(नोटः टूरियाँ टूरियाँ जा… पश्चिमी राजस्थान के मीर संगीतकारों द्वारा गायी जाने वाली बाबा फरीद की एक रचना है. अपने को सूफीमत से जोड़ने वाले ये संगीतकार मुख्यतः बाबा फरीद, कबीर और मीरां को गाते हैं. नज़्रे खाँ जिस वाद्य मश्क को बजाते हैं वह कुछ कुछ बैगपाइपरों के वाद्य जैसा होता है लेकिन उससे बहुत अलग भी. सृष्टिदास बाउल एक बाउल गायक हैं जिन्हें सुनने का सौभाग्य मुझे उसी शाम मिला जिस शाम मीर-ए-आलम भी गा रहे थे. पिटा हुआ वाक्यः 1 को अनुनाद पर यहाँ पढ़ा जा सकता है.- कवि)
टूरियाँ टूरियाँ जा फरीदा टूरियाँ टूरियाँ जा
(मीर-ए-आलमों और सृष्टिदास बाउल के लिये, सर झुकाते हुए)
अजनबी गाँव था शाम घिर रही थी वह अपना बोरिया बिस्तर समेटने को था कुछ और नहीं अपने उस वक्त इस दुनिया में किसी तरह होने की ज्यादती इस कदर घेरे थी कि जब अचानक गाने लगे सृष्टिदास बाउल नदिया गाँव वाले तो लगा पास होती एक बंदूक और दाग देता हवा में निकाल देता सब अकड़ कलाकारी की – क्यूँ नहीं चुप बैठ जाते ये ऊटपटांग लोग कुछ नहीं कर सकती यह सारी कलाकारी किसी के बिगड़े हिसाब किताब का किसी की आत्मा के खंडहर का
उधर उसके हिसाब किताब से बिल्कुल बेपरवाह आँखें मुँद गई सृष्टिदास बाउल की रोने लगे जार जार और पीछे कहीं अपनी मश्क के सुर कसते दिखे नज़्रे खाँ –
रहो बरबाद गाओ फरीद करो तमाशा मरो अकड़ में मुझे बख़्शो बख़्शो मेरा बोरिया मैं चला टूरियाँ टूरियाँ
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अपने कहे से बिंधे एक ख़ाक़सार का नग़्मा जिसने कभी कहे थे कुछ अलफ़ाज दहाड़ते हुए और तब से भूला हुआ है खुद को
इसे कहकर भूल जाना कहकर भेज दिया तुमने वह शब्द कहने के लिये प्रलय बन गये जो साँस की तरह पराये उन विधर्मियों के लिये
भूल गये वे अलफ़ाज काफ़िर भूल गये उस कहर को भी जो बरपा उन पर
लेकिन मुझे नहीं भूले वो अलफ़ाज एक दूसरा मानी बना दिया जिन्हें हमेशा के लिये मैंने कभी गिरेंगे वे कहर बनकर ही मेरे कबीले पर –
क्या उन शब्दों को है ये पता एक दूसरा ही मनुष्य बना दिया उन्होंने मुझे?
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पिटा हुआ वाक्यः दो
शायद से शुरू हुआ हर वाक्य किसी धोखे या धुंधलके में शुरू होता है और किसी बेहया उम्मीद पर खत्म इसे अनुभव से जान कर भी लिखता हूँ शायद यह हो गया है कि हम वही नहीं हैं
अब अगर किसी अनजान उजाड़ पॉर्क में फैल जाये मेरे हाथ उसी तरह तो उन पर लिखा संदेसा तुम नहीं पढ़ पाओ या मैं उन्हें और करीब से देखूँ और वहाँ कोई संदेसा नहीं सिर्फ हाथ ही मिलें मुझे, हवा में कोई खँडहर थामे
यह लिख कर मैं शुरूआत की तरफ ताकता हूँ
वहाँ एक शायद है एक खँडहर है और एक प्रेमः यह धोखा है
वहाँ एक शायद है फैले हुए हाथ हैं और एक हरकत आँखों में: यह धुंधलका है
अंधेरा हो रहा है पॉर्क की तरह यहाँ से पुलिस खदेड़ नहीं देगी यह हमारा घर है हमारा राज्य जहाँ हम ही नष्ट कर रहे एक दूसरे को हाथों को फैल जाने दो आँखों को एक संदेसा पढ़ने दो: यह उम्मीद है, बेहया
क्या यह जीवन में भी बहुत पिटा हुआ एक वाक्य लगेगा:
हमें खुद को एक मौका देना चाहिये
यद्यपि मैं पैराग्राफ्स में लिखी जा रही कविता
के बहुत पक्ष में नहीं हूँ..
पर इस कविता में गिरिराज जी ने जो एक मंद संसार रचा है
उसने मुझे आकर्षित किया है….
अच्छा पोस्ट शिरीष.अच्छी कविताएं. लेकिन गिरिराज किराड़ू हर कविता को ज़बरन गद्य की तरह क्यों लिख देते हैं? इस से बाज़ दफा पाठ मे फ्लो नही बनता. क्या य ओब्सेशन है , याफैशन या नवाचार , या ध्यान खींचने की अतिरिक्त लालसा ? फिर अंतिम सच तो यह है कि मेरा अपना ही रिदम गड़बड़ाया हुआ है. मुझे रिदम पर बात नहीं करना चाहिए.
बाऊल संगीत का मैं भी फेन हूँ. राजस्थान मे एक और समुदाय है, भोपा ( भील) वे रौणता (रावण्हत्था) बजाते हुए पहाड़ों तक आ जाते हैं. उन के पास कबीर के ऐसे पद हैं जो प्राय: सुनने मे नही आते. यह वीडियो अभी डाऊंलोड नहीं हो रहा है. बाद मे ज़रूर देखूँगा. आभार किराड़ू भाई. आप ने अनुनाद को समृद्ध किया.
फ्रेम को तोड़तीं और नया वितान रचतीं सुन्दर कवितायेँ…
श्लाघ्य !
पैराग्राफ़ वाली कामन शिक़ायत के साथ हमारी भी प्रशंसा दर्ज़ की जाये…
video toh hai hi nahi. mujhe thaga diya……..:)
क्या कविता मे छन्द की वापसी की जरूरत है …
क्या कविता मे १३-११-…११-१३…१६-१६ हो …
क्या कविता मे निश्चित फ्रेमवर्क हो …
क्या कविता मे दो दूनी चार हो ….
क्या कविता मे विचार हो …
क्या करे बिचारा कवि…कि कविता मे बस कविता बची रह जाए !!
—-गिरिराज जी की कविता मे कविता है ऐसा सबका मानना है ..है ना?
शीरिश जी
नमस्कार .
भाई गिरी राज जी को भी नमस्कार !
मैंने गिरिराज जी को अक्सर पढ़ा है , मगर जब भी बीकानेर में उनसे मुलाक़ात होगी उनसे अपनी जिज्ञासाए शांत करना चाहुगा , फिर भी अच्छे लेखन के लिए साधुवाद .
सादर
है भाई है !
गिरिराज के यहॉं अंतरलय प्रवहमान है, एकबारगी देखने से समूचा पाठ गद्य -सा लगता है लेकिन पठन/वाचन मे अंतर्निहित लय स्वत:पाठ को गति प्रदान करती है…यही लय-गति काव्य और गद्य को अलग करती है…वस्तुत: कविता किसी फ्रेम या फॉर्म की मोहताज नहीं !
पता नहीं समझ में नहीं आता आप लोग इस शुष्क गद्य को कैसे कविता कह देते हैं? आखिर इसमें कविता जैसा है क्या? कविता ह्रदय को छूती है. इनमें ह्रदय को छूने जैसा क्या है?? पता नहीं शिरीष जी आप भी क्या कूड़ा करकट छाप देते हैं. इसे तरह के शुष्क गद्य के चलते पाठकों का आज की कविता से मोहभंग हुआ है. यदि आपको विश्वास नहीं होता तो पाठकों के बीच सर्वे करा लीजिये. सवाल चाँद का नहीं है सवाल है भाव का. रांगेय राघव के शब्दों में कहना चाहूँगा – काव्य तभी महान होता है जब उसके विषय ह्रदय पक्ष को छूने वाले होते हैं. कविता भाव और विचार को संश्लिष्ट रूप में व्यक्त करती है. अतः एसी पंक्तियों को कविता नहीं कहा जा सकता है जो भाव की दुनिया से ,ह्रदय के संसार से और मन के विश्व से परहेज करती हों . मुझे तो उन आलोचकों पर भी तरस आता है जो इन कविताओं में पता नहीं क्या क्या देख लेते हैं? कविता की पहली शर्त है सम्प्रेश्नीयता जो हमें महान कवियों में दिखाई भी देती है. जैसे पाब्लो नेरुदा, नाजिम हिकमत , त्रिलोचन, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल आदि . उनके यहाँ जटिल जीवनानुभवों भी सहज -सरल रूप में व्यक्त हुए हैं. जटिल जीवनानुभवों को भी सहज -सरल रूप में व्यक्त करना ही कवि कोशल है . इनकविताओंपड़ने से अच्छा है की गणित के सवाल बनाये जाएँ. इस तरह की कविताएँ किराडू ही नहीं आज जीवन से कटे बहुत सारे युवा है.कविता को इनसे नहीं बचाया गया तो एक दिन कविता ही नहीं बचेगी .