलमस्त बाबा की ऑखों से
जो
ऑखें बन्द किए आगे को झुके स्त्री तन
को घूर रही हैं
अनवरत
किसी अज्ञात सुनामी को दबाए

या बचेगा धर्म
अलग-अलग मत मतान्तरों
अलग-अलग सम्बोधनों
अलग-अलग कपड़ों
अलग-अलग तिलक की रेखाओं
और इनके अलग-अलग प्रचार से
कि जैसे विज्ञान सम्मत बात
विविधता ही सरंक्षण का
सबसे मुफ़ीद उपाय है

अरे हाँ एक रास्ता और
इसे (यानि असहाय हिन्दू धर्म को)
किसी विश्वव्यापी समस्या से जोड़कर भी
बचाया जा सकता है
जैसे ग्लोबल वार्मिंग
ये नया नायाब बेहतरीन तरीका हो सकता है
किसी पुराने हज़ारों हज़ार साल पुराने धर्म को
ज़िंदा रखने का
इसमें आप अचानक ही
विश्व की एक बहुत बड़ी जनसंख्या
जो सिविल सोसायटी का
बौद्विक आख्यान है
के साथ सीधे जुड़ जाते हैं
जरुरी नहीं है
लोगों को धर्म रक्षा और ग्लोबल वार्मिग
के आपसी व्यवहार सूत्रों के बारे में बताना

इन नायाब तरीकों के बाद
एक आखिरी तरीका भी हो सकता है
इन सब चीजों को इकठ्ठा कर
मार्च के महीने के किसी सुहाने दिन
दोपहर बारह बजे के आसपास
जब बृहस्पति कुंभ राशि
और
सूर्य मेष राशि के जजमान के घर जीमने के बाद वाली
नींद ले रहा हो
अपने सही स्थान के लिए विवादित ब्रहमकुण्ड के
किसी अनिश्चित स्थान पर
चौरासी करोड़ देवी देवताओं की
पुष्प वर्षा के बीच
जल समाधि!

***

0 thoughts on “अमित श्रीवास्तव की लम्बी कविता”

  1. इस कविता में एक मज़बूत कथ्य उपस्थित है लेकिन उस कथ्य के निबाह के लिये जिस तरह के शिल्प की ज़रूरत थी वह अनुपस्थित है। इसके चलते कविता एक सुदीर्घ व्याख्यान सी लगती है…

    फिर भी एक युवा कवि की स्पष्ट वैचारिक प्रतिबद्धता की ओर संकेत करती एक सार्थक रचना के लिये बहुत-बहुत बधाई!

  2. एक बहुत गहरी कविता, धर्म के चीरहरण का सजीव चित्रण, पर इस कविता के शीर्षक से सहमत,
    मेरे शब्दों में–
    मिलता हूँ जब भी उससे
    वह मेरे धर्म की बात करने लगता है,
    बड़ी अजीब बात है
    मुझसे लड़ने का उसे कोई और बहाना नही मिलता

  3. अलग अलग तरीकों से सिर्फ और सिर्फ 'लाउड'होते आस्था के प्रदर्शन पर तेज रोशनी डालती है अमित जी की कविता.

  4. काफी अच्छी और सामयिक कविता है ..जो हिन्दू धर्म के नाम पर चल रहे खेल का बखान करती है …

  5. बंधु अमित को कविता के लिए बधाई!
    जो बात अशोक भाई ने उठाई है वह अत्यंत महत्वपूर्ण है
    अमित ही नहीं हम सभी लगभग एक तयशुदा मुहावरे
    का इस्तेमाल कविता में लगातार कर रहे हैं
    जिससे कविता की रसात्मक चमक कही खो सी गयी है
    मैं अपने समकालीन युवा मित्रों से भी कहना चाहूँगा कि
    हमें इस universal फॉर्मेट से बाहर आने कि ज़रुरत है ..

  6. # बिल्कुल संजय व्यास जी, बल्कि मैं तो कहूँगा कि जिस चीज़ को *प्रदर्शित* करने की ज़रूरत पड़ जाए मुझे शक है कि वह *आस्था* हो सकती है. रावतजी ने ठीक कहा. वह एक गन्दा *खेल* है.

  7. अपने बारे में कहने से हमेशा बचता रहा हूँ ! कविता के अन्दर और कविता के बाहर दोनों तरफ . ( हमेशा को ह…में…शा.. ना पढ़ा जाए , इतना बड़ा अवदान नहीं है मेरा .) इस बार बिना कुछ कहे रह जाना संभव नहीं हो पा रहा है . खासकर तब जब आप लोगों ने इस कविता को स्वीकारा है . कम से कम कथ्य को तो स्वीकारा ही है.
    शिल्प के सन्दर्भ में अशोक जी ने बहुत गंभीर बात कही है . कविता की व्याख्यान्परकता सायास है ऐसा नहीं कहूंगा मै .सच तो ये है की ये कविता मेरे कवी ने लिखी ही नहीं है . ये तो एक पुलिसवाले ने लिखी है जो ड्यूटी पर खडा सामने से गुजर रहे जुलूसों को देख रहा है , महास्नानों का अनुभव ले रहा है , और आस्था के उधडे स्वरुप में तर्क और समर्पण के बचे खुचे छायाचिन्हों को पहचानने की कोशिश कर रहा है . ये उस पुलिसवाले का धारा १६१ सीआरपीसी में दर्ज इकबालिया बयान है जो रात अपने कैम्प में लौटकर दिनभर बाबाओं और श्रद्धालुओं के साथ हुई हुज्जत के साथ साथ धर्म और आस्था जैसे गंभीर विषयों पर अपना कमअक्ल दिमाग खपा रहा है . और बेतरतीबी से की गई विवेचना (इन्वेस्टिगेशन ) की तरह कविता की भी धज्जियां उड़ा रहा है . यहाँ उसकी गलती ये भी है की इस कविता ना कही जा सकने वाली कविता के नीचे अपना नाम लिखना भूल गया है . वैसे इस पुलिसवाले की तरफ से बता दूं धारा १६१ के बयानों में बयान देने वाले के हस्ताक्षर नहीं लिए जाते.
    इस पुलिसवाले ने एक गैर – राजनीतिक जल्दबाजी के तहत ये कवितानुमा कोई चीज शिरीष सर को किसी अन्य प्रायोजन से भेज दी और उन्होंने भी अपने गैर – परम्परागत चरित्र को निबाहते हुए इसे अनुनाद में दे दिया . शिरीष सर और आप सभी पाठकों का धन्यवाद !!

  8. ऐसे बहुत सारे पुलिसवाले चाहिये हमे अमित जी…जो कहा उसके पीछे कोई दूसरा मंतव्य नहीं था…आप ही की भाषा उधार लूं तो वह एक लालची पाठक कह रहा था जिसे लगा कि जिनको कुछ नहीं कहना उनके पास ही कहने का ढंग क्यूं हो? एक कवि जिसके पास इतना कुछ कहने को है उसके पास खन और आ जाये तो कितना मज़ा आये…और देख लीजियेगा वह कवि ऐसा करेगा ही!

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