देवीप्रसाद मिश्र का लेखन समकालीन हिंदी संसार की एक उपलब्धि है। उनके यहां काव्यभाषा का गद्य में घुल जाना कविता को तो अलग रूपाकार देता ही है, गद्य को भी एक नए कवितामय अर्थ में देखने का आग्रह पाठक के सम्मुख रखता है। यहां मैं पंकज चतुर्वेदी की प्रेरणा से जलसा-2 में छपी उनकी कुछ रचनाएं प्रस्तुत कर रहा हूं, जिन्हें वहां कहानियां कहा गया है। सरल लगती इन पंक्तियों में कितनी जटिलता है भी और नहीं भी…कितनी कविता- कितना गद्य है भी और नहीं भी….।
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1 : इंडिया गेट
इंडिया गेट के बीच से गुज़रकर मुझे लगा कि मैंने हिंदुस्तान में प्रवेश नहीं किया।
2 : विस्मित
मैं घर से निकला तो मैंने सोचा कि मैंने गीज़र तो ऑन नहीं छोड़ दिया है। और कहीं गैस तो नहीं खुली है। और अगर नल खुला रह गया होगा …..तो। और अगर हीटर चला रह गया होगा….. तो। मेरी ग़ैरमौजूदगी में पता नहीं क्या होगा। हो सकता है कि घर राख मिले याकि पानी में डूबा। हो यह भी सकता है कि क्रांति हो जाए और जब मैं अटैची के साथ घर पहुंचू तो पता लगे मेरे घर में एक आदिवासी रह रहा है। मैं दरवाज़ा खटखटाऊं – वह दरवाज़ा खोलकर दरवाज़े पर खड़ा हो जाए और मैं उसे देखकर विस्मित होता रहूं।
3 : मैंने सोचा कि दरवाज़े पर
मैंने सोचा कि दरवाज़े पर राम रतन होगा लेकिन आया था ज़ाकिर। ज़ाकिर को देखकर मैंने कहा भी कि मैं तो राम रतन का इंतज़ार कर रहा था। उसने कहा कि अब मैं क्या करूं। मैंने कहा पहला काम तो यह करो कि तुम लौटो मत। अंदर आ जाओ और यहां बैठो और पानी पिओ।
4 : बैग
मैंने बैग वाले पूछा कि इसमें क्या क्या आ जाएगा। उसने कहा आप जो जो रखना चाहेंगे।
5 : पिता पुत्र
मेरा बेटा नींद में बिस्तर में मुझे बहुत लात मारता है। लेकिन दिन में भी लगता तो यही है कि वह मुझे रौंदता हुआ जा रहा है। हो सकता है यही सच हो कि बेटा पिता को रौंदते हुए अपना रास्ता बनाता हो।
6 : जगहें
एक आदमी गया तो मैं उसकी बैठने वाली जगह पर बैठ गया। वह उठा तो वह कम थका था। उस जगह पर बैठने ने उसकी थकान कम की थी। वह अपनी कम थकान के साथ उठा और किसी दिशा में और थकने के लिए निकल गया। मैं उस जगह अपनी ज़्यादा थकान के साथ बैठा। मैं वहां से कम थकान के साथ उठना चाहता था और कुछ देर बाद किसी दिशा में ज़्यादा थकने के लिए निकलने वाला था।
7 : कलाएं
मैंने कितना ही सिनेमा देखा है जिसमें लोग मारे गए। गोलियां चलीं। मैंने अपने जीवन में अपने सामने किसी को गोली चलाते या उससे मरते नहीं देखा है। लेकिन मैं अपने साक्ष्य को कलाओं के साक्ष्य से कमतर मानता हूं। कलाओं के पास कहीं ज़्यादा बड़े अनुभवों को संजोने और कहने का हुनर होता है।
8 : बात
जब मैंने अपना दिल खोजा तो मुझसा बुरा कोई नहीं मिला। यह मेरी पंक्ति है जिसे कबीर ने मुझसे क़रीब पांच छह सौ साल पहले लिख दिया था।
9 : लोकार्पण -एक
मंडी हाउस और श्रीराम सेंटर के आसपास – इनके बीच में कहीं -किताब का लोकार्पण होने वाला था जबकि लोक को पता ही नहीं था कविता की कोई किताब भी आई है। अध्यक्ष ने अपने बोलने का नम्बर आने तक किताब पलट ली, आई पी एस कवि को मुक्तिबोध बताकर मुक्ति पा ली और ग्रंथ का लोकार्पण कर दिया- और ग्रंथ था कि लोक में पहुंचने की बजाय राम मोहन लाइब्रेरी में पहुंच गया।
10: लोकार्पण – दो
लोकार्पण के लिए एक ही ताक़तवर बचा था कि जैसे सारी गायों के गर्भाधान के लिए पूरे वृंदावन में एक ही बैल। इसीलिए सारे बछिया-बछड़े, हैनच्चो, एक जैसे थे भी।
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अंतिम पंक्ति में आया शब्द ‘हैनच्चो’ का अर्थ पाठक समझा सकें तो बहुत अच्छा होगा…या फिर जैसा कि मेरा ख़याल है कि ये शब्द किसी और शब्द से मिलता है….जिससे मिलता है….उसकी जगह मिसप्रिंट हो गया है।
बढिया
बहुत बढिया
देवी भाई को पढ़ना हमेशा से प्रश्नाकुल हो जाना रहा है. आज फिर बेचैन हूँ.
shirish ji, itni achchhi rachna-prastuti ke liye bahut-bahut shukriya !
—pankaj chaturvedi, kanpur
प्रिय शिरीष जी, यह कविता तो कतई नहीं है। कहानी भी नहीं है। सिर्फ और सिर्फ तिथिक्रमहीन डायरी के टुकड़े हैं। पर पढ़ने में अच्छा लगता है। रही बात हैन्चो की तो ऐ बच्चा भी हैन् की जगह बैन् पढ़ लेगा। एक बार फिर कि यह कविता नहीं है भाई।
padhker achchha laga.
अनामी जी से, भाई मेरे ये कहानी ही है. दुखद ये है कि आप जलसा नहीं पढते, दुखद ये है कि आप कुछ नहीं पढते. आश्चर्य ये है कि आप मूर्ख कैसे हैं?
भाईयो , जलसा नहीं पढ़ा है तो आपने कुछ ज़रूरी "मिस" किया है. ज़रूर पढ़ें. इधर की पत्रकारिता मे कोई तृप्त कर रहा है तो जलसा का नाम उन मे प्रमुखता से आता है. पर यदि देवी प्रसाद मिश्र को मिस किया है तो यह हिन्दी पाठक के लिए "पाप" जैसा होगा. इन्हे पढ़ते हुए आप बँधे रहते हो. ऐसी पठनीयता न इधर की कविता मे मिलेगी, न कहानी में, न डायरी,संस्मरण या अन्य किसी लोकप्रिय विधा में…… मुझे नहीं पता जिस विधा में देवी लिख रहे हैं, उस का कोई नाम तय हो रखा है या नहीं, लेकिन यह विधा निश्चित रूप से "पठनीय" है और आज की स्थितियों के लिए बेहद माक़ूल है. हो सकता है हमें इस नई विधा के लिए कोई नया नाम गढ़ना पड़े. क्यों नहीं ? इस से कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि इस विधा को क्या कहा जाय . इस से ज़रूर पड़ता है कि यह विधा क्या कह रही है…कैसे कह रही है. इस लेखन को सलाम.