एक बढ़ई काम करते हुए कई चीज़ों पर ध्यान नहीं देता मसलन लकड़ी चीरने की धुन, उसे चिकना बनाते समय बुरादों के लच्छों का आस-पास फूलों की तरह बिखरना, कीलें ठोकने के धीमे मद्धिम और तेज सुर, खुद आपने हाथों का फुर्तीला हर क्षण बदलता संचालन और कभी चिंतन में डूबी, कभी चुस्ती और जोश से लपकती, कभी लगन में डूबी और कभी काम के ढलान पर आख़िरी झंकार छोडती अपनी गति वह स्वयं नहीं देखता. वह खुद अपने में उतरते काष्ठ मूर्ति जैसे गहन सौन्दर्य को भी नहीं देखता, अपनी परखती जांचती निगाह और एक अमूर्त आकृति को लकड़ी में उतारने की कोशिश में अपने चेहरे पर छाई जटिल रेखाओं के जाल को भी वह नहीं देखता. वह केवल काम का संतोष पाता है और कामचलाऊ जीवन-यापन के साधन. एक आदमी आता है और उसकी कृति ख़रीद लेता है. वह कृति के सौन्दर्य पर इतना मुग्ध है कि बढ़ई को नहीं देखता. वह कृति के उपभोग को लेकर आश्वस्त है. वह फिनिश्ड सौन्दर्य और निर्बाध उपयोग को ही पहचानता है. सौन्दर्य का होना उसके लिए अंतिम है. सौन्दर्य का `बनना` वह नहीं जानता. उसके रचनाकार को वह नहीं देखता क्योंकि वहाँ सौन्दर्य सुगम नहीं है, वहाँ अधूरापन और जटिलताएं हैं वहाँ एक गति है जिसका पीछा करने मात्र के लिए एक रचनात्मक श्रम जरूरी है. यह श्रम निर्बाध उपभोग के आड़े आता है, इसलिए सौन्दर्य के पुजारी बन चुके लोग पूर्ण, ठहरे हुए-हमेशा के लिए ठहरे हुए सौन्दर्य को देखते हैं. मनुष्य को नहीं, बढ़ई को नहीं. मनुष्य की उपेक्षा और मृत सौन्दर्य की पूजा आराम से साथ साथ चलते हैं. ज़ाहिर है अपने को न देखने वाले बढ़ई और केवल कृति को देखने वाले उपभोक्ता के बीच बड़ा सम्पूर्ण सामंजस्य होता है.
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हमारा काम
जो निजी परिवारों में होता था
वह हो रहा है अब
निजी एलबमों में
कभी कभी लगता है
सब पुराना ही है
बस उसका प्रदर्शन नया है
वह हो रहा है अब
निजी एलबमों में
कभी कभी लगता है
सब पुराना ही है
बस उसका प्रदर्शन नया है
अब पता लगता है
ख़ून ख़राबे में हमारा यक़ीन
पहले भी था
बलात्कार के शास्त्र
हमने ही रचे थे
हमने ही बनाया था निरंकुशों को
ईश्वर
और फिर उसी ईश्वर की तरह
अंध विज्ञान भी हमने ही बनाया
अब हट चुका है
सभ्यता के चेहरे से हर पर्दा
नागरिक मनुष्य
जैसे हमने देखा था
सपने में
हमारे जेल और हमारे शिक्षा संसथान
हमारे घर और हमारी क़त्लगाहें
हमारे न्यायालय और हमारे चकले
खड़े हैं एक ही क़तार में
इस दृश्य को समझने में
बाधा डालते हैं हम ही
हम अकेले ही पहुँचना चाहते हैं
किसी स्वर्ग में
उन सभी को छोड़ते हुए
जिन्हें हम मित्र आदि कहते थे
ग़रीब गुरबा क़ी कौन कहें
हम अपनी आत्मा भी छोड़कर
स्वर्ग जाना चाहते हैं।
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गद्य का टुकड़ा असद ज़ैदी द्वारा सम्पादित `जलसा` से और कविता असद ज़ैदी द्वारा सम्पादित `दस बरस` से
सभागार में होता तो अपने स्थान पर खड़े हो कर ताली बजाता.
shubha ji ko badhai! kavitaon ki bhi janmdin ki bhi.
shubha jee ko janm din kee badhaiyan aur ek sundar kavita ke liye aabhar
अजेय ने बिलकुल सही लिखा…पर सच्ची समर्पित हिंदी कविता के लिए आज क्या, कभी कोई सभागार नहीं रहा…समाज के लिए रचने का रास्ता दिनों दिन अकेले का रास्ता बनता गया…ये अकेले रस्ते भी आपस में कम ही मिले….उसने कोई चौराहे कभी नहीं बने …. बने वो जो मुक्तिबोध को क़दम क़दम पर मिला करते थे….शुभा का गद्य जो जलसा में छपा है, क्लासिक है….कला की ऐसी सुन्दर व्याख्या मुक्तिबोध और शमशेर के बाद शुभा ही कर पायीं हैं….यहाँ तो बस एक झलक भर ही धीरेश ने लगायी है….जलसा मैं उसे पूरा पढ़ कर जो मुक्ति मिलती है, वह एहसास करने की चीज़ है….
शुभा को जन्मदिन की बधाई
और धीरेश भाई!
यह पोस्ट लगाने का शुक्रिया!!
shubhaji ko janmdin ki bahut badhayi ..bahut sundar kavita ..
shubha ji ko janmdin ki bahdai!
# शिरीष
तो पढ़वाईए न कभी !
हम अपनी आत्मा भी छोड़कर
स्वर्ग जाना चाहते हैं।…
बहुत सुन्दर रचना को पोस्ट किया.. भाव कितने अद्भुत अंदाज में बयां हुवे.. शिरीष जी आपका आभार ..शुभा जी की इस रचना को हम तक पहुचाने के लिए ..
शुभा की कविता भीतर तक हलचल मचाती है।
और गद्य के भी क्या कहने।
बधाई शुभा जी, और धीरेश को भी।