कुमार विकल |
आज आज़ादी की सालगिरह है। हर कहीं झंडे फहराए जाए रहे हैं। भारतमाता को याद किया जा रहा है। पैंसठ साल की इस मां की गोद में न जाने कितने बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं…बिलख रहे हैं…उनका सामूहिक संहार किया जा रहा है….बच्चियों के कपड़े फाड़े जा रहे हैं ….अवसाद, हताशा और उन्माद में उसके बच्चे आपस में ही झगड़ रहे हैं…सड़कों पर उनका बहता हुआ ख़ून समकालीन राजनीति की गंधाती नालियों में जा रहा है… और मां की बेबसी भी छुपाए नहीं छुप रही। इस सबके बीच पता नहीं क्यूं मुझे कुमार विकल याद आ रहे हैं । अभी कुछ दिन पहले फेसबुक पर पहल के फिर शुरू होने की ख़बर मिली तो कुमार विकल याद आए….ज्ञान जी को सम्बोधित उनकी कविता आओ पहल करें याद आयी। एक विकल जनवादी प्रतिभा, जो अपने में डूब कर खो गई…चली गई हमेशा-हमेशा के लिए। उनकी कविताएं और उनके संग्रह कभी इतनी तरतीब में नहीं रहे कि शेल्फ पर निगाह डालते ही हाथ आ जाएं और न ये कवि ही ऐसा…
कुमार विकल जैसी प्रतिभा को समझना इतना आसान नहीं है। मैंने वाम छात्र राजनीति के दिनों में उन्हें पाया। उनकी कविताएं हमारे समकालीन जीवन और ऊर्जा को परिभाषित करती थीं, इसलिए वे बहुत निकट की कविताएं थीं। फिर जब साहित्य में प्रवेश करते हुए समूचा कविता संसार खुला तो कुमार विकल के अगल-बगल कई कविजन आ खड़े हुए….उनका चेहरा मानो किसी ग्रुप-फोटोग्राफ का हिस्सा हो गया। कुछ था मगर जो उन्हें बिना कभी देखे-मिले भी उनके लिए दिल में एक गहरी टीस की तरह बसा रहा….और बसा रहेगा मेरी समूची उम्रों तक। अपनी कविताओं में वे इतने साहसी और घायल दिखते रहे कि मन में एक फिक्र-सी बनी रही उनके लिए।
कविता की दुनिया वो अकेली दुनिया है, जहां आप बिना किसी से मिले, उससे मिलते चले जाते हैं…इतना कि वो शख़्स हमेशा के लिए आपकी भीतरी दुनिया में दाखिल हो जाता है…..और उसका एक अनिवार्य अंग बना रहता है…..मृत्यु बाहर होती है, आपके भीतर वो आपकी मृत्यु तक का साथी होता है….कुमार विकल मेरे ऐसे ही अग्रज साथी बने, जो बने रहेंगे ….जब मेरी मृत्यु आएगी तो कुछेक बेहद अंतरंग जनों के साथ कुमार विकल को भी वहां खड़ा पाएगी। यह सम्बन्ध जितना अजीब है, उतना ही ज़रूरी भी…मेरे लिए…मेरी लगभग कविताओं के लिए। मैं आज अनुनाद को एक निजी जगह की तरह इस्तेमाल करते हुए बहुत भारी मन से ये पोस्ट लगा रहा हूं…इसे लगाना इन कविताओं के कवि से अचानक मुलाकात के लिए जाने और उसे वापस इस बहुत सारी बची हुई कोलाहल से भरी दुनिया तक लाने की तरह है। यहां हम दो नास्तिक मिल कर फिर वही प्रार्थनाएं करेंगे….जो कभी शायद कुमार विकल ने अकेले की होंगी। ज्ञान जी के अलावा उनके अन्य साथियों को मैं उतना नहीं जानता पर उनके साथ अपने होने की शिनाख़्त ज़रूर करना चाहता हूं।
अँधेरों की साज़िश है यह
रोशनियाँ आपस में उलझें.
प्रभु जी, तुम्हीं जतन करो कुछ
रोशनियों के झगड़े सुलझें.
यक़ीन जानिए कविताकोश से हासिल कर यहां ऊपर लगाई गई उनकी छोटी-सी तस्वीर में इतना बूढ़ा लगने वाला यह आदमी मेरा सबसे नौजवान हमक़दम साथी है…और उसकी इन कविताओं में आने वाली कई पंक्तियों को मैं आज की वाम-राजनीति और वाम-कविता के लिए किसी सीख और एक दुआ की तरह भी देखता हूं।
***
-शिरीष
तस्वीर: प्रतिलिपि से साभार |
एक नास्तिक की प्रार्थनाएं
1
ये सभी प्रार्थनाएं
भक्तिगीत
विनय पद
और सभी आस्तिक कविताएं
एक निहायत निजी ईश्वर को संबोधित हैं
जिसे मैंने दुखी दिनों में
रात गये
एक शराबख़ाने की अकेली बेंच पर
पियक्कड़ी की हालत में
प्रवचन की मुद्रा में पाया था
ज़िन्दगी से भागे सिद्धार्थ
वापस लौट आओ
ज़िन्दगी अब भी कविता के रूप में
तुम्हारा इंतज़ार कर रही है
मैं जानता हूँ कि कविता में आदमी की मुक्ति नहीं
लेकिन जब आदमी
कविता को शराब के अँधेरे से निकालकर
श्रम की रोशनी में लाता है
तब वह आदमी की मुक्ति के नये अर्थ पाता है
***
2
प्रभु जी !
आप देर से आये
अब आपको कौन पिलाये?
शराबख़ाना उजड़ चुका है
दीवारों पर ऊँघ रहे हैं
मेज़ों पर रखे ख़ाली गिलासों के साये
और प्रार्थना की मुद्रा में बैठा
एक शराबी
धीरे–धीरे उचार रहा है
कुछ गीत, कुछ कविताएं
आओ, प्रभु जी !
आज रात का अंतिम काम करें हम
एक शराबी कवि को उसके घर पहुँचाएं
अँधेरे से उसे रौशनी तक ले जाएं.
***
3
प्रभु जी मेरी एक विनय
तो सुन लो
तो सुन लो
सभी प्रार्थनाएं लेकर मुझसे
एक शराबी कविता दे दो
जो मुझको सस्ती शराब के अड्डों पर ले जाए
जहाँ बूढ़े बेकार और बेकार रंडियाँ
या छाँटी मज़दूर
ज़हरीली दारू पी कर मर जाते हैं
अख़बारों के कालम भर कर
जीवन की क़ीमत जो मरने पर पाते हैं.
***
4
प्रभु जी,मुझको नींद नहीं आती है
एक शराबी कविता मुझको
रात–रात भर भटकाती है
सूनी सड़कों,उजड़े हुए शराबख़ानों में
अक्सर मुझको धुत्त नशे में छोड़ अकेला
जाने कहाँ चली जाती है.
प्रभु जी ! यह तब भी होता है
जबकि मुझको ठीक पता है
यह तो वर्ग शत्रु कविता है
मुझको भटकाना ही इसका काव्यधर्म है
मुझको आहत करना इसका वर्ग कर्म है.
फिर भी इसके एक इशारे पर मैं खिंचता ही जाता हूँ
बार–बार आहत होता हूँ
बार–बार छला जाता हूँ.
प्रभु जी, मुझको ऐसा बल दो
तोड़ूँ मैं इस मोहक छल को.
***
5
[साम्यवादी
देशों के नाम]
देशों के नाम]
जीवन ज्योति जले बुझ जाए
लेकिन कविता काम न आए
ऐसा अग्निदान दो प्रभु जी
कविता ही सूरज बन जाए.
अब तक अँधेरे में प्रभु जी
एक मशाल लिए फिरता था.
दुनिया रोशन कर दूँगा मैं
ख़ुद को दिए–दिए फिरता था.
देख रहा हूँ मगर अँधेरा
दुनिया में बढ़ता जाता है.
जो विश्वास लिए फिरता था,
ख़ुद से ही लड़ता रहता है.
ऐसे संकट–क्षण में प्रभु जी
कवि को ही कन्दील बनाओ.
मेरे लड़ते विश्वासों को
पास बुला कर कुछ समझाओ.
अँधेरों की साज़िश है यह
रोशनियाँ आपस में उलझें.
प्रभु जी, तुम्हीं जतन करो कुछ
रोशनियों के झगड़े सुलझें.
वरना इस संकट-वेला में,
कवि की उमर तो ढलती जाए.
तिस पर उसको सतत सताएं
शंकाओं के बढ़ते साए.
जीवन ज्योति जले बुझ जाए
लेकिन कविता काम न आए.
***
6
[अमितोज के लिए]
प्रभु जी कोई ऐसी युक्ति करो
दास को कविता–मुक्त करो.
कविता छलनी, भाषा नटिनी—
इतना भरमाया.
इसके ड्राईंगरूम की शोभा
बन कर समय गँवाया.
भूल गया मैं अपनी हस्ती ,
छोड़ी सारी फ़ाक़ामस्ती.
जब इस विष-कविता ने मुझको
एक सुरक्षा की चाहत का—
मीठा ज़हर पिलाया.
दास को विष-उन्मुक्त करो
प्रभु जी कोई ऐसी युक्ति करो,
ह्रासकाल की ढलती कविता—
में जब कोई कवि रच जाए,
भाषाछल के बावजूद वह ;
एक पतित कवि ही कहलाए.
ऐसे कवि की सृजनशीलता,
अनुभव ,चिन्तन,काव्यधर्मिता—
एक बीमार समय के लक्षण ;
ख़ुद में रोग बने कि जिससे—
कवि तो जीते जी मर जाए.
दास को जीवन युक्त करो,
दास को कविता–मुक्त करो.
प्रभु जी कोई ऐसी युक्ति करो.
***
7
जब मैं दुनिया के पहले
शराबख़ाने की कल्पना करता हूँ
शराबख़ाने की कल्पना करता हूँ
तो मुझे कविता और ईश्वर
एक साथ पी रहे नज़र आते हैं
ईश्वर धुत्त हो चुका है
और ढेर–सी शराब पीने के बावजूद
कविता की सजग आँखों में
अब भी एक शिकायत भरी प्रतीक्षा है
कवि, तुम इतनी देर से क्यों
आते हो?
आते हो?
एक समय के बाद कविता की उम्र ढल जाती है
तब वह किसी के काम नहीं आती है.
मैं जानती हूँ तुम कहाँ थे
गाड़ी –लोहारों के अड्डे में दारू पी रहे थे
और यहाँ आने के लिए अपनी फटी कमीज़ को सी रहे थे
मैं जानती हूँ ,तुम्हें वहाँ एक सुख
मिलता है
मिलता है
लेकिन इस धुत्त पड़े ईश्वर को देखो
इसे मेरे संभ्रांत शरीर के छन्दों से
दुख मिलता है.
कवि सुना है, गाड़ी लोहारों के
अड्डे में
अड्डे में
भी एक कविता
आती है
जो रात–रात भर
नाचती और गाती है.
कवि,सुनो तो.
आख़िर तुम्हारी क्या मजबूरी है
जो अपने अड्डे को छीड़ कर यहाँ आते हो
एक कविता से दूसरी कविता तक भटकते रहते हो.
***
8
जीवन भर की व्यथा–कथा को
कविता में कहना चाहा था
एक सुलगते वन का मैने
महाकाव्य लिखना चाहा था
लेकिन प्रभु जी, महाकाव्य से
जीवन जंगल बहुत बड़ा था
और हमारा जीवन जल भी
धीरे–धीरे सूख चला था
प्रभु जी, आओ मिलकर ऐसी
कोई नदिया ढूँढ निकालें
जिसके जल से एक सुलगता—
जंगल चंदनवन बन जाए
कविता से भी बड़ी नदी का
जल मैंने पीना चाहा था
महाकाव्य से बड़ी को
शब्दों में रचना चाहा था
***
ये कविताएं कविताकोश से साभार…क्योंकि संग्रह कभी था, अब नहीं है मेरे पास
***
कुमार विकल को ज्यादा तो नहीं पढ़ा ..पर जितना भी पढ़ा है ..उनकी कवितायेँ बेचैनी पैदा करती हैं
कुमार विकल की इन बेहतरीन कविताओं के लिए शुक्रिया
शुक्रिया शिरीष जी शेयर करने के लिए!
बढ़िया. जा रहा हूँ अब और पढने !
कुमार विकल मेरे सबसे प्रिय कवियों में से हैं. सच कहूं तो कविता लिखना सीखा ही गोरख, पाश,धूमिल और विकल को पढ़ते हुए.पहली काव्य पुस्तक मैंने इन्हें ही समर्पित की है. यह सीरीज (एक नास्तिक के प्रार्थना गीत) जब पहली बार पढ़ी थी तो जैसे दीवानगी की तरह सर चढ़ गयी थी…
कुमार विकल की कविताओं मे एक संत बोलता है. और हर दीवाने को रुलाता है. मैने उस संत को कई बार करीब से देखा है. हर कवि को देखना चाहिए. ये कविताएं पढ़ कर कविता पर भरोसा कायम होता है.