पलट डाले आलमारी में सजे सारे शब्दकोश
कितनी ही ग़ज़लों के नीचे दिये शब्दार्थ
गूगल की उस सर्वज्ञानी बार को खंगाला कितनी ही बार
अगल-बगल कितने ही लोगों से पूछ लिया बातों ही बातों में
पर यह शब्द है कि सुलझता ही नहीं
कितना सामान्य सा तो यह आमंत्रण
बस जहां होते हैं मंत्र वहां शायद अरबी में लिखा कुछ
और भी सब वैसे ही जैसे होता है अकसर
नीचे की पंक्तियों में झलक रहे कुछ व्यंजन लज़ीज़
पर इन जाने-पहचाने शब्दों के बीच वह शब्द एक ‘अबूझ’
कई दिनों बाद आज इतने याद आये बाबा
कहीं किसी विस्मृत से कोने में रखी उनकी डायरी
पाँच बेटों और पन्द्रह नाती-नतनियों में कोई नहीं जानता वह भाषा
धार्मिक ग्रंथों सी रखी कहीं धूल खाती अनछुई
होते तो पूछ ही लेता कि क्या बला है यह प्रसंग
निकाह और ख़तने के अलावा हम तो जानते ही नहीं उनकी कोई रस्म
बस इतना कि ईद में मिलती हैं सिवईंयां और बकरीद में गोश्त शानदार
इसके आगे तो सोचा ही नहीं कभी
लौट आये हर बार बस
अभी भी तो चिन्ता यही कि न जाने यह अवसर ख़ुशी का कि दुःख का
पता नहीं कहना होगा- मुबारक़ या बस बैठ जाना होगा चुपचाप!
सशक्त अभिव्यक्ति…अंतिम पंक्ति रोक लेती है बौद्धिक पलायन से। चिंतन व वैचारिकता से परिपूर्ण यह रचना गंभीर सोच की ओर ले जाती है… कविवर थोड़ा और ठहर जाते मध्य में ही कहीं… तब शायद और सघनता होती! …अच्छी कविता ।
सोच रहा हूँ, ऐसे शक्ल देने में कितना समय लगता है यानि कितना इंतज़ार करना होता है ?
एक ऐसी दुविधा का जिक्र जिससे हम बार बार रूबरू होते हैं। और हर बार अपने पर गुस्सा आता है कि कैसे इन्सान हैं हम जो अपने सहोदर के त्यौहारों या अन्य मौकों के बारे में भी ठीक से नहीं जानते।
इस दुविधा को कविता में जगह देने के लिए शुक्रिया।
खुद को पर्याप्त सेक्युलर समझते हुए भी हम कितने अजनबी हैं उन से . आपने एक कठिन जगह पर ऊँगली रखी है. महेश वर्मा . अंबिकापुर
लगा जैसे हमारे सवाल और दुविधा को बया कर रहे है .