नरेश चन्द्रकर मेरे प्रिय अग्रज कवि हैं। उनकी
आवाज़ इतनी शान्त, गहरी और मद्धम है कि कम ही सुनाई
देती है। हिंदी कविता के नाम पर अकसर कोहराम मचा रहता है….तब यह कवि अपने
सामाजिक एकान्त और वैचारिक प्रतिबद्धता में अपनी कविताएं सम्भव कर रहा होता है। इस कोलाहल में नरेश चन्द्रकर को सुनना एक अलग -आत्मीय और बेचैनी पैदा करने वाला अनुभव है। यहां जो तीन कविताएं हैं …वे नेट पर अनेक जगह उपलब्ध हैं… पर मैं उन्हें
अनुनाद के पेज के रूप में देखना चाहता था इसलिए उधार प्रेम की कैंची है से बिलकुल
न डरता हुआ ये उधार इस अन्तर्जाल से साधिकार ले रहा हूं। ये ऐसी कविताएं हैं कि इन पर कुछ अधिक बोलने का प्रयास करना भी इनकी गरिमा को भंग करना होगा….
ज्ञान जी और नरेश चन्द्रकर की ये तस्वीर शरद कोकास जी से उधार |
मेज़बानों की सभा
आदिवासीजन पर सभा हुई
इन्तज़ाम उन्हीं का था
उन्हीं के इलाक़े में
शामिल वे भी थे उस भद्रजन सभा में
लिख-लिखकर लाए परचे पढ़े जाते रहे
ख़ूब थूक उड़ा
सहसा देखा मैंने
मेज़बान की आँखों में भी चल रही है सभा
जो मेहमानों की सभा से बिल्कुल
भिन्न और मलिन है!
इन्तज़ाम उन्हीं का था
उन्हीं के इलाक़े में
शामिल वे भी थे उस भद्रजन सभा में
लिख-लिखकर लाए परचे पढ़े जाते रहे
ख़ूब थूक उड़ा
सहसा देखा मैंने
मेज़बान की आँखों में भी चल रही है सभा
जो मेहमानों की सभा से बिल्कुल
भिन्न और मलिन है!
***
स्त्रियों की लिखीं पंक्तियां
एक स्त्री की छींक सुनाई दी थी
कल मुझे अपने भीतर
वह जुकाम से पीड़ित थी
नहाकर आई थी
आलू बघारे थे
कुछ ज्ञात नहीं
पर काम से निपटकर
कुछ पंक्तियाँ लिखकर वह सोई
स्त्रियों के कंठ में रुंधी असंख्य पंक्तियाँ हैं अभी भी
जो या तो नष्ट हो रही हैं
या लिखी जा रही हैं सिर्फ़ कागज़ों पर
कबाड़ हो जाने के लिए
कभी पढ़ी जाएंगी ये मलिन पंक्तियाँ
तो सुसाइड नोट लगेंगीं
कल मुझे अपने भीतर
वह जुकाम से पीड़ित थी
नहाकर आई थी
आलू बघारे थे
कुछ ज्ञात नहीं
पर काम से निपटकर
कुछ पंक्तियाँ लिखकर वह सोई
स्त्रियों के कंठ में रुंधी असंख्य पंक्तियाँ हैं अभी भी
जो या तो नष्ट हो रही हैं
या लिखी जा रही हैं सिर्फ़ कागज़ों पर
कबाड़ हो जाने के लिए
कभी पढ़ी जाएंगी ये मलिन पंक्तियाँ
तो सुसाइड नोट लगेंगीं
***
वस्तुओं में तकलीफ़ें
नज़र उधर क्यों गई ?
वह एक बुहारी थी
सामान्य–सी बुहारी
घर-घर में होने वाली
सड़क बुहारने वालियों के हाथ में भी होने वाली
केवल
आकार आदमक़द था
खड़े–खड़े ही जिससे
बुहारी जा सकती थी फ़र्श
वह मूक वस्तु थी
न रूप
न रंग
न आकर्षण
न चमकदार
न वह बहुमूल्य वस्तु कोई
न उसके आने से
चमक उठे घर भर की आँखें
न वह कोई एंटीक पीस
न वह नानी के हाथ की पुश्तैनी वस्तु हाथरस के सरौते जैसी
एक नज़र में फिर भी
क्यों चुभ गई वह
क्यों खुब गई उसकी आदमक़द ऊँचाई
वह हृदय के स्थाई भाव को जगाने वाली
साबित क्यों हुई ?
उसी ने पत्नी-प्रेम की कणी आँखों में फँसा दी
उसी ने बुहारी लगाती पत्नी की
दर्द से झुकी पीठ दिखा दी
उसी ने कमर पर हाथ धरी स्त्रियों की
चित्रावलियाँ
पुतलियों में घुमा दी
वह वस्तु नहीं थी जादुई
न मोहक ज़रा-सी भी
वह नारियली पत्तों के रेशों से बनी
सामान्य-सी बुहारी थी केवल
पर, उसके आदमक़द ने आकर्षित किया
बिन विज्ञापनी प्रहार के
ख़रीदने की आतुरता दी
कहा अनकहा कान में :
लंबी बुहारी है
झुके बिना संभव है सफ़ाई
कम हो सकता है पीठ दर्द
गुम हो सकता है
स्लिप-डिस्क
वह बुहारी थी जिसने
भावों की उद्दीपिका का काम किया
जिसने सँभाले रखी
बीती रातें
बरसातें
बीते दिन
इस्तेमाल करने वालों की
चित्रावलियाँ स्मृतियाँ ही नहीं
उनकी तकलीफ़ें भी
जबकि वह बुहारी थी केवल !!
वह एक बुहारी थी
सामान्य–सी बुहारी
घर-घर में होने वाली
सड़क बुहारने वालियों के हाथ में भी होने वाली
केवल
आकार आदमक़द था
खड़े–खड़े ही जिससे
बुहारी जा सकती थी फ़र्श
वह मूक वस्तु थी
न रूप
न रंग
न आकर्षण
न चमकदार
न वह बहुमूल्य वस्तु कोई
न उसके आने से
चमक उठे घर भर की आँखें
न वह कोई एंटीक पीस
न वह नानी के हाथ की पुश्तैनी वस्तु हाथरस के सरौते जैसी
एक नज़र में फिर भी
क्यों चुभ गई वह
क्यों खुब गई उसकी आदमक़द ऊँचाई
वह हृदय के स्थाई भाव को जगाने वाली
साबित क्यों हुई ?
उसी ने पत्नी-प्रेम की कणी आँखों में फँसा दी
उसी ने बुहारी लगाती पत्नी की
दर्द से झुकी पीठ दिखा दी
उसी ने कमर पर हाथ धरी स्त्रियों की
चित्रावलियाँ
पुतलियों में घुमा दी
वह वस्तु नहीं थी जादुई
न मोहक ज़रा-सी भी
वह नारियली पत्तों के रेशों से बनी
सामान्य-सी बुहारी थी केवल
पर, उसके आदमक़द ने आकर्षित किया
बिन विज्ञापनी प्रहार के
ख़रीदने की आतुरता दी
कहा अनकहा कान में :
लंबी बुहारी है
झुके बिना संभव है सफ़ाई
कम हो सकता है पीठ दर्द
गुम हो सकता है
स्लिप-डिस्क
वह बुहारी थी जिसने
भावों की उद्दीपिका का काम किया
जिसने सँभाले रखी
बीती रातें
बरसातें
बीते दिन
इस्तेमाल करने वालों की
चित्रावलियाँ स्मृतियाँ ही नहीं
उनकी तकलीफ़ें भी
जबकि वह बुहारी थी केवल !!
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नरेश भाई को लम्बे समय से पढता रहा हूँ. समकालीन कविता में उनकी शांत किन्तु हस्तक्षेपकारी उपस्थिति बेहद महत्वपूर्ण है. अंतिम कविता में जिस तरह उन्होंने एक सामान्य सी चीज को एक बड़े लिरिकल रेटारिक में तब्दील कर दिया है, वह उनके कवि की ताक़त और क्षमता को ही नहीं उनकी गहरी सम्बद्धता को भी बताता है. अग्रज कवि को सलाम के साथ आपका आभार
adbhut maanveeyakaran..padkar achcha laga..