अनुनाद

हिन्दी साहित्य, समाज एवं संस्कृति की ऑनलाइन त्रैमासिक पत्रिका

बाँदा – वीरेन डंगवाल

मैं रात, मैं चाँद, मैं मोटे कांच
का गिलास
मैं लहर ख़ुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल

मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रूदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चाँदनी में चुपचाप रोती एक
बूढी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के ख़ाली
पुरानेपन की बास
मैं खपरैल, मैं खपरैल
मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढा केदार।
***

0 thoughts on “बाँदा – वीरेन डंगवाल”

  1. साखीकबीरा पर कविता की पंक्तियॉं पढ़ चला आया, ऐसी और कवितायें कहॉं हैं। लगता है जैसे किसी ने मोतीजड़े लाल बटुए की डोर खींच उसमें रखे जवाहरात कीझलक भर दी है।

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