अनुनाद

हिन्दी साहित्य, समाज एवं संस्कृति की ऑनलाइन त्रैमासिक पत्रिका

सब वैसा ही कैसे होगा – अशोक कुमार पांडे की नई कविता


अनुनाद पर पिछली दो पोस्‍ट से प्रेम का एक गुनगुना अहसास-सा बना हुआ है, जो मुझे सुखद लग रहा है…तरह-तरह की हिंसा के बीच। पहले अग्रज कुमार अम्‍बुज की पोस्‍ट पर और फिर साथी जितेन्‍द्र श्रीवास्‍तव की प्रेम कविताओं के संग्रह पर लिखते हुए। संयोग ही कहा जाएगा कि कल देर रात दीपक त्‍यागी की पत्रिका प्रस्‍थान के लिए केदारनाथ अग्रवाल की प्रेम कविताओं पर लिखे जा रहे लेख के बीच में ही कहीं था कि मेरे जीमेल के इनबाक्‍स में अशोक प्रकट हुआ, अपनी प्रेम कविता के साथ….

ज्‍़यादा कुछ नहीं कहूंगा पर एक साथ घट रहे इस छोटे-से प्रसंग में मैंने ग़ौर किया कि वामपंथी कवि जब प्रेम कविता लिखते हैं तो उसमें विचार की भी उल्‍लेखनीय भूमिका होती है। विचार, प्रतिबद्धता, समर्पण और प्रेम मिलकर एक नये अनछुए पहलू को सम्‍भव करते हैं कविता में…

मैंने सिर्फ़ प्रतिक्रिया के लिए पढ़ायी जा रही अशोक की इस कविता को अनुनाद के लिए मांग लिया…कश्‍मीर के बाद इस तरह की कविता ने मुझे आश्‍चर्यचकित किया है और आश्‍वस्‍त भी। चूंकि प्रसंग प्रेम का है, इसलिए शुक्रिया जैसी औपचारिकता मैं यहां नहीं निभाऊंगा।  
चित्र : एम.एफ.हुसैन

सब वैसा ही कैसे होगा?
तुम कहाँ होगी इस वक़्त?
क्षितिज
के उस ओर अपूर्ण स्वप्नों की एक बस्ती है
जहां
तारें झिलमिलाते रहते हैं आठों पहर
और
चंद्रमा अपनी घायल देह लिए भटकता रहता है
तुम्हारी
तलाश में हज़ार बरस भटका हूँ वहाँ
नक्षत्रों
के पाँवों से चलता हुआ अनवरत
इतने
बरस हो गए चेहरा बदल गया होगा तुम्हारा
उम्र
के ही नहीं सफ़र के भी कितने निशाँ मेरे धब्बेदार चेहरे में भी 
मैं
तुम्हारे आंसुओं का स्वाद जानता हूँ और पसीने की गंध
तुम्हें
याद है अपने चुम्बनों की खुशबू?
एक
टूटा हुआ बाल ठहरा हुआ है मेरे कन्धों पर
अब
भी उतना ही गहरा, उतना ही चमकदार
टूटी
हुई चीजों के रंग ठहर जाते हैं अक्सर …
तुमने
विश्वास किया मेरी वाचालता पर
और
मैं तुम्हारे मौन की बांह थामे चलता रहा
भटकना
नियति थी हमारी और चयन भी
जिन्हें
जीवन की राहें पता हों ठीक-ठीक
उन्हें
प्रेम की कोई राह पता नहीं होती
तुम्हें
याद है वह शाल वृक्ष
उखड़ती
साँसें संभाले अषाढ़ की एक शाम रुके थे हम जहाँ
मैंने
उसकी पुरानी खुरदुरी छाल पर पढ़ा है तुम्हारा नाम
अंतराल
का सारा विष सोख लिया है उसने
और
वह अब तक हरा है
स्मृति
एक पुल है हमारे बीच
हमारे
कदमों की आवृति के ठीक बराबर थी जिसकी आवृति
मैं
यहीं बैठ गया हूँ थककर तुम चल सको तो आओ चल के इस पार
क्या
अब भी उतनी ही है तुम्हारे पैरों की आवृति?
*** 
  

0 thoughts on “सब वैसा ही कैसे होगा – अशोक कुमार पांडे की नई कविता”

  1. बहुत प्यारी कविता है. प्रेम का स्मृति से सघन रिश्ता है. स्मृतियों का प्रेम अक्सर टीस, वेदना और अधूरेपन के स्थाईभाव में बदल जाता है, वक्त – बेवक्त याद आता है. यह कविता प्रेम पर भावुक अतिकथन न होकर सघन मितकथन है. बधाई.

  2. टूटी हुई चीजों के रंग ठहर जाते हैं अक्सर…/क्या अब भी उतनी ही है तुम्हारे पैरों की आवृति….बहुत ही बड़ी बात…..बधाई अशोक जी…धन्यवाद शिरीष जी…

  3. भटकना नियति थी हमारी और चयन भी
    जिन्हें जीवन की राहें पता हों ठीक – ठीक
    उन्हें प्रेम की कोई राह पता नहीं होती
    बहुत ही अच्छी प्रेम कविता …………..

  4. कुछ लोग ऐसे होते हैं कविता के लिए जिनका अवदान सिर्फ कविता लिखने तक ही सीमित नहीं रहता| अशोक कुमार पाण्डेय उनमे से ही हैं| लेकिन यहाँ बात सिर्फ कविता की| अशोक इस कारगुजारियों वाले समय को शायद बहुत बारीकी से पकडते हैं तभी उनकी कविताओं में एक तफ़सील दिखाई देती है| कारण भी स्पष्ट है| पहला कारण तो यही है कि अशोक यथार्थ को पूरी समग्रता से पकडने का प्रयास करते हैं| इसीलिये अक्सर उनकी कवितायेँ लंबी हो जाती हैं| इस तफ़सील को हासिल करने के लिए अशोक को कविता की अंदरूनी तोड़ फोड़ तो बर्दाश्त है लेकिन जो वो कहना चाहते हैं उससे समझौता बर्दाश्त नहीं| -अशोक और समकालीन कवियों पर लिखे जा रहे एक आलेख से |

  5. रामजी तिवारी

    इस कविता में आये कई बिम्ब बहुत लाजबाब हैं …इतने दबाव के बीच ही ऐसी क्लासिक रचनाएं संभव हो पाती है …बधाई

  6. अशोक की कवितायेँ ह्रदय तक पहुँचने का रास्ता खुद बना लेती हैं ! एक मृदु किन्तु शक्तिशाली स्फोट से अपनी यात्रा आरम्भ करती हुई खेत के एक-एक पौधे की जड़ों को भिगो देती हैं और उनमें समां जाती है …यकीनन कल धान की बालियों में इनकी मौजूदगी दर्ज की जाएगी …अभिभूत किया कविता ने !

    अशोक को बधाई और अनुनाद का आभार !

  7. प्रेम पर लिखी यह एक उत्कृष्ट कविता है । शिरीष ने सही कहा है वामपंथी जब प्रेम कविता लिखते हैं तो विचार उसमें अंतर्निहित होता है ,थोड़ी आत्मपरकता स्वाद के लिये भी ज़रूरी होती है ।

  8. उफ्फ …अंतर्मन में एक टीस दे गई यह कविता ….क्या सचमुच प्यार हमें इतना बाँध लेता है कि वर्षों बाद हम सोचते हैं – " इतने बरस हो गए चेहरा बदल गया होगा तुम्हारा ''………..इजाज़त हो तो इस कविता की एक प्रिंट रख लूं …अकेले में जब जब किसी की याद आएगी ,तब तब पढ़ लूँगा …..!!

  9. टूटी हुई चीजों के रंग ठहर जाते हैं अक्सर … बेहद सुंदर बिम्बों और स्मृति के अनूठे आस्वादों से रची कविता. यो तो स्मृति की आवृत्ति अवसाद भरी होती है लेकिन प्रेम में वही ऊर्जा की तरह काम करती है. बधाई

  10. कविता पढ़ते हुए प्रेम जीवंत हो पाठकों की धडकनों में घुलता है प्रेम यात्रा का इतिहास वसंत के फूलों से लदा हुआ और वर्तमान में उसकी खुशबु आह! और वाह! दोनों के स्वाद से सरोबर एक बहुत सुंदर कविता…

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top