अनुनाद

अनुनाद

तुषारधवल की नई लम्‍बी कविता – ठाकुर हरिनारायण सिंह



तुषार धवल

तुषार हमारे समय का बहुत महत्‍वपूर्ण युवा कवि है। वो बेहद आत्‍मीय हमउम्र साथी है इसलिए चाहकर भी मैं उसके लिए सम्‍बोधन के आदरसूचक बहुवचन का प्रयोग नहीं कर पा रहा हूं। राजकमल से आया उसका संग्रह ‘पहर ये बेपहर का’ बहुत चर्चित रहा है। हमारा यह कविमित्र कविता के साथ ही चित्रकला पर भी समान अधिकार रखता है। फोटोग्राफी और अभिनय में उसकी समान रुचि है।  पिछले दिनों मुम्‍बई में उसके चित्रों की एक प्रदर्शनी बेहद सफल रही है। 


तुषार की कविताएं एक साथ नहीं आतीं। वो कम लिखता है मगर उसका लिखा हमेशा ही एक महत्‍वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ है, कविता के सफ़र में। अनुनाद के अनुरोध पर इस कविता को भेजते हुए तुषार ने लिखा है कि एक
अलग विमर्श की कविता
 भेज रहा
हूँ जहाँ दलितों के प्रश्न के मद्देनज़र नव दलितों की बात उठाई गई है। यह काल्पनिक
 
नहीं है। गाँव-गाँव में मेरी आँखों देखी और भोगी सच्चाई है। पता नहीं हमारा
साहित्यिक बुद्धिजीवी समुदाय इसे कैसे लेगा। इसमें मेरे समाज शास्त्रीय अध्ययन
वाला रुझान भी है और गद्य काव्य को अपने अलग भाषा शिल्प में लिखने की कोशिश की गई
है जहाँ हर अगली पंक्ति पिछली पंक्ति के बीच से निकलती है
,यानि overlap करती है। हम सभी युवा कवि वाकई अपने समाज की उधेड़बुन में फंसे हुए हैं। यहां उलझनें अपार हैं। यह समाज भी कोई स्थिर समाज नहीं है- इसमें गति और परिवर्तन के साथ कई दिशाभंग और मोहभंग भी हैं। 



तुषार की यह कविता पारम्‍परिक सामन्‍ती पतन और नए बदले हुए सामन्‍ती उत्‍थान का एक ज़रूरी आख्‍यान है। हमारे समाज के ये पतन और उत्‍थान इस तरह कविता में पहली बार दर्ज़ हुए हैं। बीते शोषकों के बरअक्‍स अधिक चालाक नए शोषकों की शिनाख्‍़त, एक नई शिनाख्‍़त है – एक नए पैराडाइम को समझने की अनिवार्य कोशिश, जिस पर बहस हो सकती है लेकिन जिससे कन्‍नी काटकर निकलना मुमकिन नहीं। सामाजिक यथार्थ बनाम साहित्यिक यथार्थ के डिस्‍कोर्स में विश्‍वास करने वालों के लिए ये कविता एक विकट चुनौती साबित होगी। अनुनाद इसे प्रस्‍तुत करते हुए एक लम्‍बी बहस की उम्‍मीद अपने पाठकों से कर रहा है। 


इस आख्‍यान के लिए तुम्‍हें शुक्रिया कहना पर्याप्‍त नहीं होगा तुषार….पर इसे स्‍वीकार करो।  
***




ठाकुर
हरिनारायण सिंह

(डिसक्लेमर
:—- इस कथा के सभी पात्र काल्पनिक हैं और ये भोगे यथार्थ की उपज हैं. यह कथन उस समय
का है जो हर भाषा में ऐसा ही कुछ कह रहा है. ) 

***

1 

खण्डहर
बताती है कि इमारत बुलंद रही होगी.

ठाकुर
हरिनारायण सिंह
खिलता
हुआ गोरा रंग छह फुट की काया रक्त दर्पित आँखें घनी मूँछ चौड़ी छाती
धोती
कुर्ता रेशम का इत्र से भीनी नसें लपकती हुई उत्तेजना में
स्वर्णभस्म
ज़र्दा केसर और गुलाबजल में गमगमाता पान
सोते
जागते महफिल में बसी तैयारी में
ठाकुर
हरिनारायण सिंह
राजा
बलि के पटिदार इंद्र के बराबरदार कामदेव के पैरोकार कहते हैं कई हाथी बँधा करते
थे  इनके दरवाज़े पर दिन रात रक्स चलता था
इनके रस खाने में अँग्रेजी मोटर मदिरा मेम रहे इनकी ख्वाहिशों में 
ठाकुर
हरिनारायण सिंह
मोटर
मदिरा तो भोग गये पर मेम से चूक गये.
अब
भी कोई पूछ ले तो बुदबुदाने लगते हैं उसी कसक की गुलाबी थूथन को 

ठाकुर
हरिनारायण सिंह
सैंकड़ों
बीघा खेत अनगिनत रखैलें जिनकी चोली की हुमक पर जमीनें लुटा देते थे बीते रास्तों
पर उनके रंगीन बोतलें अश्वगंधा शतावरी और दान की अनगिन कहानियाँ जिबह की दास्तानें
उन रास्तों पर वैसी ही मिलेंगी जैसी कि वे छोड़ आये थे लठैतों के झुण्ड में टूटी
पायलों की घुटी रुनझुन में राग दरबारी की बंदिशें आनंदमठ और भूदान 
अब
रंग झरी दीवारों पर दीमक लगी धुँधली तस्वीरें हैं

कहते
हैं 47 के दंगों में वे तलवार ले उठे थे कि मजाल है जो सरन में आयी मुसलमान प्रजा
को कोई छू भी ले महासभा और संघ वालों से भिड़ गये थे मूँछों पर ताव दे कर ताल ठोक
कर कितने पहलवान तो ऐसे ही पछाड़ देते थे बिस्तर में इकहरा द्वंद खेलते हुए जमीन
हार देते थे 
खुश
हो कर रण्डियों में आधी ज़मीन और पूरी उमर बँट गयी कुछ प्रजा में और बाकी वे
पी   गये. कुछ बीघा ज़मीन अभी भी है लेकिन
परती पड़ी हुई अब खेतों पर कोई नहीं जाता कोई नहीं मिलता पत्नी चल बसी गँजेड़ी बेटा
औघड़ हो गया बाप से लड़ कर बेटियाँ ससुराल में जल गयीं जिन्हें सती कहते हैं वहाँ के
ठाकुर चोर सिपाही सरकारी कारकुन सभी सहमत हैं उनसे उनकी नाजायज़ औलादें भी.
अब
अकेले हैं और कोई नहीं पूछता. 

ठाकुर
हरिनारयण सिंह 
बुझता
हुआ रंग ढली हुई काया झुकती कमर लुंगी गंजी आँखें पिलियाई भवें ढीली 
गाँव
की चौहद्दी पर अब भी शतरंज की बिसात पर जमे बैठे हैं
उनकी
राजधानी छिन चुकी है अनजान दिशाओं से हुए आक्रमण में
जर
जमीन जोरू जेवर जा चुके हैं
अकेले
अंधेरे के मातम में डूबी हवेली बूढ़ी मिटती आँखों से
लौट
लौट देखती है पलट कर
जैसे
साथ चलता कोई छूट गया हो पीछे
मृत्यु
के उस पार का वर्तमान है यह
और
शतरंज की बिसात बिछी हुई है
उन्होंने
चाय के लिये कहा था फिर पान के लिये भी पर कोई नहीं आया
आहत
वह चुपचाप प्यादा बढ़ा देते हैं 
कि
तभी बसेसर नाथ मिसिर वहाँ बैठे चंद लोगों से कह उठते हैं
घोड़ा
सरकाते हुए
,
देख रहे हैं ना कउन जमाना आ गया. बाबू साहब को अब बोलना पड़ रहा है ! अ बोलियो दिये
तभियो देखिये कौनो साला झाँकने नहीं आया. यही थे ऊ ठाकुर साहब जिनका गोड़ धर के
चाटत रहता था सब. कउन जमाना आ गया…
अब
त ऊ चमैनियाँ का बेटवा भी जबाब दे देता है
एक
टैम था कि खोंख दें त पाद निकल जाता था सबका
बोढ़ना
बिछौना ले के सरपटिया देते थे बहिनचोदन के

सुराज का आया कि सब चौपट हो गया एक एक कर के
का
जानें ई गाँधी बाबा किये कि अम्बेडकर बाबा कि नेहरू जी
तुलसी
बाबा ठिक्के कहते थे “ अइसन कलजुग आयेगा …”
ठाकुर
हरिनारयण सिंह
एक
ठगी गई हँसी हँसते हैं
“परजा
का केतना हित कर दिये ई नेतवा सब
?
दु
चार कौर बासी भात के डाल दिये और बोले खुस रहो
अरे
बाँटना है त अइसे बाँटो जइसे हम बाँट दिये ससुर सब कुछ
परजा
के देखभाल अइसे होता है
?
अरे उसके लिये त …” 
बसेसर
नाथ मिसिर टोके
, “ना
ना अबकि इलेक्सन में भोट ना देंगे ई काँग्रेसियन के …”
बाबूसाहब
फिर बोले
, “अब
भोट भात दे कर का होगा बउवा जे होना था हो गया
अब
बईठ के मजा लो ससुर इनके खेला का ”
हाँ
बाबूसाहब ! जब से पछिया हवा उड़ी है गाँव शहर में यही धूल उड़ने लगी है.
“अब
छोड़ रे ई सब ! एक चिलम लगाओ और मगन रहो !”

2.

उनकी
आँखों में पतंगें उड़ रही हैं

अंगार
धर दो मेरी जीभ पर कि रस मिले
चिलम
सुलगा दे कोई आज रात
चिलम
सी सुलगा दे कोई मेरी रात  
हाय
वो शराब और वो उसकी घूँट !
घूँट
भर तो दे कोई आज रात
घूँटभर
की कर दे कोई मेरी रात
तूफान
सा उठता है पेट से कहीं नीचे   
बिजली
उसी छुअन की तड़कती है     
सोने
तो दे कोई आज रात
जीने
तो दे कोई आज रात
कत्ल
कर दे कोई यह रात
दफ्न
कर दे कोई मेरी रात.

3.

दिन
की थकी पीली आँखें 
आँखों
में मवाद है खरोंच के निशान हैं
सिराहनों
में कंकाल हैं
पैतानों
में दफ्न चीखें 
हर
किसी में मेरी अँगुलियों के निशान हैं
क्या
क्या छुपाऊँ अब कहाँ जाऊँ
लहू
के काले ताल में एक मछली तड़पती है

वे
टूटी हुईं पायलें वे जिबह की दास्तानें  
वे
कटे सिर टूटे बदन भग्न कुमारिकायें
सब
आकर घेर लेते हैं मुझे कैसे कहूँ
वही
था न्याय मेरा उतना ही वैसा ही 
और
वह बाजे गाजे का शोर
वह
थमता क्यों नहीं है
मस्त
हाथियों के झुण्ड सा क्यों चला आता है
मेरे
कान में चीखता हुआ दिन रात रह रह कर
ले
जाओ इसे मुझसे कहीं दूर
घोंट
दो इसे भी दफन कर दो

4.
 

ठाकुर
हरिनारायण सिंह
एक बीते शोषक का
ज़र्द चेहरा अपनी स्मृतियों में जीता हुआ सूखा फूल अपनी ही मज़ार पर बेहुस्न बेलिबास
अकेला ढल रहा है जंग लगे डब्बे सा दिन और नगाड़ा बज रहा है गाँव की चौहद्दी पर
नगाड़े सा दिन बज रहा है दिन सा नगाड़ा बज रहा है कोई बहुरुपिया आ गया है  और गाँव खाली हो रहा है अदृश आक्रमण यह गाँव के
बीचों बीच और धूल उड़ने लगी है पर किसी को नहीं खबर मनोरंजन में रमे हैं यहाँ कुछ
,
कुछ दूर शहर के पिछ्वाड़े में निचवाड़े में झुग्गियों में परित्यक्त. 
चल रहा है मनोरंजन
बहुरुपिया चमरौंधे जूतों में साफों में दूर देश से आया है हमसे हमारी बोली में
बोलता हुआ हमारी भाषा में अपने बीज रखता हुआ हम मुग्ध हैं और हमसे हमारी चीज़ें छिन
रही हैं एक एक कर रंग गया माटी का फिर पानी के रिश्ते फिर रिश्तों से पानी फिर
हमारे गीत छिने और अर्थ शब्द में उनके भरे उड़ानों की दिशा बदली और अब खेतों की
बारी है फिर मिथक छिनेंगे और स्मृतियाँ.
पहले गाँव खोखला
करो फिर उसे खाली फिर उसे अपनी चीज़ों से भर दो
गाँव पर हमला हुआ
है और सब बेखबर हैं

5.

ठाकुर
हरिनारायण सिंह
एक
चेहरा तब दीप्त अब ज़र्द पर एक चेहरा अदद जिसे कोस लो कि चूम लो या जीत लो
इन
नये ठाकुरों का चेहरा नज़र नहीं आता
ये
नहीं जानते दया दान यजमान नहीं हैं संरक्षक प्रजा के माई बाप इन नये ठाकुरों की
बोली बड़ी सौम्य है इनकी चाल बड़ी घातक. इनके पास गज़ब की ताक़त है मशीनें हैं हवस है
मुनाफों में लिप्त आँकड़े हैं स्वार्थ के जिनसे वे दिल्ली बनाते हैं हर क्षण रचते
हैं शोषण के नये मानवतावादी सिद्धांत बीते ठाकुरों की बोली में.
नये
चेहरों पर पानी उसी पोखर का वही कीचड़ वही माटी हवस की वही कातिल कथा  
वे
गुड़ में भर कर कील खिलाते हैं पानी के रंग ऑक्सीजन की शकल में बोतलबंद ढब इन नए
ठाकुरों का कोई नाम कोई वंशावली नहीं है कोई संस्कार मर्यादा नहीं उनमें
—-
वेग
है चपलता है और वे घातक हमला करते हैं वे सिकंदर को हरा कर आए हैं एचिलिस और
थीसियस को फतह कर चुके हैं बाप हैं कोलंबस के और अब यहाँ पहुँच गए हैं और गाँव की
चौहद्दीपर धूल उड़ने लगी है बदलने लगे हैं बच्चों के खेल और खेलने के ढंग

6.

कुछ
नहीं बदला है हाशिये पर जो थे वहीं हैं अब भी बेआवाज़ और नई जाति के ठाकुर आ गये
हैं
रीढ़ें
पेड़ों से लटका दी गई है
सूखने
पर उसके झालर झूमर झण्डे और झाड़फानूस बनेंगे नई सदी के म्यूज़ियम में खाल भर कर रखी
जायेगी खेतों पर पलने वाले अंत्यज जीवों की वहाँ डार्विन की सिद्धांत
कथा
के नमूने एक गाईड दिखा रहा होगा. 
अगर
मँजूर है तो ऐसा ही होगा शतरंज और चिलम के बीच एक लम्बा अंतराल है जिसमें एक पूरा
इतिहास और पूरी संस्कृति दफन हो सकती है.
यह
गाँव एक टूटा हुआ आईना है जिसमें उसके अक्स नज़र आते हैं बेतरतीब बिखरे हुए जटिल और
अस्पष्ट इसके चेहरे पर बिखरे हैं सूखे केश और नाक नज़र नहीं आती आँखों में भाव अपढ़
हैं.

7

ठाकुर
हरिनारायण सिंह
उसी
गाँव में अब पान की गुमटी चलाते है    
अठत्तर
की उमर में.
यह अनुनाद की 579वीं पोस्‍ट है

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  1. रागिनी सिंह राठौर

    हालांकि मैं साहित्‍य से एम.ए. कर रही हूं पर बहुत दिन बाद साहित्‍य की दुनिया में लौटना हुआ। आकर अपने पुराने अड्डे देखे जिनमें अनुनाद मेरा प्रिय था। पहले ब्‍लाग खुला नहीं फिर पता लगा कि डाट काम से नहीं अब डाट इन से खुलता है। देखकर खुशी हुई कि शिरीष सर आप पहले से भी अधिक सक्रिय हैं। ब्‍लाग की रीडिंग मीटर बता रहा है कि एक लाख से अधिक लोग यहां आ चुके हैं

    ब्‍लाग खुलते ही अपने एक प्रिय कवि तुषारधवल जी की लम्‍बी कविता पढ़ने को मिली,इससे बेहतर क्‍या हो सकता था। जिस सामन्‍ती उत्‍थान पतन के बारे में शिरीष सर आपने लिखा है,उसे हमारे राजस्‍थान में रोज देखना होता है। नए सामन्‍तों की फौज है यहां और पुराने सामन्‍त अपने महलों और हवेलियों को फाइव स्‍टार होटेल बनाकर सुखी जीवन बिता रहे हैं- ठाकुर हरिनारायण सिंह की तरह पान की दुकान नहीं खोलनी पड़ी उन्‍हें। तुषार जी ने कितना बड़ा सच लिखा कि जो हाशिये पर थे वो वहीं के वहीं हैं। इस कविता के लिए उन्‍हें बहुत बधाई। अब अनुनाद पर आना-जाना लगा रहेगा। मैं बहुत सारी शुभकामनाएं देती हूं आपको भी और तुषार जी को भी। उनकी किताब मेरे पास है, अगर कुछ समीक्षा लिखने की कोशिश करूं तो क्‍या आप अनुनाद पर स्‍थान देगे?

  2. रागिनी आपके बारे में … कुछ लेखकों से आपके ईमेल संवादों के बारे …. में दो-तीन प‍हले ही एक मित्र से बात हो रही थी। मैं अभी संयोग से आनलाइन ही था और आपका कमेंट तुरत एप्रूव कर पाया। अच्‍छा लगा आपका लौटना। साहित्‍य से एम ए करते हुए साहित्‍य से दूरी होने की बात आपकी बहुत मानीख़ेज़ है। ऐसा होता है….विद्वानों ने पाठ्यक्रम ही ऐसे बनाए हैं। तुषार की यह कविता महत्‍वपूर्ण है, देखिए न आप अपने परिवेश में भी इसे देख पा रही हैं। मैंने भी इसे पाते ही अपने होशंगाबादी-हरदावादी-मध्‍यप्रदेशीय परिवेश में इसे देखा। आपको मेरी भी शुभकामनाएं आपकी पढ़ाई के लिए। आप तुषार की किताब पर लिखना चाहती हैं, अवश्‍य लिखिए…अनुनाद आपके लिखे का स्‍वागत करेगा…

    अंत में एक अनुरोध है कि आप टिप्‍पणी के लिए गूगल का एकाउंट का प्रयोग कीजिए, आप पहले मेल पर साहित्‍य चर्चा किया करती थीं, सो वो तो आपके पास है….टिप्‍पणी करते हुए पहचान भरपूर पहचानी जा सके तो अच्‍छा रहता है।

  3. तुषार, सबसे पहले एक और लम्बी तथा मानीखेज कविता के लिए बधाई…तुमने इस कविता में भी अंत तक उस तनाव को बरकरार रखा है, जिसके बिना लम्बी कवितायें एक दयनीय प्रलाप में तब्दील हो जाती हैं.

    दूसरा यह कि इसमें जो विषय तुमने छुआ है, वह खासा खतरनाक है. विमर्शों के इस जल्दबाज, फतवादेह समय में 'ठाकुर हरिनारायण सिंह' के बहाने लम्बी कविता का प्लान बनाना खासा रिस्की काम है. इसे पढ़ते हुए आभाहीन हो चुके सामन्तवाद के गत यौवन का बयान करती कुछ कहानियाँ याद आती हैं. मुझे कविता के बीच से थोड़ी उम्मीद और थी. मुझे लगता है कि बीच में थोड़ा और डिटेल्स आ सकते थे. लेकिन जो मेरे लिए शाकिंग था वह है अंत. इतना निस्पृह! इतना सीधा…अलग से एक वाक्य नहीं. न सहानूभूति का न ही भर्त्सना का. और यही वाक्य तुम्हारी कविता के स्टेटमेंट को तय कर देता है. यहाँ आकर कविता बिलकुल वहां खड़ी हो जाती है जहाँ उसे होना चाहिए.

    एक और बात इसके शिल्प पर. इस कविता में गद्य को जिस तरह तुमने साधा है, जिस तरह वे टुकड़े अपनी आंतरिक लय और अर्थवत्ता के साथ आये हैं, वह तुम्हारी बढ़ती ताकत की ओर इशारा कर रहे हैं. अब कुछ और कविताओं, बल्कि लम्बी कविताओं का मेरा इंतज़ार बढ़ गया…

  4. पुराने सामंतवाद के ढहने और उसके स्थान पर नए सामंतवाद के स्थापित होने की त्रासद कथा को यह कविता पूरी काव्यात्मकता के साथ व्यक्त करती है. जैसे-जैसे कविता आगे बदती जाती है ठाकुर हरिनारायण सिंह के इर्द-गिर्द अनेक चहरे उग आते हैं जो उससे कहीं अधिक कठोर और मायावी हैं. जो एक नहीं अनेक मुखों से जनता को त्रस्त कर रहे हैं.जनता उनके बीच डरी-सहमी खड़ी है.उसके समझ में कुछ नहीं आ रहा है . यहाँ तक कि उनके सामने ठाकुर हरिनारायण सिंह भी बौना हो गया है.कविता इस बात को बताने में पूरी तरह सफल रही है कि नया सामंती चेहरा पुराने से अधिक क्रूर है. इस तरह यह कविता छद्म लोकतंत्र के चेहरे को भी बहुत प्रभावशाली तरीके से उघाड़ती है. अच्छी बात यह है कि लम्बी होने के बाबजूद कविता की लय कहीं भी भंग नहीं होती है जिसका कि लम्बी कविता में अक्सर खतरा रहता है. कविता शुरू से अंत तक पाठक को बांधे रखती है. कविता के साथ-साथ कथा रस भी प्रदान करती है.कहीं उलझाती-भटकाती भी नहीं
    है. तुषार ने कथ्य और शिल्प दोनों के साथ न्याय किया है. ……एक अच्छी कविता के लिए तुषार को बधाई.

  5. तुषार धवल जी की यह कविता वाकई हमारे समय के सामंती दौर की याद दिलाती है। उनकी कविताओं का सदैव प्रशंसक रहा हूँ। इस कविता ने भी कविता की भूख को तृप्‍त किया है।

  6. तुषार भाई को बधाई..
    एक बात मन में है कि जिस तरह का सोशिओलाजिकल फ्रेम यह कविता रचती है वह अभी भी विरल है.. बहुतायत तो अभी भी परंपरागत ठकुरैती की ही है.

  7. मैं इसे तुषार धवल की एक बोल्ड कविता मानता हूं. बने-बनाए विमर्शों से एकदम हटकर. ठहरकर सोचने के लिए मजबूर कर देती है यह कथा-कविता.

  8. मुझे यह कविता, एक कसावट से भरपूर गद्यकाव्य लगी. आरम्भ से अंत तक एक पाठ में पूरी कविता पढ़ जाना मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव था.

  9. क्या कहूँ कि यह कविता बीसवीं सदी के राजनीतिक यथार्थ को किस बोल्डनेस के साथ बयाँ करती है! जटिल, द्रुतगामी और परिवर्तनशील यथार्थ की आपसी विन्यस्त तहों को अनावृत्त करने के लिए जिस जीवन्त शिल्प और कहन की अपरिहार्यता अपेक्षित होती है, वह यहाँ प्रचुरता से मौजूद है। सामन्तवाद का पराभव तो हुआ लेकिन पश्चगामी ताकतें आज भी इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पातीं…वे राजनीतिक इक्विटी का लाभ लेने के लिए पागल हैं…इस और ऐसी तमाम विसंगतियों को सिर्फ एक कविता में समेट ले जाना किसी भी कवि के लिए एक बड़ी चुनौती है… बाबा नागार्जुन ने अपनी चिरपरिचित कविता हरिजन गाथा में कुछ कुछ ऐसी ही विसंगतियों को रेखांकित किया था.. तुषार धवल जैसे कवि-चित्रकार को बधाई देना, उनकी, बड़े फलक वाली इस कविता को सस्ते में 'निपटाने' जैसा है। यह कविता बधाई या हौसला-अफजाई से कुछ ज्यादा की अधिकारिणी है। शिरीष भाई को साधुवाद, अरसे बाद इतनी उम्दा कविता पढ़वाने के लिए…. प्रांजल धर

  10. यह एक बेहतरीन कविता है! आश्चर्यजनक होता है जब इतनी बड़ी कविता का आप पहले कर्सर से पूरा साइज़ देखकर हार मान लेते हैं, फिर ऐसे ही पहला पैरा पढना शुरू करते हैं तो फिर कविता वहीं ख़त्म हो जाती है और कुछ ऐसा शुरू होता है जो आप नहीं जानना चाहते क्या है बस समझना चाहते हैं और एक सांस में पढ़ लेना चाहते हैं. इसे कई-कई बार पढूंगा! अनुनाद और तुषार जी को बहुत-२ धन्यवाद!

  11. ठाकुर हरि नारायण सिंह ..नाम से ही सामन्तवाद का प्रतीक और आज इस कविता ने उनके इस सत्य को और स्पष्ट रूप से परिभाषित कर दिया. शुरूआती ठसक से उठे हुए और अंत में पान कि दूकान पर बैठे ठाकुर साहेब. बीच में चलता फिरता एक लम्बा कालचक्र ..और उसी का बयान बनी यह कविता. शुरुआत में दिए गए डिस्क्लेमर कि कोई ख़ास आवश्यकता नहीं थी ..पर कविता भी समय के कुचक्र से मुक्त नहीं हो सकती.

    बीच के संवाद इसे एक पल के लिए निरीह गद्य बना देते हैं लेकिन अगले खंड में ठाकुर साहेब के स्वप्न और अतीत के लिए तड़प ..डोरों से टूटी पतंगे, खाली शराब और बेस्वाद घूंट इसे फिर से पटरी पर ला देते हैं. हर पड़ाव में ठाकुर साहेब और जीवंत होते जा रहे हैं ..कविता उनसे भी ज्यादे उनका बखान करते हुए.

    काल बदला हैं ..ठाकुर बदले हैं स्थितियां नहीं बदली हैं और उत्तरजीविता का सिधांत और पैना हो गया है किताबों में लिखी बातों सा. हाथी दरवाजो से उखड गए हैं और गाँव कि शकल भी बदल गयी हैं ठाकुर साहेब कि तरह..और जो कुछ भी पुराना बचा था उसे म्यूजियम के लिए संभाल कर रख देगी यह कविता भी.

    अनुनाद पर कुछ भी पढना हमेशा से एक उत्साहवर्धन ही रहा हैं और तुषार जी के इस लम्बी कविता के लिए उनके धैर्य और खुली आखों से स्वप्न ना देखने कि प्रवित्ति पर धन्यवाद के साथ

  12. तुषार ने इस कविता को जिस तरह sociological और poetic दोनोँ स्तर पर तनी हुइ रस्सी पर की गई जोखिमभरी यात्रा के द्वारा श्रेष्ठता तक पहुँचाया है,वह दुर्लभ हैconceptual और poetic के तनाव को साधते हुए।इनकी कविताएँ बार बार पढे जाने की जिद करती हैँ,फिर भी बहुत सा अर्थ-दुग्ध बचा के रख लेती हैँ,अगले पाठ के मुहुर्त के लिए।यह सचमुच बड़ी कविता है ।

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