अनुनाद

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मोनिका कुमार की एक कविता और उस पर बहस : फेसबुक विशेष


कुछ दिन पहले प्रतिलिपि ब्‍लाग पर मोनिका कुमार की कुछ कविताएं प्रकाशित हुईं। कविताओं के साथ एक लम्‍बी टिप्‍पणी भी गिरिराज किराड़ू ने दी और प्रस्‍तुति का लिंक फेसबुक पर साझा किया गया। इस तरह किसी ब्‍लागपोस्‍ट का लिंक फेसबुक पर आना एक सामान्‍य बात है पर इस लिंक और गिरिराज की शुरूआती टिप्‍पणी ने यहां छापी गई कविताओं में से एक कविता पर लम्‍बी बहस को जन्‍म दिया जो ‘कविता और राजनीति’ के एक ‘लगभग सेमीनार’  बदलती चली गई। 

अब तक हम ब्‍लाग से सामग्री फेसबुक तक ले जाया करते थे…पर इधर कुछ ये उलटबांसियां प्‍यारी लगने लगी हैं। अनुनाद ने फेसबुक विशेष नाम से एक लेबल अपने फार्मेट में जोड़ा है, जिस पर अब तक कल्‍पना पंत और शायक आलोक की कविताएं प्रस्‍तुत की गई हैं। इस बार यह सुखद अहसास है कि हम न सिर्फ़ कविता बल्कि उस पर हुई लम्‍बी बहस को भी अपने पाठकों के सामने रख पा रहे हैं।  इस पोस्‍ट के श्रमपूर्ण संयोजन का काम गिरिराज किराड़ू ने किया है, उन्‍हें शुक्रिया कहना बनता है…..शुक्रिया दोस्‍त।    

फेसबुक विशेष 




कविता

उसके घर उड़ते हुए आए झंडे

रंग फीके पड़ गए थे
पर कपड़ा था अभी मजबूत
छपा हुआ था उसपे कुछ
जो समझ नहीं आया
वह सीख रही थी सिलाई उन दिनों
जान रही थी किसी भी कपड़े का सही इस्तेमाल
उसके पास थी कैंची, सुई  और धागे की गुच्छी
तीनों थी उसके हुकुम की गुलाम
दो पल सोचा उसने दुपट्टा सँभालते हुए

लो उभर आएं हैं सामने तीन रुमाल

(शीर्षकहीन कविता, मोनिका कुमार)

प्रतिलिपि ब्लॉग पर पोस्ट का लिंक:

बहस

कविताओं के साथ प्रकाशित सम्पादकीय टिप्पणी (गिरिराज किराडू)

काँच के बर्तनों को छूना, चपरासी का घंटी पीटना, कहीं से उड़कर घर में आ गिरे झंडे से रूमाल बनाना, तितलियों का कपड़ों को सूंघते हुए उड़ जाना, तस्वीर खींचने को आमादा कैमरे और इरादे के सामने टाँगों का काँपना – यह इन कविताओं में होने वाली घटनाएँ‘  हैं. ये छोटी, रोज़मर्रा, अदृश्य घटनाएँ यहाँ कुछ इतनी सघनता से, और इतनी अप-क्लोज घटती हैं कि एक पोयटिक इवेंटमें बदल जाती हैं जिसमें कई मानी और उससे ज्यादा उनके इशारे इस तरह रहते हैं कि एक झंडा उड़ता आता है  जिस पर लिखी इबारत एक लड़की को समझ नहीं आती और वह उसे पलक झपकते ही तीन रूमालों में बदल देती है को सत्ता और उसके ‘अबूझ‘ गल्प का एक आम नागरिक द्वारा विखंडन  की तरह पढते हुए आप इस बात से भी बेखबर नहीं रह सकते कि लड़की ने यह किसी भारी भरकम आइडियोलॉजी या मशीनरी से नहीं किया है – उसका हुनर है सिलाई और उसकी मशीनरी है कैंची, सुई  और धागे की गुच्छी‘. इसी तरह चीनी मिट्टी के बर्तन और काँच के बर्तन का युग्म आख्याता के लिए वर्ग-चिन्हित, वय-चिन्हित अनुभव का स्रोत है; काँच के बर्तन छूने के आतंक को सभ्यता के पारदर्शी लक्षण की संगत में ही पढ़ा जा सकता है.  या जैसे एक चपरासी के जीवन के दैनिक दुस्स्वप्न को उसके, पीतल के चकले और घड़ी के बीच एक त्रिकोण प्रेम-प्रसंगके बिना नहीं पढ़ा जा सकता. या सबसे सुन्दर तस्वीरखींचने को अमादा और असुंदर होने की वेदना का मज़ालेने वाले कैमरे के मनचलेपन को ब्यूटी मिथ और वोयरिज्म के बिना तो नहीं ही पढ़ा जा सकता लेकिन असुन्दरता को ओन (own) करने की जिद और टाँगों की कंपन के बिना भी नहीं.
तो, हे पाठक! संसार को अपने ढंग से बूझती, बतलाती और उस बयान में उसे कुछ बदलती इस नयी कवि – मोनिका कुमार – का इस्तकबाल करो.


अशोक कुमार पाण्डेय: : फीके पड़ चुके रंगों वाले मजबूत कपड़े के झंडे को दुपट्टा संभालते हुए पलक झपकते तीन रूमालों में बदल देना, गजब की पोएटिक एक्सलेंस के साथ बरता हुआ अद्भुत (क्षमा गिरि…और कोई शब्द सूझ नहीं रहा😉 प्रयोग है. इसकी अर्थबहुलता ही नहीं, इसकी जो मारक सहजता है, वह एकदम से आपको चौंकाती है. मोनिका जी को और-और-और पढ़ना चाहूँगा.

शिरीष कुमार मौर्य : मोनिका कुमार की कविताओं पर पिछले कुछ समय से सभी कविताप्रेमियों की निगाह है….कुछ ख़ास कारणों से उनके लिखे पर ध्‍यान जाता है। जो प्रतिलिपि ब्‍लाग द्वारा प्रस्‍तुति के तौर पर कहा गया लगभग वही बातें मन में आती हैं….सिर्फ़ विखंडन को छोड़कर। सत्‍ता से आए एक झंडे को तीन रूमाल बना देना श्रमजनित उत्‍पादन है….कैंची, सुई और धागे की गुच्‍छी विखंडन के औज़ार नहीं…निर्माण के उपकरण हैं। इनसे मनुष्‍योचित निर्मिति सम्‍भव होती है। दरअसल हर चीज़ को सिर्फ़ एक पाठ की तरह देखने के प्रयासों का इस ओर जाना लाजिमी ही है…. ऐसा मेरे मन में तात्‍कालिक प्रतिक्रिया की तरह आया…सो लिख रहा हूं। सभी कविताएं बहुत अच्‍छी लगी और प्रतिलिपि की प्रस्‍तुति भी। मेरी बधाई ब्‍लाग और कवि, दोनों को.

गिरिराज किराडू :  हमारे ख़याल से तो सत्ता का विखंडन एक श्रमजनित उत्पादक गतिविधि है और हम तोविखंडनको एक ऐसी कारवाई की तरह ही देखते हैं जो किसी के भी फ़रेब में नहीं आती. देरिदा विखंडन को मार्क्सीय सिद्धांत का ही एक प्रकार मानते थे. उससे पीछे हटना नहीं. यह और बात है कि उत्तर आधुनिकता के नाम पर जो फैला अपने जनपद में उसमें देरिदा और विखंडन भी उसकी भेंट चढ़ गए.

मोनिका कुमार : गिरिराज : बिलकुल ! विखंडन श्रमजनित है../ निरंतर प्रक्रिया भी जिसे किसी और चीज़ में रिड्यूस नहीं किया जा सकता…the constant deferring that cannot be subsumed by any means.

शिरीष कुमार मौर्य :  श्रमजनित विखंडन – रोचक पद है मेरे जनपद में 🙂

अशोक कुमार पाण्डेय : श्रमजनित नवनिर्माण. सत्ता की सेवा की जगह जनता की ज़रूरत के लिए. मैं तो यही देख पा रहा हूँ.

आशुतोष कुमार : दूसरी और पांचवी कविता अधिक मुतास्सिर करती है . सहज समझे जाने वाले मनोगत भयों का सहसा सभ्यता के रूपक में बदलना पढ़ने वाले को ठिठकने और सोचने की गुंजाइश देता है .बाकी कविताओं में विचार -सजगता किंचित नुमायाहै . यह नुमाया होना (न कि विचार -सजगता) कविता की अनुभव-तरलता को सीमित करता है . शायद. पहली कविता पर यहाँ कुछ चर्चा हुयी है , जो अकारण नहीं है . झंडे का रूमाल में बदलना विखंडन है , निर्माण है, दोनो है या दोनों नहीं है, इस के पहले सवाल यह है कि झंडा ही क्यों खास तौर पर रूमाल बनने के लिए चुना गया .क्या यह मजाज़ के आह्वान का जवाब है ( तुम इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था‘)? इस तरह के सवाल न उठते अगर विचार-सजगतानुमाया न होती. रूमाल तो कपड़े के किसी भी टुकड़े का बन जाता, लेकिन कविता में तो झंडा आया है, वह भी ऐसा, जिस पर लिखा हुआ कुछ पढ़ा नहीं जाता. लेकिन इस अबूझ लिखे को पढ़ने का एक तरीका वह है , जो गिरिराज ने चुना है, दूसरा शिरीष ने . ऐसा इसलिए कि कविता खुद पुकार कर कह रही है कि हे पाठक आओ, इसे पढ़ो . यह कुछ अबूझ लिखा झंडा है, जिसे मैंने रूमाल बना दिया है. दिलचस्प यह है कि ऐसा करते हुए कविता खुद एक झंडे में बदली जा रही है. शायद .

गिरिराज किराडू : आशुतोष कुमार: मुझे नहीं लगा कि विचार सजगता नुमाया है, बल्कि अभी भी वह काफी अंडर-स्टेटेड ही है – और हम तो एकदम झंडाबरदार कवितों के भी निर्लज्ज प्रशंसक हैं – मेरे खयाल से आप भी.

आशुतोष कुमार: विचार अंडरस्टेटेड है, विचारसजगतानुमाया है . अंडरस्टेटेड होने की कारण ही उस विचार को अलग अलग तरह से पढ़ने का अवकाश भी है .जैसे आप ने कहा की झण्डे का रूमाल बनना सत्ताका विखंडन है. यह एक पाठ है. लेकिन सत्ता ही क्यों , झंडा तो मजदूरों का लाल झंडा भी हो सकता है. जो विचार यहाँ अंडरस्टेटेड है, उसे खुल कर कहें तो वह यह है -राजनीतिक कार्रवाइयां बेकार हो चुकी हैं, इस लिए रचनात्मक कार्यक्रम बदलाव का बेहतर विकल्प है. कविता इस राजनीति -विरोधी विचार को खुल कर नहीं कहती, लेकिन वह इस की अनदेखी भी नहीं करने देती , यही उस की विचार -सजगता का नुमाया होना है. झंडाबरदार कविता अलग होती है , क्योंकि उस के झंडे पर लिखी हुयी इबारत साफ़ नज़र आती है. वह अच्छी और बुरी दोनों तरह की हो सकती है. नुमाया विचार-सजगता तब होती है , जब हम एक विचार को संप्रेषित तो करना चाहते हैं, लेकिन उसे अंडरस्टेटेड भी रखना चाहते हैं . कविता की मुश्किल यह है. वह ‘ख़ास‘ ‘विचारनहीं . यानी हम विचार के कविता में ढलने की प्रक्रिया की बात कर रहे हैं , किसी ख़ास विचार के नाम पर उसे राजनीतिक तरीके से खारिज नहीं कर रहे हैं. शायद.

गिरिराज किराडू : होने को तो झंडा आईपीएल की किंग्स इलेवन पंजाब का भी हो सकता है लेकिन कविता में एकदम पुख्ता संकेत (‘फीके रंग”, ‘तीन‘) है कि यह झंडा भारत गणराज्य का झंडा है और उस पर लिखी इबारत जनसंख्या के एक बड़े हिस्से के लिए अबूझ रहती आयी है और अबूझ है – यह उस झंडे को फाड़कर रूमाल बनाना है. यह खुद एक रेडिकल राजनैतिक कर्म ( राष्ट्रद्रोह!!) है न कि राजनीती विरोधी विचार. जैसी राजनीती-विरोधी कांस्पिरेसी आप देख रहे हैं, वह कहाँ है?

आशुतोष कुमार : कांस्पिरेसी ? मैंने तो ऐसा कुछ नहीं देखा .आपने कहाँ देखा? अगर वह भारतीय गणराज्य का झंडा ही है और इस झंडे को फाड़ देना (और फेंक देना नहीं रूमाल बना देना) ही रेडिकल राजनीतिक काम है , तो यह खासी रेडिकल कविता है. लेकिन भारत के जो रेडिकल ग्रुप भारतीय झंडे को फाड़ डालने में रूचि रखते हैं, वे उस का रूमाल तो नहीं बनाते !

गिरिराज किराडू : सिलाई करने वाली एक आम स्त्री का यह कर्म है. या तो आख्याता की उन् ग्रुप्स तक पहुँच नहीं या उन् ग्रुप्स की आख्याता तक.

शिरीष कुमार मौर्य : प्रिय गिरि….अगर ये झंडा भारत गणराज्‍य का है और हमने पाठ और संकेत में गुज़र करने की कसम खा ली है तो फिर रूमाल भी तीन रंग के बनेंगे…केसरिया….हरा और सफ़ेद….केसरिया जो हिंदुत्‍व का रंग है….हरा जो इस्‍लाम का और….सफ़ेद दोनों को किसी तरह जोड़े रखने वाले शांतिमार्गियों का…..बाप रे बाप….ये तो एक भली चंगी मेहनतकश या आम जनता की प्रतिनिधि लड़की से जुड़ी कविता को अनर्थ की ओर ले जाना होगा। मैं बार-बार कहूंगा..ये विखंडन … ये पाठ….उफ़….ये संकेत…सब तबाही के रास्‍ते हैं …..कम से कम मेरे जनपद में….जो भूखा है…दूखा है… हमारी कविता इसी जनपद की कविता है…इसी में जन्‍मती है…इसी में मरती है….या फिर शायद मुझे ही कोई फितूर है….

गिरिराज किराडू : यार तुम्हें कविता से कोई दिक्कत नहीं, ‘विखंडनआदि से है यह मैं जानता हूँ पहले भी एक बार कहा थागोली मारो देरिदा को‘. तुम्हारी तकलीफ हम सब की तकलीफ है लेकिन एक बार बताओ कविता के साथ और क्या किया जाए. तुम बताओ तुम झंडे से रूमाल बनाने को कैसे लेते हो? सवाल तो यह भी है कि क्या उसी कवि को झंडे से रूमाल बनाना चाहिए अपनी कविता में जो सड़क पर भी झंडे के साथ यह सलूक कर रहा हो या मेरे जैसे लोगों को भी जो अन्यथा बूर्ज्वा जीवन जी रहे हैं?

शिरीष कुमार मौर्य : गिरि अब क्‍या कहूं….तुम्‍हारी तकलीफ़ हम सब की तकलीफ़ हैयह स्‍वीकृति मेरे लिए उसी अनूठे परस्‍पर विश्‍वास की तरह है, जिसे मैं हमेशा तुम्‍हारी कविताओं में पाता हूं। और प्‍यारे अंतिम पंक्ति में मेरे जैसेनहीं….हमारे जैसे‘ …..हम सब…..सब्‍ब….

अशोक कुमार पाण्डेय : भाई, शिरीष और गिरि, मेरी मोटी बुद्धि यह समझती है कि तीन रंगों वाला झंडा सत्ता की सेवा करता है, जब उसे रूमाल में बदल दिया जाता है तो वह जनता के काम की चीज बन जाता है. अब ये विखंडन-उखंडन करके जो चाहे जैसे अर्थ निकाले. वह दिक्कत पाठ की शायद अधिक है, बनिस्बत कविता के.

मृत्युंजय: मोनिका जी की कवितायें दिलचस्प और गहरी हैं, निश्चय ही. पाठ के लिए आमंत्रित करती हैं. कवितायें पढ़ी, फिर टिप्पणियाँ और फिर झंडे वाली कविता पर उल-जुलूल लिख बैठा. शायद, मैं सही न होऊँ, पर मित्रगण की बहस से कुछ हासिल ही होना है.

इस कविता में झंडे दमन की कोई अर्थ ध्वनि नहीं रखते, न बाजार के, न ही राष्ट्रवाद और न ही किसी प्रतिरोध आख्यान के. सिर्फ झंडाहोना राजनीति के होने का अर्थ रखता है चाहे वह कैसी भी राजनीति हो. झंडे की खासियत यह है कि वह फीके, मजबूत और अबूझ, न समझ में आने वाली लिखावट (फीके रंगों के बावजूद मिटती हुई नहीं) वाला है. यह सारे गुण कैसी राजनीति के धर्म हैं? स्त्री के लिए संभव है कि राष्ट्रवादी या प्रतिरोध की राजनीति फीकी, मजबूत और अबूझ हो पर बाज़ार की राजनीति तो कतई नहीं. इसलिए चूल बैठाने के लिए अगर हम इसको बाज़ार का झंडा मान लें तो ऊपर बताए उसके गुण असंगत हो पड़ेंगें. अगर झंडे राष्ट्रवादी या प्रतिरोधी हैं तो झंडे की लिखावट को कविता की स्त्री बूझ नहीं पाती, वह उसका उपयोग मूल्य देखती है. या इन राजनीतिक झंडों का रूपांतरण (विखंडन) लघु में करती है. यह कर्ता स्त्री लघु यंत्रों के सहारे खास मशीनरी से रचनात्मक ऊर्जा हासिल करती है.

स्त्री का यह विखंडन किस दमन का प्रतिकार है? झंडे के दमन का? माने राजनीति के दमन का? या गिरिराज जी के मुताबिक़ राष्ट्र के नैरेटिव के दमन का. झंडे के तीन रंगे होने का कोई इशारा मुझे तो कविता के भीतर से नहीं मिला. अगर आखिर में आये तीन रूमालों की बात छोड़ दें. तीन रूमालों को अगर तीन रंगों का इशारा मानेंगें तो बकौल शिरीष भाई, मुश्किलें पाठ की बढ़ जायेंगीं. इसी तरह झंडे को प्रतिरोधी झंडा मानने/न मानने की भी कोई खास वजह कविता में मुझे नहीं मिली. बेहतर यह हो कि इसे सामान्य राजनीति का प्रतीक ही समझें. तमाम राजनीतिक झंडों के बहुधा उपयोग की याद हमें बचपन से ही है.

स्त्री राजनीति का विखंडन कर उसे छोटी-छोटी चीजों में बदल देती है. छोटी चीजों की राजनीति, जो किसी भी नैरेटिव के खिलाफ हो. इस छोटे प्रतिरोध को रचने के लिए उसके पास क्या है? कैंची, सुई और धागे की गुच्छी. स्त्री की सीखी हुई नयी-नयी तकनीक. हालांकि ये तीनों उत्पादन के साधन उसके गुलाम हैं, पर इनके माध्यम से वह एक उपयोग मूल्य ही रच पाती है. यह उपयोग मूल्य की जिंस (रूमाल), राजनीति के नैरेटिव के खिलाफ प्रतिरोध है. कविता राजनीति से मुक्ति चाहती है और जीवन के उपयोग-उपभोग धर्मी लघु के साथ खड़ी है.

मोनिका कुमार : अरे ! यहाँ स्थिति ऐसे रुमालिया बन पड़ी है, यह तो मैं अब पढ़ रही हूँ 🙂
मैं भी कुछ पाठ करना चाहती हूँ कविता का, एनिकडोट्स जो मुझे तुरंत याद आई …दो एक दिन में वक्त मिलते ही इस पर वापिस आती हूँ.

शिरीष कुमार मौर्य : मोनिका देखिए कितनी रोचक होती गई है ये बहस…मैं सोच ही रहा था कि आप कुछ बोलेंगी….मैं तो किसी कविता पर इतनी बातचीत को बहुत सुखद मानता हूं…कविता सिर्फ़ अच्‍छी कविता होने के सुरक्षित खोल में न छुप जाए…बल्कि बहस के लिए उकसाए तो कविता है मेरे लिए…अब उन अंतर्कथाओं का इन्‍तज़ार रहेगा…जो आपको तुरंत याद आई हैं 🙂

मोनिका कुमार : झंडे की प्रथम स्मृतियाँ क्या थीं…भारतीय गणतन्त्र की गरिमा और शान का परिचायक जिसे मैंने  गणतन्त्र यां स्वतन्त्रता दिवस पर पहली बार देखा होगा, बिलकुल शुरू का तो याद नहीं पर जल्द ही मैंने यह देखा कि झंडा बहुत गम्भीर चिन्ह है, आत्म सम्मान का जिस में निज नहीं अपितु कुछ और है, बहुत भव्य जिस में हमारी पहचान लवलीन हो जाती है , मैंने देखा कि ऐसे अवसरों पर झंडा फहराते हुए लोग अचानक बहुत गम्भीर हो जाते हैं, प्रिंसिपल, जिलाधीश से लेकर चपरासी तक उन दस पलों में कुछ और हो जाते हैं जब तक झंडा ठीक से लहराने नहीं लगता, उस में बंधे हुए फूल गिरने नहीं लगते और फिर शाम को उसे जिस तरह उतारा जाता है तो लगता है जैसे आत्म सम्मान की , लोकतंत्र गणतन्त्र की  स्पिरिट को सहेज कर रखा जाएगा पेटी में, उसी झंडे को दो हाथों में ऐसे थमाया जाता है जैसे सच में इसी में लोकतंत्र का अर्थ निहित हो…दिन में दो वक़्त की अति गम्भीरता मुझे लगभग डरा ही देती थी, मुझे यह समझ नहीं आता था अचानक झंडे के केन्द्रीय होने से सारा माहौल श्रद्धामयी कैसे हो जाता है और फिर उन दो रस्मों के बाद सब कुछ नोर्मल हो जाता है…ऐसे तुरंत स्विच-ओवर अभी भी हैरान करते हैं पर तब जब कोई सच में बच्चा हो तो यह बात परेशान भी कर सकती है.

फिर स्कूल में यह पढने को मिला स्पोर्ट्स की क्लास में कि पदार्थ के रूप में झंडे का संकल्प क्या है, यह कितने इंच का होना चाहिए, फटा हुआ झंडा नहीं फहराना चाहिए, रंग फीके पढ़ जाएँ तो उसे ससम्मान जला देना चहिये इत्यादि और फिर टीवी पर पहली बार यह गौर किया कि देश के महान लोगों के शव को झंडे से लपेटा जाता है, इंदिरा गाँधी का राष्ट्रीय झंडे में लिपटे शव का चित्र सबसे तेज़ याद है, उसके बाद कारगिल में जो पंजाब के कुछ जान पहचान के लोग भी शहीद हुए, उन्हें भी यूँ देखा और देखा कि ऐसे दृश्य में ऐसा कोई नहीं होता जिसके चेहरे पर गौरव और गर्व में मर मिटने वालों के लिए श्रद्धा न हो…बाकी तो सबकी स्मृतियाँ होंगी ही हम सबकी कॉमन, कैसे अंतराष्ट्रीय खेल प्रतियोगितायों  में तिरंगा देखर जो उन्माद उठा ( यां उठता है )..चक दे  इण्डिया वाली फीलिंग.
गजब तब हुआ जब मैंने नकोदर (जहाँ मेरा घर है) में एक लोकल चुनाव प्रक्रिया को बहुत जिज्ञासा से देखा, जो किताबों में पढ़ा, मैं उसका व्यावहारिक रूप देखना चाहती थी, उस चुनाव में बहुत उत्साह से प्रचार हुआ, छोटे शहरों में स्थानीय चुनाव जो नगर पालिका के संगठन के लिए किये जाते हैं, उसका उल्लास विधान सभा के चुनावों से कहीं अधिक होता है क्यूंकि इन चुनावों के उमीदवार उनके परिवार वाले, रिश्तेदार, पडोसी, मित्र यां जान पहचान के ही होते है.

(यह कहानी फिर कभी कि ऐसी स्थितियों में सोशल सेन्स कैसे बदल जाती है
, मिखाइल बाख्तिन की शब्दावली में देखें तो यह वैसा कार्निवल बन जाती है जहाँ आप स्पष्ट अपनी वफादारी दिखा सकते हैं, ‘अपने लोगचुन और घोषित कर सकते हैं… और अस्थायी तौर पर सोशल रुल्ज़ बदल जिए जाते हैं जिन पर कोई शर्मिंदा भी नहीं होता, एक और किस्म का सोशल कान्ट्रेक्ट), चुनावों में बेशुमार झंडेबाज़ी देखी और उससे भी ज्यादा झंडे देखे, कांग्रेस ने आशोक चक्र की जगह पंजा छपवा दिया था और अकाली दल ने भी केसरी रंग खूब जमाया और भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का यह पंजाब में पहला मौका था यानि चारों और झंडे ही झंडे दिखते थे गली में, बजार और हर जगह, मैं यहाँ आकर पहली बार कन्फ्यूज़ हुई कि क्या यह वही झंडे हैं यां झंडे कई किस्म के होते हैं और यह थोड़ी कम गम्भीर प्रवृति वाले झंडे हैं जिन्हें असावधानी से भी लिया जा सकता है…यह बताने में नाटकीय लग रहा है लेकिन यह सच है कि मेरे वर्ल्ड वियू में झंडों के मामले में खलबली आ गई जब मैंने चुनाव बीत जाने के बाद उन झंडों का इस्तेमाल देखा ( शायद यह प्रस्तुत कविता की कन्सेप्शन भी है ), मैं एक रिक्शा में बैठने लगी, शायद कुछ धूल मिटटी चिपकी हुई थी तो रिक्शा वाले ने सीट के अंदर से झाड़न निकला तो वह एक फीका पड़ा हुआ झंडा था, और फिर उसका अंगोछा, तौलिया और झंडे का दोबारा पदार्थ बनना या कह लीजिए रीसाइक्लिंग देखी, इकोलोजी के परिपेक्ष से देखें तो यह कदाचित ग़लत नहीं, पर्यावरण संरक्षण जहाँ गम्भीरता से साहित्य अध्ययन में प्रवेश कर रहा है, वह ऐसा तो नहीं प्रत्यक्ष रूप से लेकिन कहीं ना कहीं विचार और पदार्थ की ऐसे संसृति उसी सोच का कर्म स्वरूप है.

झंडे को सत्ता, प्रभुसत्ता के चिन्ह की तरह देखना और झंडा फाड़ने के कर्म को प्रतिरोध की तरह देखना बहुत बेसिक लेकिन मानीखेज प्रतिक्रम है लेकिन और भी महीन गांठे हैं…झंडा बनाने वाले और झंडा फाड़ने वालों को एक ही राष्ट्रीय पहचान पत्र से नहीं देख सकते, यह एक अब्सर्ड बात हो जाती है कि झंडे का रुमाल बनाने वाले का क्या इल्म है, उसकी क्या स्टेक्स हैं झंडे को राष्ट्रीय पहचान बनाने में, यानि वही चीज़ किसी के लिए विचार और किसी के लिए पदार्थ है और इसका आधार बेशक आर्थिक भी है और यह विरोधाभास का चरम कि एक अफसर अगर झंडे की पवित्रता को भंग करता हुआ पाया जाता है तो यह राजद्रोह जैसा अपराध है, संविधान का उल्लंघन है लेकिन एक रिक्शा वाले का यह अपराध हँसी में भी टाला जा सकता है बल्कि इस में गहरी समझ, सृजनात्मकता भी देखी जा सकती है पर एक ही राज्य में रहने वाले लोगों के लिए झंडे उठाने और फाड़ने के लिए अलग अलग पीनल कोड क्यूँ ! यानि यह बात कितनी स्वीकृत और सहज हो चुकी है है के हमारे नैतिक मूल्य सरासर स्वेछाचारी हैं और जैसे कल्चर से बड़ी कोई मिथ नहीं और राष्ट्रीयता से बड़ा कोई स्वांग नहीं, जैसे झंडे झुनझुने हैं अपना अपना राग अलापने के और झंडे से रुमाल बनाना इको फ्रेंडली और समझदार होने का प्रतीक भी.

मेरी चिंता यह कि यह महज सृजनात्मकता ही नहीं बल्कि सोशल एक्सक्लूजन का केस भी है. !
गिरिराज की बात से सहमति की झंडे फाड़ना विखंडन के रूप में देखा जा सकता है, एक आम आदमी का सृजनात्मक प्रतिरोध, सत्ता और उसके दम्भ को खंडित करने का एक प्रयास लेकिन मैं यह भी देखूंगी कि इस विराट अंतर के लिए हम इतने कम्फर्टेबल क्यूँ ! आखिरकार यह प्रतिरोध कोई चेतन प्रतिरोध नहीं, इसका संकल्प असल में सत्ता को सैबोटेज करना कदापि नहीं, बेशक कला प्रतिरोध का रूप होती है, हमारी किसी भी तरह की स्थापित की गई कामन सेन्स को उधेड़ती हुई लेकिन फिर भी इसे हर स्थिति में देखना और जानना होगा कि इस में किस तरह का प्रतिरोध है, इस में हम चेतन/अवचेतन का बेनेफिट ऑफ़ डायुट कितना दे सकते हैं.

असल में सहमति मेरी सभी से है जिन्होंने इस बहस में विचार दियें हैं और आशुतोष जी की  बात से भी इंकार नहीं कि प्रोपेगंडा का विरोध करती हुई कविता बहुत बार खुद प्रोपेगेंडा बन जाती है ( बहुत सी अपनी लिखी कविताएँ मुझे ऐसे लगने लगती है और इसीलिए मैं ऐसी कविता को पढ़वाती भी नहीं हूँ )..या फिर लोहे को लोहा काटता है, या फिर मिथ का बदला मिथ,  इसलिए झंडे के विरुद्ध रुमालनुमा झंडा खड़ा करना ही सबसे सहज तरीका भी हो सकता है…शायद ! मृत्युंजय का विश्लेष्ण बढिया लगा और शिरीष जी जिस विनम्रता और धैर्य से बात रखते हैं, उसकी बहुत तारीफ मेरे दिल में… और शायद सिर्फ उन्होंने ही मेरी कमी महसूस की बहस में 🙂

आशोक जी ! आपकी बात भी सही, ज्यादा समस्या कविता से नहीं बल्कि उसके पाठों से पैदा होती है पर पाठ के बिना तो कविता जैसे ब्लैक होल में चली जाती है, उसे वहां से रेस्क्यू करने के लिए कोई जुगत जुगाड़ तो करना पड़ता है पाठ पठन करके..शायद !

हाँ लेकिन यह बात मुझे बहुत रोचक लगी जिस तरह झंडे के रंगों और रुमालों की गिनती का विश्लेषण किया गया, जबकि मुझे सिर्फ यह लगा कि झंडे का अगर सामान्य साइज़ देखा जाए तो उस में से तीन रुमाल ठीक ठाक आकार के बनाये जा सकते है जिससे मुंह पोंछा जा सके या सिल्वर फोयिल ( 🙂 ) खत्म होने पर रोटियां लपेटी जा सकें, दर्जिन के लिए यह साधारण लॉजिक भी हो सकता है पर कल्चरल स्टडीज़ के युग में मासूम और निर्दोष क्या बचा है !
कविता में सिलाई सीखने वाली लडकी आ गई हालाँकि अनुभव में कोई और था…उसकी वजह मेरा दर्जियों की कला से अतिप्रभावित होना है, और फिर कविता क्राफ्टभी तो है, एक्टिंग भी ..

बाकी कविता तो मैटाफर पर आबाद होती है क्यूंकि मैटाफर की मैटाफरसिटी अनंत है…मैटाफर की प्रतिष्ठा भी बदलती रहती है पाठकों के साथ साथ…यह अनुभव बहुत अच्छा रहा आप सब के साथ.

पता नहीं क्यूँ अपनी लिखी कवितायें अच्छी तो लगती हैं पर उन्हें लेकर वात्सल्य नहीं है, बल्कि गहरा संदेह रहता है, यकीन करिए, मैंने सबसे तेज़ ध्यान आशुतोष जी के उठाए  ऐतराज़ पर दिया, उसे समझने की कोशिश की, अभी कह पाना संभव नहीं होगा कि उसका क्या प्रभाव रहा, और सबकी बातों का क्या असर रहा.. पर कुछ तो होगा…शायद !
जब सभी चीज़ें बदलती रहती है और अनिष्ट हो सकती हैं तो फिर पोएम्ज़ कैन आल्सो गो रोंग !
यह बहुत लंबा कमेन्ट हो गया है…सिविल ऑर्डर और फेसबुक मैनर्ज़ की अवज्ञा शायद ! 🙂

आशुतोष कुमार : मोनिका कुमार , इस बहस का एक सुखद नतीजा यह रहा कि झंडे के संस्मरणों पर ये सुंदर संजीदा टीपें पढ़ने को मिली. कवि की यह टीप भी उस की विचार सजगताका दस्तावेज़ है . आज हिंदी कविता को इस की सख्त जरूत भी है .इस लिए कि यहाँ इधर विचार-विरलता हावी होती गयी है . इस लिहाज से आप की कोशिशें भारी उम्मीद जगाने वाली हैं. यह सब पढ़ लेने के बाद अब उस कविता को उसी तरह नहीं पढ़ा जा सकता, जैसे पहले पढ़ा गया था. उत्कृष्ट कविता अनुभव, संवेदना और विचार के गहरे रासायनिक संश्लेष से ही बनती होगी. यह प्रक्रिया जितनी गहरी होती जाती है, उतना ही अंतिम परिणति में मूल तत्वों को अलग- अलग पहचानना मुश्किल हो जाना चाहिए , उसे जाहिर या नुमाया कम से कम होना चाहिए , ऐसा मुझे अब भी लगता है . हालांकि आलोचना करते हुए सूत्रों और सिद्धांतों के आधार पर कविता का विश्लेषण गणित के प्रमेय की तरह किया जाये तो उस के सामने कविता असहाय और अवाक ही हो रहेगी. हमें आप की कविताओं का इंतज़ार रहा करेगा.


0 thoughts on “मोनिका कुमार की एक कविता और उस पर बहस : फेसबुक विशेष”

  1. बाप रे कभी कभी इतने सूक्ष्म भाव संकेतों पर कविजन टूट पड़ते हैं -मजेदार !

  2. बड़ी स्पष्ट सी कविता है.. मायने खूब तलाशे गए हैं और विमर्श की ज्यादातर टिप्पणी समझ नहीं आई मुझे.. कवयित्री की खुद की अंतिम प्रतिक्रिया अभी पढूंगा बाद में..थोड़ी ज्यादा लम्बी और थोड़ी गंभीरता से शुरू हुई है तो आराम से पढना पड़ेगा.. सोचा पहले अपनी समझ समझा दूँ किसी पूर्वाग्रह में फंसने से पहले.. ये झंडे पोलिटिकल पार्टियों के चुनाव चिन्ह वाले झंडे हैं जो 'उन दिनों' बहुतायत से पाए जाते हैं..और वह एक आम स्त्री है..उसके पास ये झंडे उड़ के आये हैं और अपनी आम वस्तुस्थिति में ज़िन्दगी के हुनर सीख चुकी वह स्त्री उसका व्यवहारपरक इस्तेमाल रुमाल के रूप में कर लेने को आमादा है.. कस्बाई शहरों व गाँव में खूब होता है ऐसा.. बस.. यह कविता बस इतना ही कहती है.. कवयित्री ने आस पास की आम ज़िन्दगी पर पर अपनी एक नजर को कविता में रख दिया है..बस और वाकई बस.. और एक अच्छी कविता बन पड़ी है यह.. हा हा.. चीजें कभी कभी छोटी भी रहे महाप्रभुओं.. क्या क्या तलाश लाते हो.. 🙂

  3. वाह ! बहस मज़ेदार है.और यह मेरे स्वाद का है. प्रायः कवि बहुत कम बहस करते देखे गए हैं. आज खुश हुआ हूँ. मैं अकेला बहसने वाला कवि नहीं हूँ. कवि का अपना *पाठ* जान कर और भी मज़ा आएगा. लम्बी टिप्पणी है, और मेरी इन दिनो देर तक फ़ोकस कर पाने की केपेसिटी नही है. मैं परसंनली मानता हूँ कि अभिधात्मक कविता मे बहुत ताक़त्वर प्रतीक होते हैं.यदि हम उन्हे ग्रहण कतरने को तय्यार हों….क्यों, इधर प्रतीक को नकारने वाले लोग भी हैं ( होते रहें) और प्रतीकार्थ से ही पाठ भी अनेक बनते हैं. चाहे कविता को इलीट आख्याता का अंडरस्टेटेड वक्तव्य मानें या जंनपदीय वाचक का मुकम्मल बयान …….प्रतीक तो रहेंगे ही. इतना ज़रूर है कि पूर्व टिप्पणी को हटा कर इसे पढ़ता हूँ तो मन करता है कि इसे कोई शीर्षक ज़रूर दूँ. बल्कि चाहता हूँ कि हर पाठक/ श्रोता इसे अपना शीर्षक दे. और रचयिता कवि अपना ….. सुन्दर पोस्ट शिरीष.

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