मेरे प्रिय समाज-राजनीति-साहित्य शिक्षक |
अपनी उधेड़बुनों में एक अज्ञानी कई तरह से उलझता है….मैं भी उलझता हूं….अगर ये उलझनें सच्ची हैं तो इनसे बाहर निकालने वाले लोग भी जीवन में हमेशा मौजूद होते हैं। शुक्ल जी तो भक्तिसाहित्य को हतदर्प हिंदू जाति की अभिव्यक्ति बता कर चले गए और तुलसी की कविता भी धर्म और उससे जुड़े कट्टर कर्मकांडों में विलीन हो गई। नए समय में एक महान विचार ने हिंदी साहित्य और उस पर आधारित समझ को दिशा दी। हरिशंकर परसाई इस विचार के लिए बहुत जूझने-लड़ने वाले लेखक हैं। ‘हैं’ लिख रहा हूं…परसाई जी को पढते हुए ‘थे’ कभी लिख ही नहीं पाऊंगा। आज शिक्षक दिवस है और मैं अपनी तर्कप्रणाली में उन्हें हमेशा से अपना सबसे बड़ा शिक्षक मानता हूं। ये पोस्ट अनदेखे इस अद्भुत शिक्षक को समर्पित है, जो मुझ जैसे हज़ारों के शिक्षक होंगे। परसाई जी ने मानस के चार सौ साल पूरे होने के अवसर मनाए जाने वाले उत्सव पर प्रतिक्रिया देते हुए एक तथ्य और तर्कपूर्ण लेख लिखा था, जिसका विकट विरोध हुआ। मैं यहां उनके इस लेख का एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूं…
हरिशंकर परसाई
तुसली के अनुभवों का क्षेत्र विशाल था। जीवन-चिंतन गहन था। जीवन की हर स्थिति के विषय में सोचा और और निष्कर्ष में नीति-वाक्य बोले –
परहित सरस धरम नहिं भाई
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई
तमाम रामचरित मानस नीति वाक्यों से भरा पड़ा है। ये काव्य नहीं ‘स्टेटमेंट्स’ (वक्तव्य) हैं।इनमें शाश्वत जीवनमूल्यों की अभिव्यक्ति की भी कोशिश है –
सुर नर मुनि सबकी यह रीती
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती
इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा। हर स्थिति पर जड़े गए नीति-वाक्य लोगों की ज़ुबान पर हैं और वे लोकप्रिय हैं। कविता रामचरित मानस में नहीं, गीतावली और कवितावली में है। मानस में कथा और नीति-वाक्य हैं।
यह सही है कि सामन्ती समाज की सड़ी-गली मान्यताओं को तुलसी ने बल दिया। छोटे, कमज़ोर, दलित वर्ग को और कुचलने के लिए एक धार्मिक पृष्ठभूमि और मर्यादा का बल दे दिया। ये दलित लोग थे – स्त्री और नीची जाति के लोग। पुनरावृत्ति होगी, पर –
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी
पूजिय विप्र सील गुणहीना
शूद्र न पूजिए जदपि प्रवीना
यह सीधी ब्राह्मण की घृणा है। शबरी के बेर राम को खिलाने और गुह-निषाद को चरण धुलवाकर राम के गले लगाने का कोई अर्थ नहीं।
नारी के प्रति तुलसी की शंका और दुराग्रह भी बहुत है। पतिव्रत धर्म अच्छी चीज़ है, क्योंकि इससे पारिवारिक जीवन सुखी रहता है- हालांकि चालीस फीसदी परिवारों में रोते, पिटते और घुटते पतिव्रत धर्म निभा लिया जाता है। स्त्री के वर्गीकरण में तुलसी कहते हैं –
उत्तम कर अस बस मन माहीं
सपनेहु आन पुरुष जग नाहीं
पर दूसरी जगह कहते हैं –
भ्राता, पिता, पुत्र, भरतारी
पुरुष मनोहर निरखत नारी
इसमें वह ‘उत्तम’ वाली भी आती होगी। यह क्या विरोधाभास है…
तो मानस चतुश्शती हो। धूम-धाम से हो। मगर सिर्फ़ जय-जयकार न हो। फिर कबीर समारोह हो। कबीर, जिसने अपनी ज़मीन तोड़ी, भाषा तोड़ी और नई ताक़तवर भाषा गढ़ी, सड़ी-गली मान्यता को आग लगाई, जाति और धर्म के भेद को लात मारी, सारे पाखंड का पर्दाफाश किया, जो पलीता लेकर कुसंस्कारों को जलाने के लिए घूमा करता था। वह योद्धा कवि था, महाप्राण था।
***
(परसाई रचनावली-4, पृष्ठ 431-432 से अविकल उद्धृत)
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
मानस की ऐक बहुत ही सुनदर चौपाई है।महात्मा तुलसीदास की इस चौपाई पर बड़ी ही क्रूरता से कटाक्ष होता आया है।प्राय: अर्थ काअनर्थ करते हुए लोग यह भी जानना उचित नहीं समझते की इसे लिखने वाला क्यों लिखा है।
सेतुबन्ध के पूर्व समुद्र ने भगवान राम से विनय करते हुए अपने आप को कमतर बताते हुए कहीथी।
यहाँ पर भ्रम ताड़न शब्द में है। जिसका अर्थ प्राय: प्रताड़ना से लगाते हैं। इसका अर्थ जानने से पहले हमें तुलसीदासजी को जानना होगा।
रामचरितमानस के प्रारंभ में ही देव-गुरु की स्तुती के उपरांत सज्जन-असज्जन की एवं पूर्व तत्कालीन एवं भविष्य के होने वाले कवियो को भी सम्मानित किया था।
वेद-पुराण व शास्त्र सम्मत वाते लिखने का विश्वास दिया था। पुराणों का संक्षिप्त रूप देखें तो यथा।
अष्टादशपुराणेषु व्याषस्य वचनम् द्वयम।
परोपकाराय पूण्याय पापाय परपीडनम्।।
क्या ऐसी सोच रखने वाला महात्मा गवार जिसे मूढ या अज्ञानी के रूप मेजाना जाता है। सूद्र शेवक अथवा (अन्य जिसका व्यापक अर्थ है)पशु जो हमारे हितों से जुड़ा एक मूक प्राणी है।
नारी जो हमारी जननी,भगिनी, जीवनसंगिनी अथवा पुत्री है। संततुलसीदासजी भला इन्हें प्रताड़ित क्यों कराना चाहेंगे।
मानस की रचना से पूर्व गोस्वामीजी सम्पूर्ण भारत का भ्रमण व अनवेषण किए थे। समस्त स्थानीय भाषाओ का समायोजन का प्रयास भी दृष्टिगोचर होता है। उत्तर भारत में ताड़ना शब्द का प्रयोग बहुतायत होता आया है।
जैसे " फला व्यक्ति ने मेरे बिरुद्ध साज़िश तो रची थी। कयोंकि मेंने उसके इरादे को ताडलिया था। कहने का मतलब जानना समझना है। प्रताड़ना नहीं।
ह ढोलक समझने जानकारी के बाद बजाने की वस्तु है।पीटने की कदापि नहीं।
गवार अज्ञानी के इरादे भावनाओं को उ की आवश्यकता है।वह प्रताड़ना का पात्र कदापि नहीं होसकता।
शूद्र या शेवक प्रताड़ना का पात्र कैसे और क्यों कहाजायेगा।
पशू मानव समाज का सहयोगी व उपयोगी मूक प्राणी है। उसे प्रताड़ना क्यों। उसे जानना अति आवश्यक है।
नारी श्रध्दा व सम्मान की पात्र है। देवी के रूपमें पूजनीय है। नारी क्या उसके बिभिन्न रूपों को जानने की आवश्यकता नहीं है? जयश्रीराम।