मोक्ष
काशी में मरकर
मिलता होगा मोक्ष
पर उज्जयिनी में जीते-जी
उज्जयिनी की माँग में
सिन्दूर भरता है
महाकाल
***
जाना कहाँ है
उज्जैन में जहाँ देखो
वहाँ महाकाल
हरिसिद्धि मंदिर के पास
मैंने एक भद्र जन से पूछा–
‘कहाँ है महाकाल ?’
‘वह रहा महाकाल!’
फिर मैंने अपने आप से पूछा–
‘महाकाल से जाना कहाँ है ?’
आत्मा ने हँसकर कहा–
‘महाकाल!’
***
कहाँ झाँकें
(चन्द्रकान्त देवताले से एक संवाद के स्मरण में)
एक समय था
जब आलोचक ने कहा–
मुक्तिबोध मुक्तिबोध मुक्तिबोध
मुक्तिबोध हैं केन्द्र में
कुछ वर्षों बाद कहा–
नये कवि
नागार्जुन त्रिलोचन
केदारनाथ अग्रवाल में झाँकें
पहली बात तो यह–
नये कवि
स्वयं तय करेंगे
वे कहाँ झाँकें
कोई उन्हें क्यों बताये
वे यहाँ झाँकें
या वहाँ झाँकें
दूसरे यह–
क्यों न वे
इन सभी में झाँकें
नागार्जुन त्रिलोचन
केदारनाथ अग्रवाल
शमशेर
गजानन मुक्तिबोध
***
उज्जैन में
उज्जैन में सब-कुछ महाकाल का
दूध भी महाकाल का
केसर भी
बेल की पत्तियाँ
आकड़े की माला
चंदन, धतूरा, नारियल, घी
धूप और कपूर
फूल गेंदा और गुलाब के
उज्जैन में सब-कुछ महाकाल का
भस्म और भंग-स्नान
दिगम्बरता और शृंगार
अभिषेक और नैवेद्य
उत्तरीय, पुष्पहार
मुकुट-त्रिशूल-कुंडल
जटाजूट-गंगाजल
द्वितीया का चन्द्रमा
त्रिपुंड्र और तीसरी आँख
धूनी की लपट और राख
उज्जैन में सब-कुछ महाकाल का
डमरु-निनाद, शंख-ध्वनि
मुग्धकारी मंत्रोच्चार
घंटों-घंटियों के स्वर
झाँझ और मृदंग की
श्रुतिमधुर ताल पर
महाकाल पर
डोलता चँवर
उज्जैन में सब-कुछ महाकाल का
सड़कें, बाज़ार, घर-दुकान
सारा साज़ोसामान
पेड़ और आसमान
पहाडि़याँ और पठार
प्रकाश और अंधकार
आरती की लौ की आँच
मालवा की हवा ठंडी
शिप्रा का जल
हरे-भरे खेत-खलिहान
उज्जैन में सब-कुछ महाकाल का
‘आश्रय’ होटेल का परिचारक
मेरा अनुज
मेहरबान सिंह चैहान
मेरे दोस्त कार-चालक
मोहम्मद इब्राहीम ख़ान
भीख माँगते बच्चे
बूढ़े साधु और महिलाएँ
गिलहरियाँ, कुत्ते
और बंदर शैतान
फल और मिष्टान्न
इलायचीदाना, मूँगफली
मिस्री और मीठा पान
उज्जैन में सब-कुछ महाकाल का
पुजारी और पहरेदार
टी.वी. और अख़बार
थाना और सरकार
मुफ़लिसी और रोज़गार
राग और विराग
साकार और निराकार
विष और विषाद
मंगल और प्रमाद
सृजन और संहार
उज्जैन में सब-कुछ
अपराजित महाकाल का
बस एक चन्द्रकान्त देवताले ही
अपराजित वास करते
महाकाल* में
उज्जैन में
* ”काल /तुझसे होड़ है मेरी : अपराजित तू —तुझमें अपराजित में वास करूं ”- शमशेर
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अगर फिर कभी आऊँगा
शुक्रिया मेरे दोस्त
आटो-ड्राइवर विजय अग्रवाल!
तुम्हारी ही बदौलत
देख पाया था मैं
भर्तृहरि-गुफा
काल-भैरव
सुबह-सुबह
शिप्रा के तट पर
तुमने ही कहा था–
आज बहुत सर्दी है, साहब
ठंडी हवा थी सख़्त
मैंने कहा–‘हाँ,
पर गाँधी जी को तो
सर्दी नहीं लगती थी
वे तो बस धोती एक पहनते थे’
‘गाँधी तो सन्त थे, साहब
कोई उन्हें नेता कहता है
तो बहुत ग़ुस्सा आता है
आजकल आदमी ने
बीड़ी-सिगरेट-तम्बाकू की लतों से
अपने को बहुत
कमज़ोर कर लिया है’
मैंने कहा: ‘लोग तो
काल-भैरव के चरणों में
मदिरा चढ़ाते हैं
पुजारी उनकी मूर्ति को
मदिरा पिलाते हैं
यह अच्छी बात नहीं है’
‘वे तो नीलकंठ थे, साहब
दुनिया भर का सारा
ज़हर पी लिया था
मदिरा इसीलिए चढ़ाते हैं
कि ख़ुद मदिरा मत पियें
अब लोग इसका
ग़लत मतलब लगाते हैं
तो क्या किया जाय, साहब!’
फिर तुमने मुझे
कविता से जुड़ा जानकर कहा–
‘अटल जी की कविता में
रस होता है, साहब
पर हमारे ‘सुमन’ जी
जब कविता सुनाते थे
तो उमंग आ जाती थी’
मैंने पूछा–
‘कालिदास भी तो यहीं के थे ?’
‘‘कालिदास तो बुद्धिहीन थे
उनकी पत्नी थी विद्योत्तमा
राजकुमारी
सुन्दर, पढ़ी-लिखी, पैसेवाली
धोखे से ब्याह हो गया था
पर निभाना तो पड़ता है न, साहब
इसलिए उसे
खीज बहुत आती थी
समय नहीं है, वरना
यहीं शिप्रा के पास
कालिदास-गढ़ी आपको दिखलाता
जहाँ विद्योत्तमा ने
ग़ुस्से में आकर
कालिदास को धक्का मार दिया था
कालिदास गिर पड़े
उनका सिर टकराया पत्थर से
ख़ून के छींटे गिरे
देवी की प्रतिमा पर
काली माँ प्रकट हुईं–
यह कौन भक्त है आया
जो ख़ून चढ़ाता है
क्या तुम्हें चाहिए ?
कालिदास तो बुद्धिहीन थे, साहब
वर भी माँग नहीं सकते थे
वह तो विद्योत्तमा ने कहा–
हमारे पास आपकी कृपा से
सब-कुछ है, माँ
बस इन्हें विद्या दे दीजिये !
काली माँ ने ‘एवमस्तु’ कह दिया
इसीलिए वे इतने बड़े
कवि हो गये
और कालिदास कहलाये’’
इस कहानी के
जादू की ख़ुशी में
हमने साथ-साथ चाय पी
सर्द सुबह की वह गरम चाय
मैंने अचरज से पूछा–
‘अरे, तुम्हें इतनी सारी
बातें कैसे मालूम हैं ?’
तुमने बताया–
‘मैं यहाँ का गाइड भी हूँ, साहब’
मैंने अपनेपन से कहा–
‘गाइड ही नहीं
तुम मेरे दोस्त हो’
तुमने अपना मोबाइल नम्बर मुझे दिया
मैंने कहा–‘नम्बर तो बदल जायेगा
पता तुम्हारा क्या है ?’
‘अपना पता क्या, साहब
महाकाल के सामने
बनारसी पेड़ेवाले से पूछ लीजिये–
‘विजय आटो’’
कैसे उन दिलचस्प तुम्हारी बातों में
सफ़र तमाम हुआ
नहीं मालूम
मगर अंत में
पान खाने के समय
तुमने कहा–
‘इसके पैसे मैं दूँगा, साहब’
‘ऐसा क्यों होगा ?’
‘आपने मुझे दोस्त कहा है न, साहब
दोस्त के लिए तो जान भी देते हैं
पान क्या चीज़ है ?’
हाँ, मैंने सचमुच
तुमको दोस्त कहा था
कहाँ के साहिब
कौन मुलाजि़म
हम दोनों एक जैसे
घरों से आते हैं
क्या हुआ कि तुम
आटो चलाते हो
लोगों का दिल बहलाने को
कहानियाँ सुनाते हो
उज्जयिनी अगर फिर कभी आऊँगा
तुमसे मिले बिना
कैसे रह पाऊँगा ?
सभी रचनाएं एक से बढ़कर … महाकाल की नगरी और शब्दों का जादू … अनुपम भाव लिए हुए
aabhaar badhiya kavitaon ke liye..
उज्जैन से यूं बतियाना अच्छा लगा।
पंकज भाई मेरे पसंदीदा कवियों में से हैं. इसलिए लिंक देखकर बरबस यहाँ चला आया .. कहते अजीब लग रहा है पर उज्जैन पर लिखी इन कविताओं से बहुत जुड़ा महसूस नहीं कर पा रहा…