अनुनाद

उत्‍तरा महिला पत्रिका से एक कविता

मेरे विभाग की अत्‍यन्‍त वरिष्‍ठ सहयोगी प्रोफेसर उमा भट्ट की अगुआई में ‘उत्‍तरा महिला पत्रिका’ काफी सालों से निकल रही है। उसका हर अंक संग्रहणीय होता है। इस बार के अंक में एक अत्‍यल्‍पज्ञात कवि प्रफुल्‍ल सी पंत की एक कविता ने ध्‍यान खींचा। अनुनाद के पाठकों के लिए यहां लगा रहा हूं उत्‍तरा को धन्‍यवाद के साथ

एक बदली जो न बदली

जब वह छोटी थी
रोती थी
दहाड़ कर
कोई डांटता
कोई पुचकारता

फिर-
जवान हुई
तब भी रोई
चुपचाप एक कोने में
कभी आधी रात बिछौने में

अब-
वह बूढ़ी है
रोती अब भी है
शुष्‍क आंखों से
नहीं पता चलता
किसी को
कब वह रोयी
कब शांत हो गई।
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