एक लम्बे इंतज़ार के बाद जबकि मैं अपना मकान बनवा रहा हूँ…और तरह तरह की मुश्किलों से दो चार हो रहा हूँ तो मुझे रह रह कर अपने जवाहिर चा की ये कविता याद आ रही …. अपने गिर्द चारदीवारी खड़ी करना भी एक अजब और कड़ा अनुभव है…सभी लोग इससे गुज़रते हैं…यक़ीन हैं की जवाहिर चा की ये कविता भी मेरी तरह आप सबको भी अपनी सी लगेगी.
यह एक बनता हुआ मकान है
मकान भी कहाँ
आधा अधूरा निर्माण
आधा अधूरा उजाड़
जैसे आधा – अधूरा प्यार
जैसे आधी अधूरी नफरत।
यह एक बनता हुआ मकान है
यहाँ सबकुछ प्रक्रिया में है- गतिशील गतिमान
दीवारें लगभग निर्वसन है
उन पर कपड़ॊं की तरह नहीं चढ़ा है पलस्तर
कच्चा – सा है फर्श
लगता है जमीन अभी पक रही है
इधर – उधर लिपटे नहीं हैं बिजली के तार
टेलीफोन – टीवी की केबिल भी कहीं नहीं दीखती।
अभी बस अभी पड़ने वाली है छत
जैसे अभी बस अभी होने वाला है कोई चमत्कार
जैसे अभी बस अभी
यहाँ उग आएगी कोई गृहस्थी
अपनी संपूर्ण सीमाओं और विस्तार के साथ
जिसमें साफ सुनाई देगी आलू छीलने की आवाज
बच्चॊं की हँसी और बड़ों की एक खामोश सिसकी भी।
अभी तो सबकुछ बन रहा है
शुरू कर कर दिए हैं मकड़ियों ने बुनने जाल
और घूम रही है एक मरगिल्ली छिपकली भी
धीरे – धीरे यहाँ आमद होगी चूहों की
बिन बुलाए आयेंगी चीटियाँ
और एक दिन जमकर दावत उड़ायेंगे तिलचट्टे।
आश्चर्य है जब तक आउँगा यहाँ
अपने दल बल छल प्रपंच के साथ
तब तक कितने – कितने बाशिन्दों का
घर बन चुका होगा यह बनता हुआ मकान।
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Sundar kavita!
बहुत करीब से जवाहिर चा और इस मकान को अनुभव कर रहा हूं, इसे पढने के चंद मिनट पहले इसे अपने लिये आटो कैड में आकार दे रहा था.
यह भी मुबारक हो।
शुक्रिया बच्चा , इसे साझा करने के लिए।