मनोज कुमार झा के पहले कविता संग्रह पर इस समीक्षा को कविसाथी अरुण देव ने अपनी ब्लागपत्रिका समालोचन के लिए किसी ज़िद की तरह लिखवाया था। मैंने अपने हड़कम्प और हड़बड़ी में बहुत कम समय में इसे लिखा…जाहिर है बहुत कुछ छूट गया। इधर मनोज के संग्रह को दुबारा पढ़ते हुए बहुत मन हुआ कि इसे अनुनाद पर भी लगाऊं…इस तरह शायद एक बार फिर शुक्रिया कह पाऊं मनोज को इतने अच्छे और इतने अपने संग्रह के लिए।
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यद्यपि
हिंसा…यद्यपि अनाचार….यद्यपि शोषण…. यद्यपि संकट.. यद्यपि रक्तपिपासु मुख
विकराल…यद्यपि आतंक… आतंक के रूप नए-नए … घात-आत्मघात ….. ऐसी ही दुविधा
और हताशा में डाल देने वाली पदावलियों के बीच एक युवा कवि के पहले संग्रह का
नामकरण होता है….इन सबको घूरता- पूरता हुआ-सा….तथापि जीवन और ठीक यही मूल और मौलिक मुहावरा भी है मनोज की
कविता का। मुश्किल में पड़े जीवन का छोटा-सा उत्सव जो उतना छोटा है नहीं, जितना
दीखता है। यह तथापि है…पर इसके पीछे संघर्षों और पीड़ा के विकट आख्यान हैं। यह
अधिक सांद्र है….इसका सरफेस टेंशन ज़्यादा है। इसमें जीवन-अनुभवों और राजनीतिक
चेतना का गाढ़ा मेल है। मनोज ने नए ज़माने के नितान्त बौद्धिक लेखों का हिंदी में
अनुवाद किया है, वो गणित और विज्ञान के ज्ञाता है पर जब कविता की भूमि पर उतरता है
तो जैसे वीरेन डंगवाल के इस संकल्प को दुहराते हुए – पोथी पतरा ज्ञान-कपट
से बहुत बड़ा है मानव….
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मुझे बस रहने लायक जगह हो
और सहने लायक बाज़ार
जहां से अखंड पनही लिए लौट सकूं
कितनी
मामूली और छोटी लग सकती है यह इच्छा पर इसका विस्तार गूंजता-सा जाता है। ग्लोबल
गांव…हाइपर्रियल मुक्ताकाश….मल्टीनेशनल्स… ख़रीदोफ़रोख़्त की अनन्त सम्भावनाओं
से भरे बाज़ार और महत्वाकांक्षाओं के घटाटोप में मेरे जनपद के साधारण कवि-मनुष्य
की इच्छा कि हो ‘सहने लायक बाज़ार जहां से अखंड पनही लिए लौट’ सके
वो…मेरे लिए महान वाक्य है यह…. और फिर वो पनही कम-अज-कम आज की कविता में तो लुप्त और बरबाद
हो रहे लोक और हिंदी जनपद की प्रतिनिधि, कितनी कोमलता और विश्वास से आती है मनोज
की कविता में। इस असाधारण विनम्रता से कितने कवि बोल पाते हैं उस बात को, जो उतनी
ही सख़्त है। हम देख पाते हैं कि उस पनही के अखंड बने रहने की इच्छा भी कोई
मामूली इच्छा नहीं है….एक समूची सैद्धान्तिक बहस है।
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इस कथा में मृत्यु कहीं भी आ सकती है
यह इधर की कथा है
इस
संग्रह की पहली कविता शुरूआती पंक्तियां हैं ये …. कविता महज कविता नहीं, समूची
कथा है …इधर की कथा है…. नई सहस्त्राब्दी के आरम्भ की… और इसमें मृत्यु
कहीं भी आ सकती है…. यह एक निश्चित अनिश्चय का मुहावरा है… यही हमारे समय का
सबसे सधा हुआ मुहावरा भी है। लेकिन इस सबके बीच मनोज की ये अचूक जीवनदृष्टि,
जिसमें –
गले में मफलर बांधे क्यारियों के बीच मंद-मंद
चलते वृद्ध
कितने सुंदर लगते हैं
यह
नुक़्ता और निगाह मनोज की अपनी सम्पदा है ….यह उसका स्वजनित-स्वनिर्मित
अधिकार है…इस स्वर में हमारी पीढ़ी में कोई नहीं बोलता…बोल ही नहीं सकता…क्योंकि
उसके पास हिंदी जनपद का जीवन उस मात्रा में अब नहीं रहा….जितना मनोज के पास
है। मनोज ने यह जीवन चुना है और इसकी
क़ीमत चुकाई है पर बदले में उसके पास वह कविता है, जो अपने आप में अद्वितीय बनती
जाएगी…आगे और भी।
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मैं जहां रहता हूं वह महामसान है
चौदह लड़कियां मारी गईं पेट में फोटो खिंचाकर
और तीन मरी गर्भाशय के घाव से
मीडिया
के सत्यमेव जयते से बहुत पहले मनोज की कविता का दृश्य है यह। यह यथार्थ की प्रस्तुति
का तीसरा नहीं, पहला स्तर है ….ठेठ… जीवन के गरल से कंठ-कंठ तक भरा… पर
इसने कितनों को उद्वेलित किया… हिंदी में अगर इस तरह के प्रसंगों के लिए भी पाठक
समाज नहीं है तो फिर हमें उसकी ज़रूरत भी नहीं है… वह रहे अपने उसी तीसरे यथार्थ
में… वही सच्चे-झूटे अनपढ़ अख़बारी पन्ने … झलमल करते कम्प्यूटर… लगते
रहें टैक्नोक्रेट्स की प्रतिष्ठा में चार चांद …. इस भूमि पर तो अंधेरे को
गहराते ही जाना है…
मनोज
जहां रहता है, वहां पाता है –
हम में से बहुतों का जीवन मृत सहोदरों की छायाप्रति है
हो सकता है मैं भी उन्हीं में से होऊं
कई को तो लोग
किसी मृतक का नाम लेकर बुलाते हैं
मृतक इतने हैं और इतने क़रीब कि लड़कियां साग
खोंटने जाती हैं
तो मृत बहनें भी साग डालती जाती हैं उनके खोंइचे
में
कहते हैं फगुनिया का मरा भाई भी काटता है उसके
साथ धान
वरना कैसे काट लेती है इतनी तेज़ी से
यह
प्रेतग्रस्त जीवनभूमि है…यहां अहसास इतने विकट हैं कि हम दूर बैठे उनका अन्दाज़ा
तक नहीं लगा सकते। इस जीवन में प्रतिशोध के भी अपने अलग दृश्य हैं –
इधर सुना है कि वो स्त्री जो मर गई थी सौरी में
अब रात को फोटो खिंचवाकर बच्ची मारने
वालों को
डराती है , इसको लेकर इलाक़े में बड़ी दहशत है
… इस
इलाक़े का सबसे बड़ा गुंडा मरे हुओं से डरता है
फिर इसी प्रेतग्रस्त जीवन में यह दुर्लभ जीवट
और प्यार है … यानी कवि का वही प्रिय तथापि जीवन –
इधर कोई खैनी मलता है तो उसमें बिछुड़े हुओं का भी हिस्सा रखता है
एक स्त्री देर रात फेंक आती है भुना चना घर के
पिछवाड़े
पति गए पंजाब फिर लौट कर नहीं आए
भुना चना फांकते बहुत अच्छा गाते थे चैतावर
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जिसने भगाया मटर से सांड़ वही तो तोड़ ले गया टमाटर कच्चा
यह
एक पंक्ति नहीं समकालीन जीवन का पूरा खाका है, जिसका सामना हम निजता से लेकर
सामाजिकता और राजनीति तक करते हैं। पता नहीं क्यों मैं इस पंक्ति को बिहार में
लालू के पराभव – नितीश के उभार से लेकर अब ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या और बथानी
टोला तक की स्मृतियों में घूमते देखने लगता हूं। इसी कविता में आगे आता है –
कुत्ते भौंकते क्यों नहीं मुझे देखकर, कैसे सूख गया इनके जीभ का पानी
किसी मरघट में तो नहीं छुछुआ रहा
चारों ओर उठ गई बड़ी-बड़ी अटरियां तो क्या यही
अब प्रेतों का चरोखर
लौट जाता हूं घर, लौट जाऊं मगर किस रस्ते –
ये पगडंडियां प्रेतों की छायाएं तो नहीं…
मनोज की कविता में मृत्यु है और प्रेत भी ….फिर भी यह जीवन की कविता है, क्योंकि इसमें प्रतीक्षा है… प्रतीक्षा करता यह कवि अब भी खड़ा है ‘जहां कोयल के कंठ में कांपता है पत्तों का पानी’। यह प्रतीक्षा पीपल के नीचे है… पीपल जो प्रतिश्रुतियों में प्रेतों का घर है… यह प्रतीक्षा इत्मीनान और सुकून में गई प्रतीक्षा नहीं है ….यह जीवन के उजाड़ के बीच उसे सिरजने वाले साथी की प्रतीक्षा है… ख़ुद मनोज की भाषा में ‘पियरा रहे पत्ते के धीरज से भी हरा हमारा धीरज’ । इस प्रतीक्षा और धीरज का मोल उससे कहीं ज़्यादा है, जितना एकबारगी जान पड़ता है।
***
मैंने इस लिखत के आरम्भ में ही उन नए बौद्धिक विमर्शों का जिक्र किया है, जो हमारे जनपद में रिस कर आ रहे हैं। हम इस रिसाव और इसके उद्देश्य को समझते हुए भी, या तो उनके समर्थन में तर्क गढ़ते हुए उनके साथ जाना चाहते हैं, या उनसे बचकर निकलना चाहते हैं। जबकि वे ख़ुद में अतार्किक हैं और तर्क से परे अपनी उपलब्धियों को रेखांकित भी कर रहे हैं। यह सब उस तरफ़ का जीवन है, इस तरफ़ से जीना क्या है, मनोज की इसी शीर्षकवाली ये कविता बताती है –
यहां तो मात्र प्यास-प्यास पानी, भूख-भूख अन्न
और सांस-सांस भविष्य
वह भी जैसे तैसे धरती पर घिस-घिसकर देह
घर को क्यों बांध रहे इच्छाओं के अंधे प्रेत
हमारी संदूक में तो मात्र सुई की नोक भी जीवन
सुना है आसमान ने खोल दिए हैं दरवाज़े
पूरा ब्रह्मांड अब हमारे लिए है
चाहें तो सुलगा सकते हैं किसी तारे से अपनी
बीड़ी
इतनी दूर पहुंच पाने का सत्तू नहीं इधर
हमें तो बस थोड़ी और हवा चाहिए कि हिल सके यह
क्षण
थोड़ी और छांह कि बांध सकें इस क्षण के छोर
सत्तू
का अर्थ सब जानते होंगे, पर
अभिप्राय…..अर्थ जान लेने की विद्या का सहारा लेकर अब क्या लेखक से उसके लिखे
का अभिप्राय-अधिकार भी छीन लिया जाएगा…. नहीं, इस अधिकार की रक्षा करनी
होगी…आलोक धन्वा के पद में कहें तो हम जानते हैं कुलीनता की हिंसा… हिंदी लेखन की
कुलीनता भी कोई अदृश्य चीज़ अब नहीं है। प्रगतिशील कविता ने लम्बे समय तक
कुलीनता को हाशिये पर रख छोड़ा था पर अब नए ज़माने में उसका फ्रेंच अकादमी से सीधे
निर्यात किया जा रहा है। हमारे हथियार(रूपवादियों को कविता के सन्दर्भ में क्रूर
लग सकता है यह शब्द) अब भी वहीं मौजूद हैं, जहां मुक्तिबोध ‘कुलीनता की
ऐसी-तैसी’ कर रहे थे…उसी कुलीनता की आंखों में आंखें डाल चिढ़ाते हुए कत्थई
मुस्कान के साथ नागार्जुन पूछ रहे थे कि ‘अजी घिन तो नहीं आती’…. हैरत
नहीं है कि मनोज के संग्रह से गुज़रते हुए मुक्तिबोध याद आते हैं और नागार्जुन भी।
यहां मुक्तिबोध सरीखे भयावह बिम्ब-प्रतीकों के बने भवन हैं और बाबा की-सी कटुतिक्त
ठेठ अभिव्यक्ति भी। तभी तो इस गाढ़े मेल में पगी मनोज कविता ‘अर्थ’ के सन्दर्भ में इतनी साफ़ मांग रख पाती है –
इस
तरह न खोलें हमारा अर्थ
कि
जैसे मौसम खोलता है बिवाई
जिद
है तो खोलें ऐसे
कि
जैसे भोर खोलता है कंवल की पंखुड़ियां
***
मैंने
मुक्तिबोध का नाम अभी लिया है और इसी क्रम में उल्लेख करूंगा इस संग्रह की कुछेक
लम्बी कविताओं में से एक ‘चांद पर हमारा हिस्सा’ के बारे में।
चांद की हिंदी कविता में अनेक स्मृतियां हैं…मुक्तिबोध से लेकर आलोक धन्वा
तक। इस कविता में चांद कुछ और नहीं बनता, चांद ही रहता है लेकिन उसके ज़रिये एक
आख्यान बनता है…. सार्वजनिक से निजी तक
आता हुआ पर वह निजता भी ऐसी कि सिर्फ़ कवि की नहीं, सबकी हो सकती है।
पराए
ही रह गए पैर जो चले चांद पर
साथ
गई तो थी हमारे पसीने की भी भाप
अगम
गम हुआ, हमें क्या मिला
छला
ही इस बड़ी छलांग ने
फिर
कविता में वही लोकजीवन है …निष्कलुष …. जितना कम विज्ञ, उतना ही बड़ा
सिरजनहार। मनोज के हर काव्यानुभव के साथ यह विश्वास है कि छोटी-छोटी आम चीज़ों
और प्रसंगों के संयाजन से बनता है जीवन…
महान और विशाल। इसी विशाल संयोजन में हामिद मियां की याद, दुनिया में घूमती हुई ताक़त की चाक और उस पर
बिगड़ती हुनर की लय, ऐसी ज़मीन जो मात्र बेचने के लिए ख़रीदी जाती है, पूरन-पात पर
जलकण का टपटप बिम्ब, काग़ज़ की चौड़ी हथेली पर निबों की टिपटिप, अंग-विकल बीमार
भाई की समकालीन याद – कोई खींच रहा जिसके शरीर से लहू द्रुतधावकों की शिराओं के लिए।
द्रुतधावक हमारी समकालीनता में हर कहीं हैं…. अपनी शिराओं के लिए दूसरों का लहू
खींचते हुए। इसी कविता में जीनशास्त्रियों, सभ्यता-संघर्ष के गुणकीलकों और स्वप्न
समीक्षकों से पूछे गए जीवन के बुनियादी सवाल…यह सब कुछ सम्भव हुआ है एक विकल
थरथराते हुए विनम्र संयोजन में। यही मनोज की कला है… उसका खून-पसीना है, जो उसके हिस्से की चांदरातों की थोड़ी-सी रोशनी में
उसे कविता की दुनिया का श्रमिक बनाता है….. शर्म-सी आती है सोचकर कि ऐसे ही श्रम
के अतिरिक्त मूल्य को भुनाते हैं हम लोग, जो दरअसल इस तरफ़ की दुनिया में उतना
रहते ही नहीं।
***
इतनी कम ताक़त से बहस नहीं हो सकती
अर्ज़ी
पर दस्तख़त नहीं हो सकते
इतनी
कम ताक़त से तो प्रार्थना भी नहीं हो सकती
इन
भग्न पात्रों से तो प्रभुओं के पांव नहीं धुल सकते
फिर
भी घास थामती है रात का सिर और दिन के लिए लोढ़ती है ओस
बेशक यह कम ताक़त है …..फिर भी यह वही ताक़त है, जहां घास थामती है रात का सिर …यही वह जीवन भी जिसे तथापि कह-कह लगातार एक समूची दुनिया रचता है मनोज….चुनौती देता-सा कि यद्यपि में सिर खपाने वाले लोगो आओ, बस सकते हो तो इस तथापि में बसो…. रचो रच सकते हो इसे अगर…
***
और अंत में…
मनोज कुमार झा |
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मनोज की कविता को उत्सुकता और उम्मीद से देखता हूँ। फिलहाल, संग्रह के लिए बधाई।
लेख फिर से लिखा..यह अच्छा किया. शायद इसमें थोड़ी भूमिका मेरी उस रात की आपकी खिंचाई का भी है, इसे आराम से पढता हूँ.