( इरोम शर्मिला…यानि ग्यारह साल से एक काले क़ानून के ख़िलाफ़ अनशन पर बैठी आयरन लेडी…यानि अण्णा हजारे के बरक्स गांधीवाद का एक और आख्यान रचती सामाजिक कार्यकर्ता…यानि पूर्वोत्तर की ऐतिहासिक व्यथा का मूर्त रूप…यानि एक कवि की संवेदना की जीती-जागती तस्वीर…यानि…हम सब ‘कवियों’ के सामने एक धधकती हुई बड़ी लक़ीर! उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद कर रहा हूँ…उनमें से एक – अशोक कुमार पाण्डेय)
मुक्त करो मेरे पैरों को
कंटीली चूड़ियों सी इन बेड़ियों से
मैं क़ैद हूं इस संकरी सी कोठरी में
क़सूर यह कि
चिड़िया के रूप में हुआ है मेरा जन्म
जेल की इस अंधेरी कोठरी में
सुनाई देती हैं तमाम शब्दों की प्रतिध्वनियाँ
चिड़ियों के शब्दों की तरह नहीं हैं ये शब्द
न ख़ुशी से फूटने वाली हंसी के
किसी लोरी के भी नहीं हैं ये शब्द
माँ की गोद से छीन लिया गया कोई बच्चा
और मां का करुण विलाप
एक औरत जिससे छीन लिया गया है पति
और उस विधवा का व्यथित विलाप
सिपाही के हाथों से झरता हुआ रुदन
अग्निपिण्ड दिखता है एक
आने ही वाला है प्रलय
जुबानी प्रयोगों के लिये
विज्ञान के उपकरणों से
धधकाया गया है वह अग्निपिण्ड
इन्द्रियों के वश में
हर कोई है अचेत
नशा – सोच का दुश्मन
ख़त्म कर दिया गया है सोचने का कौशल
सोचने के बारे में अब कोई प्रयोग नहीं
पहाड़ की घाटियों के उस पार से आते यात्रियों की
मुस्कराते चेहरे वाली हँसी में
कुछ नहीं बचा मेरे विलाप के सिवा
कुछ नहीं बचाया जा सका देखती हुई आंखों से
ख़ुद ब ख़ुद नहीं दिखाई जा सकती ताक़त
क़ीमती है इंसानी ज़िंदगी
इससे पहले कि खत्म हो जाय जीवन
मुझे अंधेरों की रौशनी होने दो
यहाँ अंमृत बोया जायेगा
रोपा जायेगा सच्ची अमरता का वृक्ष नकली पंख लगाकर पहुंचेंगे
हम धरती के हर कोने तक
सुबह के गीत गाये जायेंगे
दुनिया भर के साथ समवेत स्वर में
मौत और ज़िंदगी के क्षितिज पर
इससे पहले कि खत्म हो जाय जीवन
मुझे अंधेरों की रौशनी होने दो
यहाँ अंमृत बोया जायेगा
रोपा जायेगा सच्ची अमरता का वृक्ष नकली पंख लगाकर पहुंचेंगे
हम धरती के हर कोने तक
सुबह के गीत गाये जायेंगे
दुनिया भर के साथ समवेत स्वर में
मौत और ज़िंदगी के क्षितिज पर
ख़ुल जाने दो क़ैद की दीवारों को
मैं नहीं जाऊंगी किसी और रास्ते पर
कृपा करके हटा दो काँटों की बेड़ियों को
मत सज़ा दो मुझे इस बात की
कि चिड़ियों के रूप में हुआ है मेरा जन्म
झकझोर देने वाली रचना।
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सुन्दर अनुवाद , बधाई.
इरोम शर्मीला..नाम सुनते ही एक ऐसा चित्र बन जाता हैं आखों के आगे…
एक जीता जागता इंसानी पुतला जो हज़ार तकलीफों के बाद भी डटी हुई हैं.
कोई सुनवाई नहीं हैं
कोई आशा की किरण नहीं पर फिर भी लड़ाई जारी हैं.
शायद कभी तो कुछ बदलेगा.
इस कविता के अनुवाद रूप के लिए धन्यवाद.
आशा की ज्योति से जगमगाती कविता और उसका सुन्दर
भावानुवाद !
सलाम है !
शुक्रिया मित्रों…यह अनुवाद भाई आशुतोष कुमार द्वारा उपलब्ध कराये गये अंग्रेज़ी अनुवाद पर आधारित है. अभी मुझे इस कविता का एक और अंग्रेज़ी अनुवाद मिला है जिसमें कविता का अर्थ काफ़ी गहरा हो जाता है. अगर मित्रों के पास उनकी और कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद उपलब्ध हो तो उपलब्ध कराने की मेहरबानी करें.
अच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ….
क्या कहू इस बाबत शायद इतना बहुत होगा इरोम शर्मिला जी को ढेरो सलाम
बेमिसाल व्यक्तित्व
अशोक जी धन्यवाद के पात्र हैं..
शर्मिला जी के लिये क्या कहें…शब्द काफी नहीं होते कभी कभी!